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Opinion: ‘बड़े सुधारों’ के बिना हासिल होती वृद्धि

देश की आर्थिक मजबूती यह दिखाती है कि चरणबद्ध सुधार कहीं अधिक प्रभावी साबित हुए हैं। बता रहे हैं टी टी राम मोहन

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- February 20, 2024 | 9:21 PM IST

वर्ष 2020-21 में कोविड के झटके के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। भला किसने सोचा होगा कि कोविड के बाद लगातार तीन सालों तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी सात फीसदी से ऊपर के स्तर पर रहेगा? अब यह भी संभव है कि 2024-25 में हम सात फीसदी से भी अधिक वृद्धि दर हासिल कर लें।

वर्ष 2021-22 में नौ फीसदी की वृद्धि दर को समझा जा सकता है। उस समय हम ठीक पिछले वर्ष जीडीपी में आई गिरावट से वापसी कर रहे थे। चकित करने वाली बात है अगले दो साल तक सात फीसदी की वृद्धि दर। याद रहे यह वृद्धि दर विपरीत अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के बीच आई थी। वर्ष 2022-23 और 2023-24 दोनों साल भारत के सामने यूक्रेन युद्ध और विकसित देशों में उच्च ब्याज दर की परिस्थितियां रहीं। इनका परिणाम वैश्विक वृद्धि के धीमेपन के रूप में सामने आया। इस अवधि में ज्यादातर समय देश में मुद्रास्फीति भी असहज रूप से ऊंचे स्तर पर रही और मौद्रिक सख्ती की आवश्यकता पड़ी।

नवंबर 2022 में कई विश्लेषकों ने यह चेतावनी दी थी कि हमारे सामने विनिमय दर और भुगतान संतुलन की वैसी ही चुनौतियां आ सकती हैं जिनका सामना हमें 2013 में करना पड़ा था। कुछ विश्लेषकों ने रुपये की विनिमय दर के प्रति डॉलर 85 से नीचे जाने की बात भी कही। उन्होंने सरकार को सलाह दी कि वह किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहे।

बहरहाल, ऐसा कुछ नहीं हुआ और भारतीय अर्थव्यवस्था ने बीते दो वर्षों की चुनौतियों का डटकर सामना किया। वित्त मंत्रालय ने अर्थव्यवस्था की जो समीक्षा की वह कोविड काल के दौरान और उसके पहले अपनाई गई नीतियों की आर्थिक मजबूती के बारे में बताती है।

यह सही है लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि बाहरी झटके उतने जोखिम भरे नहीं रहे जितनी कि आशंका थी। यूक्रेन युद्ध के कारण तेल क्षेत्र में बहुत बड़ा झटका नहीं लगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी उस कदर बेपटरी नहीं हुई जितनी कि कई लोगों ने भविष्यवाणी की थी। अमेरिका और उसके यूरोपीय साझेदारों ने रूसी तेल आपूर्ति पर मूल्य सीमा लगाने का निश्चय किया, बजाय कि पूर्ण प्रतिबंध लगाने के। इस वजह से खरीदारों को तेल वाजिब दाम पर मिल सका और रूस को मिलने वाले राजस्व में भी कमी आई।

कोविड के झटके को लेकर सरकार की प्रतिक्रिया की बात करें तो जैसा कि समीक्षा में कहा गया है कि यह प्रतिक्रिया विशिष्ट थी। अन्य अर्थव्यवस्थाओं के राजकोषीय प्रोत्साहन के साथ तुलना करें तो भारत का प्रोत्साहन कम था और पूंजीगत व्यय के एक हिस्से के रूप में सीमित था। उसे खपत के लिए स्थानांतरित नहीं किया गया। स्थानीय लॉकडाउन और देशव्यापी टीकाकरण ने संक्रमण को सीमित रखा।

बैंकिंग में नियामक के प्रयासों से सकारात्मक परिणाम आए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने दिखाया कि अगर नियामकीय सहनशीलता का समुचित इस्तेमाल किया जाए तो यह प्रभावी साबित हो सकता है। बैंकिंग क्षेत्र कोविड के झटके के पहले भी दबाव में था, उसके फंसे हुए कर्ज में कमी आई और सितंबर 2023 तक यह कुल बकाया ऋण का केवल 3.2 फीसदी रह गया। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

बीते वर्षों के दौरान प्राकृतिक आपदाओं मसलन बाढ़ और भूकंप आदि से निपटते हुए भारत ने आपदा प्रबंधन में उल्लेखनीय विशेषज्ञता हासिल कर ली है। एक के बाद एक आर्थिक मुश्किलों ने आर्थिक आपदाओं से निपटने में भी वैसी ही विशेषज्ञता प्रदान की। अब नीति निर्माताओं के पास ऐसे तमाम प्रभावी उपाय हैं जिनकी मदद से भुगतान संतुलन, बैंकिंग और वित्तीय बाजार के संकटों को दूर किया जा सकता है।

