देश में चुनाव प्रचार अभियान के अब चंद दिन ही बचे हैं। पिछले कई चुनावों के मुकाबले इस बार का चुनाव बेहद नीरस सा लग रहा है और चुनावी मुद्दों को लेकर भी कोई खासा जोर नहीं दिख रहा है।
प्रधानमंत्री की निजी लोकप्रियता ने शायद कई लोगों को यह मानने के लिए प्रेरित किया है कि विपक्ष की तरफ से कोई वास्तविक चुनौती नहीं है। ऐसे में पूरी चुनाव प्रक्रिया में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है। हालांकि हाल में जो दावा किया जा रहा है कि यह चुनाव काफी प्रतिस्पर्द्धी हो गया है और इस कारण बाजार और मीडिया से जुड़े विमर्श पर भी इसका प्रभाव देखा गया लेकिन इसका कोई ठोस आधार नहीं है।
भले ही यह हमारे दौर का सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी आम चुनाव न हो लेकिन कुछ कथ्यों (नैरेटिव) पर गौर करना जरूरी होगा ताकि यह पहचान की जा सके कि आखिर किन आर्थिक मुद्दों को लोकतांत्रिक बहस के योग्य माना जा रहा है। कांग्रेस के घोषणापत्र में यह उम्मीद दिखी कि इस तरह की चर्चा की गुंजाइश बनी रहे। यह पार्टी के पहले के घोषणापत्र के मुकाबले काफी लोकलुभावन है।
इसमें बड़े बदलावों के दावे किए गए हैं, मिसाल के तौर पर नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा संविधान संशोधन किया जा सकता है, आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा हटाई जा सकती है और समाज में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए अतिरिक्त कोटा मौजूद है।
सरकारी क्षेत्र की नौकरियों पर ध्यान केंद्रित करना जारी रहेगा और पार्टी ने आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार की करीब 30 लाख रिक्तियां भरी जाएंगी और राज्य में धीरे-धीरे अनुबंध वाली प्रक्रिया भी खत्म की जाएगी। सरकार ने सेना की भर्तियों में सुधार के तहत अतिरिक्त मानव संसाधन को घटाने का फैसला किया उसे भी कांग्रेस ने खत्म करने का वादा किया है।
यह उम्मीद की जा सकती है कि इस तरह के मुद्दों के चलते भारत में रोजगार सृजन में वृद्धि को लेकर चर्चा हो सकती है कि इस तरह की वृद्धि का लाभ सबके लिए समावेशी है या नहीं। हाल के अध्ययन से यह अंदाजा मिलता है कि भारत में नौकरी और वेतन वृद्धि थम सी गई है जिस पर समसामयिक और प्रासंगिक चर्चा होनी चाहिए। कांग्रेस जिस तरह से रोजगार वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह की प्रणाली को तरजीह दे रही है उसके खिलाफ पर्याप्त तर्क दिए जा सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले हफ्ते एक साक्षात्कार में इस मुद्दे पर चर्चा की। उनका कहना था कि सरकारी नौकरियां, रोजगार सृजन के समान नहीं है और उन्होंने सुझाव दिया कि लघु पैमाने वाले ‘मुद्रा लोन’ और बुनियादी ढांचे में निवेश से भी नौकरियों के मौके बने हैं और उनका दावा था कि इन नौकरियों की तादाद करीब 6 करोड़ थी।
उन्होंने सरकारी क्षेत्र की नौकरियों की भर्ती में किए गए बदलाव पर अपनी सरकार का बचाव किया। लेकिन यह तर्क इसलिए दमदार नहीं है कि पर्चे लीक होने, परीक्षा टाले जाने की वजह से आवेदकों के लिए भर्ती की पूरी प्रक्रिया ही बुरा सपना साबित हो रहा है।
इस पर ध्यान देना जरूरी हो सकता है लेकिन इस रणनीति का प्रभाव साफतौर पर कम हो रहा है। बुनियादी ढांचे का निवेश खासतौर पर अगर यह निर्माण से जुड़ा है तब यह अकुशल मजदूरों के लिए अपार मौके ला सकता है। कुछ शोध से यह भी अंदाजा मिलता है कि निर्माण एक ऐसा क्षेत्र है जहां मौके बनना संभव हुआ है और इसकी वजह से भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन भी हुआ है और उदाहरण के तौर पर यह गैर-आनुपातिक तरीके से इस क्षेत्र की स्थिति पर भी निर्भर है।
