पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ उसका सबसे बड़ा हासिल यह है कि भारत में नीति निर्माण की प्रक्रिया दोबारा गठबंधन के दौर में वापसी कर चुकी है। अब तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के अहम साझेदार मसलन एन चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (TDP), नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू ने मोटे तौर पर कोई खास मांग सामने नहीं रखी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने भी अहम कैबिनेट मंत्रियों को दोबारा उन्हीं पदों पर नियुक्त कर संकेत दिया है कि वह पहले की तरह ही सरकार चलाएंगे। परंतु यह तय नहीं है कि यह दोस्ताना रिश्ता कितने दिन चलेगा?
गठबंधन साझेदारों को दिए गए मंत्रालयों पर नजर डालना दिलचस्प हो सकता है। तेदेपा को नागर विमानन मंत्रालय दिया गया है जो पहले भी गठबंधन साझेदारों को दिया जाता रहा है।
दिलचस्प है कि रेल मंत्रालय जिसकी अक्सर मांग रहती है वह पुराने अफसरशाह और पिछले रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के पास ही है। साझेदार दलों को दिए गए अन्य मंत्रालय हैं- पंचायती राज मंत्रालय, मत्स्य और पशुपालन मंत्रालय, इस्पात और भारी उद्योग मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण, सूक्ष्म और मझोले उपक्रम, कौशल विकास और पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा आदि।
दूसरी ओर इनमें से शायद ही कोई तत्काल नीति निर्माण से जुड़े मंत्रालयों में से कोई पाए। उन मंत्रालयों को भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेताओं के पास ही रहने दिया गया है। इनमें से कुछ ग्रामीण और ग्राम-शहर पर ध्यान देने वाली हैं।
उदाहरण के लिए खाद्य प्रसंस्करण का नाम लिया जा सकता है। अन्य मंत्रालयों का बड़े कारोबारों के साथ करीबी रिश्ता है, मिसाल के तौर पर नागर विमानन और इस्पात। इनमें से कम से कम एक यानी कौशल विकास और उद्यमिता आने वाले समय में नीति निर्माण का एक बड़ा केंद्र होगी। यह मंत्रालय राष्ट्रीय लोक दल के मुखिया और जाट नेता जयंत चौधरी को दिया गया है।
चौधरी की पार्टी के पास महज ढाई साल पहले तक केंद्र या राज्य के स्तर पर कोई निर्वाचित प्रतिनिधि तक नहीं था। यह एक तरह से धन्यवाद ज्ञापन है क्योंकि वह राष्ट्रीय राजधानी के आसपास के इलाकों में युवाओं में असंतोष को कम करने की क्षमता रखते हैं। अब उन्हें अहम जिम्मेदारी दी गई है।
यह निश्चित नहीं है कि उन्हें यह मंत्रालय अन्य साझेदारों की तुलना में अधिक विश्वसनीय मानकर दिया गया है या फिर कौशल विकास इस सरकार की प्राथमिकता में नीचे है। परंतु यह यह भय तो बना ही रहेगा कि गठबंधन के साझेदार अपनी जमीन बचाते हुए व्यापक सरकारी नीतियों को बाधित भी करेंगे।
उदाहरण के लिए वित्त मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय दोनों घरेलू कार्बन कीमतों को लेकर किसी समझौते पर पहुंच सकते हैं। क्या जनता दल सेक्युलर नेता तथा इस्पात और भारी उद्योग मंत्री एचडी कुमारस्वामी इसमें साथ देंगे? या फिर वह ऐसे किसी भी बदलाव को रोक देंगे जिसके बारे में उनके अफसरशाह उन्हें बताएं कि इससे निजी और सरकारी क्षेत्र की बड़ी इस्पात कंपनियों के मुनाफे और राजस्व में कमी आएगी।
कुमारस्वामी पहले ही सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन के लिए सरकार द्वारा तय की गई सब्सिडी के आकार पर सवाल उठाकर सुर्खियां बटोर चुके हैं। उन्होंने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि गुजरात में सेमीकंडक्टर योजना की बदौलत आने वाले हर रोजगार की लागत करीब 3.2 करोड़ रुपये होगी।
उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं में से भी कई अपेक्षित रोजगार नहीं तैयार कर सकीं। इसके बावजूद जैसा कि कुमारस्वामी ने भी बाद में माना योजना का उद्देश्य रोजगार तैयार करना नहीं बल्कि आपूर्ति श्रृंखला के कुछ महत्त्वपूर्ण घटकों का उत्पादन देश में करने की एक महंगी कोशिश है।
बहरहाल उनकी आलोचना इस बात का प्रमाण है कि गठबंधन सरकार कैसे काम कर सकती हैं या उन्हें कैसे काम करना चाहिए। हमें यह सुने कितने वर्ष हो चुके जब सरकार के किसी मंत्री ने ठोस वजहों से सरकारी नीतियों की आलोचना की हो?