अर्थशास्त्र के विद्वानों और विश्लेषकों ने जोर देकर कहा कि बिना गंभीर सुधारों के वृद्धि दर 6 फीसदी या उसके आसपास टिकी रहेगी। राजकोषीय समेकन को भी उच्च वृद्धि के लिए अनिवार्य बताया गया। हम जीडीपी के तीन फीसदी के राजकोषीय घाटे और 60 फीसदी सार्वजनिक ऋण के तय लक्ष्य से काफी दूर हैं।

बड़े सुधारों यानी निजीकरण, कर्मचारियों को काम पर रखने और निकालने की आजादी, भूमि अधिग्रहण नियमों में सुधार आदि लगातार अनुपस्थित नजर आए हैं। न्यायिक और प्रशासनिक सुधार भी ऐसे क्षेत्र हैं जहां जरूरी गति से सुधार नहीं हो सके हैं। इसके बावजूद न तो राजकोषीय समेकन की कमी और न ही बड़े सुधारों की कमी तीन वर्षों तक सात फीसदी से अधिक की वृद्धि के रास्ते में आ सकी।

कई विश्लेषक कहेंगे कि वृद्धि की मौजूदा गति कोविड के दौर के कम आधार का प्रतिनिधित्व करती है और उसे लगातार जारी नहीं रखा जा सकता है। वित्त मंत्रालय ने जो समीक्षा की है वह इस विचार से जुड़ी नहीं दिखती। उसका सुझाव है कि 2030 के बाद वृद्धि दर सात फीसदी से अधिक हो सकती है लेकिन वह इसके लिए बड़े सुधारों की जरूरत नहीं बताती।

इसके बजाय समीक्षा से संकेत निकलता है कि ऐसे नतीजे पहले से चले आ रहे कम कठोर सुधारों से हासिल हुए: भौतिक और डिजिटल अधोसंरचना में निवेश, कंपनियों और बैंकों की बैलेंस शीट में सुधार, बढ़ते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिये तकनीक हस्तांतरण, मानव संसाधन में निवेश और बेहतर निवेश प्रदर्शन। एक संभावित प्रतिवाद यह हो सकता है कि गंभीर सुधारों की मदद से वृद्धि और अधिक ऊंचे स्तर पर जा सकती है मसलन आठ फीसदी। यह समझदारी भरी सोच है। यह देखना मुश्किल है कि निकट भविष्य में घाटा पांच फीसदी से नीचे कैसे आएगा।

देश के बढ़ते आर्थिक कद की बात करें तो उसे सैन्य क्षमताओं में भी विस्तार करना होगा। यानी अकेले रक्षा व्यय राजकोषीय घाटे में एक फीसदी का इजाफा कर सकता है। जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध ढंग से खत्म करने और जलवायु परिवर्तन की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए जरूरी निवेश भी इस घाटे में एक फीसदी और इजाफा कर सकता है। भारत ने राजकोषीय घाटे और सार्वजनिक ऋण में इजाफे के बावजूद उल्लेखनीय वृद्धि हासिल की है। यह बात राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 पर टिके रहने को लेकर राजनेताओं का उत्साह कम करती है।

जहां तक बड़े सुधारों की बात है, हमने देखा है कि संसदीय बहुमत इन सुधारों के लिए पर्याप्त नहीं है। एक के बाद एक सरकारों ने यही समझा है कि सुधारों को न केवल वृहद आर्थिक स्थिरता के साथ सुसंगत रहना चाहिए बल्कि साथ ही राजनीतिक और वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता और राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ भी तालमेल में होना चाहिए।

ऐसे बड़े सुधार राजनीतिक दृष्टि से विवादास्पद बने हुए हैं। राजधानी दिल्ली के एक बार फिर किसानों के हाथों बंधक बनने जैसे हालात बन गए हैं। वे पहले भी कृषि कानूनों को सफलतापूर्वक वापस करा चुके हैं। तेज जीडीपी वृद्धि हासिल करने के लिए बैंक ऋण में ऐसी वृद्धि की आवश्यकता है जो बैंकिंग तंत्र को अस्थिर कर सके। सुधारों को लेकर गहरा खुलापन तेज वृद्धि की वजह बन सकता है लेकिन अब हर देश इस बात को लेकर सचेत है कि वह किससे, क्या और कितना आयात कर रहा है।

आप चाहे इसे जैसे देखें, निरंतर सात फीसदी की वृद्धि भारत के लिए सबसे सही प्रतीत होती है। बीते तीन दशकों का रिकॉर्ड यही बताता है कि ऐसा बड़े सुधारों के बिना और चरणबद्ध सुधारों के जरिये भी हो सकता है।

First Published : February 20, 2024 | 9:21 PM IST