देश के कई हिस्से से इस तरह की कहानियां आती है कि कई युवा जिन्होंने ऑनलाइन कोचिंग क्लास या प्रवेश परीक्षा में पैसे लगाए हैं वे पत्थर तोड़ने वाले काम में जुट गए या फिर ठेकेदारों के लिए निर्माण कार्य करने लगे।
नए रोजगार में वृद्धि के विषय को सरकार और विपक्ष दोनों ने ही नजरअंदाज किया है। वर्ष 2019 में जब आखिरी आम चुनाव लड़े गए थे तब कुछ हद तक आर्थिक मुद्दों की भूमिका रही और यह जनकल्याण से जुड़े सवालों पर भी केंद्रित रही। कांग्रेस ने देश के 20 फीसदी सबसे गरीब लोगों को एक वर्ष में 72,000 रुपये की बुनियादी आय योजना का वादा किया था।
हालांकि सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली और रसोई गैस की उपलब्धता के जरिये जनकल्याण के लिए डिलिवरी में सुधार पर जोर दिया है। 2019 के चुनाव के बाद किए गए विश्लेषण में इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘लाभार्थी वर्ग’ की तादाद 20 करोड़ से ज्यादा है और यही वर्ग मौजूदा सरकार के लिए सुरक्षित वोट में तब्दील हुआ।
उस वक्त के बाद से भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इस कथ्य पर पूरा जोर देना जारी रखा है। पिछले विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में हुई जीत को लेकर यह तर्क दिया गया कि यह ‘मोदी की गारंटी’ नारे का नतीजा है जो जन कल्याण के प्रभाव पर केंद्रित है और यहां तक कि राज्य स्तर पर भी प्रधानमंत्री का निजी हस्तक्षेप है। कांग्रेस ने तब से सरकार को चुनौती देते हुए मुफ्त दोगुना खाद्य राशन देने का वादा किया है जो एक महीने में करीब 10 किलोग्राम होगा। लेकिन इस मुद्दे को लेकर भी चुनौतियां हैं।
प्रचार अभियान के दौरान ही जमीनी स्तर पर ‘मोदी की गारंटी’ विज्ञापन को धीरे-धीरे हटा दिया गया है। वर्ष 2019 की तरह ही 2024 के चुनाव के विश्लेषण में कल्याणकारी प्रचार अभियान एक बड़ा थीम बनकर उभरेगा इसकी संभावना कम है।
सरकार और बड़े कारोबारी घराने के रिश्ते का मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ है। शुरुआत में ही प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर बड़ा बयान देते हुए कहा कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी बड़े उद्योगपतियों पर हमला नहीं कर रहे हैं क्योंकि नोटों से भरा टेंपो कांग्रेस पार्टी के पास पहुंच रहा है।
हालांकि राहुल गांधी ने सरकार और देश के अमीर लोगों के बीच करीबी रिश्ते को लेकर हमला तेज करते हुए कहा, ‘पूरा सरकारी क्षेत्र ही खत्म हो जाएगा और देश 22-25 लोग ही चलाएंगे। वे लोग कौन हैं? वे देश के अरबपति हैं और उनकी आंखें आपकी जमीन, जंगल और जल पर है। सभी हवाईअड्डे, पावर स्टेशनों, बंदरगाहों, बुनियादी ढांचे को प्रधानमंत्री मोदी ने इन 22-25 लोगों को दिया है। उन्होंने आपका कर्ज माफ नहीं किया लेकिन उन्होंने देश के 22 अमीर लोगों का 16 लाख करोड़ रुपये का ऋण माफ कर दिया।’
प्रधानमंत्री ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने के तरीके में भी बदलाव किया है। माओवादी हिंसा के लंबे इतिहास वाले राज्य, झारखंड में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने माओवादी भाषा का इस्तेमाल किया है और इसके चलते कांग्रेस शासित राज्यों में निवेश करने से पहले निवेशक 50 बार सोचेंगे। क्या यहां कोई स्पष्ट अंतर बताने की कोशिश की गई है?
कांग्रेस ने निश्चित रूप से अलग रास्ता अख्तियार किया है जिसकी वजह से प्रधानमंत्री ने भी निवेश के अनुकूल अपनी साख पर पूरे उत्साह से जोर देना शुरू किया है। पिछले 10 सालों में निजी निवेश में तेजी नहीं आई है और विपक्ष ने भी इसको मुद्दा नहीं बनाया है।
इस चुनाव में आर्थिक नीति भले ही प्रमुख मुद्दा नहीं हो सकता है लेकिन निजीकरण जैसे मुद्दे पर अंतर, काफी हद तक पिछले वर्षों के मुकाबले ज्यादा है। वहीं दूसरी विपक्ष को मतदाताओं के लिए रोजगार सृजन जैसे अहम मुद्दे पर ज्यादा सफलता नहीं मिली है।