सरकार की पहलों पर खुले में होने वाली और बहसें भी बुरी नहीं होंगी। अगर आप पलटकर 2014 के बारे में सोचें तो इस बात को लेकर संतोष का भाव था कि करीब चौथाई सदी के बाद देश को पूर्ण बहुमत वाली सरकार मिली थी। ऐसा माना जाता था कि गठबंधन धर्म के कारण बहुत सारे सुधारों की राह रुक जाती थी।
हर मंत्रालय में गतिरोध की स्थिति बनी हुई थी और प्रधानमंत्री कार्यालय भी इतना मजबूत नहीं होता था कि चीजों को अंजाम दे सके। निश्चित रूप से इन प्रक्रियाओं में बदलाव आया। प्रधानमंत्री कार्यालय भी मोदी के अधीन अधिक ताकतवर हुआ और मंत्रालयों के सचिव इतने अधिक सशक्त हुए कि वे सत्ता के केंद्र से सीधे बातचीत कर सके।
परंतु वास्तव में विधानों की गुणवत्ता में न तो सुधार हुआ और न ही उनकी गति में तेजी आई। उदाहरण के लिए श्रम कानूनों को नए सिरे से तैयार करने में भी बहुत वक्त लगा लेकिन उनमें बहुत कम बदलाव किए गए।
इसके बावजूद चारों नए श्रम कानूनों को अभी भी सही ढंग से पारित और क्रियान्वित होना है। भू अधिग्रहण जैसे विवादास्पद सुधारों के आसानी से पारित होने की उम्मीदें उस समय खत्म हो गईं जब प्रधानमंत्री ने स्वयं विपक्ष के दबाव में उनको वापस ले लिया।
इस बीच, प्रस्तावित विधेयकों मसलन नई आपराधिक संहिताओं की गुणवत्ता पर भी असर पड़ा क्योंकि इन पर सार्वजनिक रूप से, विभागों के बीच और कैबिनेट में भी उनकी उपयोगिता को लेकर पर्याप्त चर्चा नहीं की गई।
ऐसे में दूरदराज की एक संभावना यह है कि गठबंधन का यह नया दौर पिछले एक दशक से ज्यादा नहीं तो भी कम उत्पादक नहीं साबित होगा। राजग में भाजपा के बाद सबसे अधिक सदस्यों वाले साझेदार दल का नाम है नायडू का तेदेपा।
सुधारों और वृद्धि के मामले में उसकी छवि एक अग्रगामी सोच वाले दल की है। जदयू के नीतीश कुमार की छवि सक्षम प्रशासक की है। इन दोनों को विशिष्ट राजकोषीय रियायतें देनी पड़ सकती हैं जिससे राजकोषीय समेकन का काम मुश्किल होगा।
परंतु संभव है कि यह प्रगतिशील बदलावों की राह में रोड़ा न बने। यह भी ध्यान देने लायक है कि इस सरकार में भाजपा के आंकड़े लगभग उतने ही हैं जितने कि पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार में कांग्रेस के थे। 1991 में उसी सरकार ने सुधारों की प्रक्रिया शुरू की थी।
पहले की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री के कदमों के लिए असली चुनौती बाहरी नहीं आंतरिक होगी। ये गतिरोध राजनीतिक असर को लेकर उनके आकलन से ही उत्पन्न होते रहे हैं।
शायद यह करीबी चुनाव नतीजा यह याद दिलाएगा कि ऐसे राजनीतिक परिणामों का हमेशा कुशलतापूर्वक प्रबंधन नहीं किया जा सकता है। अब वक्त आ गया है कि कुछ जोखिम उठाया जाए और सुधार किए जाएं। गठबंधन उनकी राह नहीं रोकेगा।