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Opinion: आरक्षण से ​लेकर प्रतिभा तक की चर्चा

हमें ऐसी प्रारं​भिक परियोजनाएं शुरू करनी चाहिए कि ताकि कोटा समाप्त होने के बाद के वक्त के लिए बेहतर विकल्प तैयार हो सके।

Last Updated- July 07, 2023 | 11:31 PM IST

बिना बेहतर विकल्प के कोटा व्यवस्था (Reservation System) को समाप्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन विकल्प के बारे में चर्चा ही कहां हो रही है? अपनी राय रख रहे हैं आर जगन्नाथन

भा रत और विश्वभर में समावेशन और समता को लेकर गलत प्रकार की बहस हो रही है। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में 6-3 के बहुमत से दो शैक्ष​णिक संस्थानों में नस्ल आधारित आरक्षण (अफर्मेटिव ऐक्शन) को समाप्त कर दिया। ये संस्थान हैं हार्वर्ड और नॉर्थ कैरोलाइना विश्वविद्यालय।

परंतु ऐसे वक्त जब अदालतें भी दशकों की ‘प्रगतिशील कानून निर्माण’ की प्रक्रिया को पलट रही हैं, राजनेता जाति को एक और भेदभाव के एक और प्रकार के रूप में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। यानी वे भारतीय समस्या को अमेरिका में पैदा कर रहे हैं जबकि उनकी न्यायपालिका कह रही है कि नस्ल के आधार पर आरक्षण नहीं किया जा सकता। भारत में हम विपरीत दिशा में जा रहे हैं और हमारे यहां कोटा इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय 49 फीसदी की सीमा भी पार कर रहा है।

जनगणना के बाद कोटा सीमा और बढ़ेगी

अभी हाल ही में एक अन्य पीठ ने इस सीमा का उल्लंघन किया और आ​र्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए 10 फीसदी के अतिरिक्त आरक्षण का प्रावधान किया। अन्य पिछड़ा वर्ग की जनगणना की चर्चा चल रही है जबकि उसके बाद कोटा सीमा और बढ़ेगी।

यह मामला अमेरिका के सही या भारत के गलत होने का नहीं है। हम आंख मूंदकर उन लोगों के साथ एक खास किस्म का न्याय करना चाहते हैं। इसे कॉ​स्मिक ज​स्टिस कहा जा सकता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री थॉमस सॉवेल ने यह शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया था जिन्हें हम वंचित मानते हैं। लेकिन इस बीच हम सामाजिक और आ​र्थिक पिछड़ेपन की वास्तविक चुनौतियों का सामना नहीं कर रहे हैं।

कुछ समूहों को अंतहीन कोटा देकर हम शायद उनका अमानवीयकरण कर रहे हैं क्योंकि इसकी मदद से उन्हें स्थायी रूप से पीड़ित की छवि प्रदान की जा रही है। यह दीर्घाव​धि में उनके लिए नुकसानदायक होगा। प​श्चिम के उदारवादी जिनमें से अ​धिकांश श्वेत हैं, वे यही यकीन करना चाहेंगे कि नस्लवाद और शोषण आदि ढांचागत प्रकृति के हैं और उनका अंत केवल तभी हो सकता है जब भेदभाव को गैर श्वेतों के पक्ष में पलटा जा सके।

भारत में हम भी इसी बात पर यकीन करते हैं। हम जाति आधारित असमानता का अंत चाहते हैं लेकिन बिना किसी ठोस प्रमाण के हमने यह नतीजा निकाल लिया है कि ऐसा करने का एकमात्र तरीका कोटा, आरक्षण और पुरानी व्यवस्था के ​खिलाफ सक्रिय भेदभाव है। अब हमने जीवन के हर पहलू में जाति को शामिल कर लिया है। यह प्रगति कैसे हुई?

समावेशन या समता को लेकर किसी को प्रश्न नहीं करना चाहिए लेकिन यूरोपीय जागरण, अमेरिकी गृहयुद्ध और जातिवाद के ​खिलाफ हमारी लंबी लड़ाई के बाद भी हमारे पास कोटा या अफर्मेटिव ऐक्शन का कोई सही विकल्प क्यों नहीं है?

एक कहावत से शुरुआत करते हैं। कार्ल मार्क्स ने 1875 में जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी (जिससे वह जुड़े थे) को लिखे पत्र में कहा था कि कम्युनिज्म का एक मात्र लक्ष्य है: हर व्य​क्ति अपनी क्षमता के मुताबिक काम करे और हर व्य​क्ति को उसकी जरूरत के बराबर मिले। यह पं​क्ति उल्लेखनीय है। केवल इसलिए नहीं कि यह कोई अहम बात कहती है ब​ल्कि इसलिए भी कि व्यवहार में मार्क्सवाद ने इस बात के दूसरे हिस्से पर अ​धिक तवज्जो दी है यानी पुनर्वितरण वाले पहलू पर। मार्क्स मानते थे कि एक गैर शोषणकारी समाज वाले उनके आदर्श राज्य की कल्पना तभी साकार होगी जब नियंत्रण सर्वहारा के पास होगा लेकिन हम जानते हैं कि सर्वहारा की तानाशाही में दोनों में से कुछ भी हासिल नहीं होता।

इससे केवल एक नया शोष कुलीन वर्ग तैयार हुआ। मार्क्स एक बुनियादी सवाल करने से चूक गए: क्या एक तानाशाही में एक व्य​क्ति अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल कर सकता है।

उदारवाद की दिक्कत यह है कि यह मार्क्सवाद की दमनक और दमित की अवधारणा में यकीन करता है। अमेरिका और भारत के उदारवादी प्रतिष्ठान विचारों की एक तानाशाही तलाश कर रहे हैं ताकि अपने एजेंडा आगे बढ़ाए जा सकें। विविधता में कमी आ रही है।

मार्क्सवादी आदर्श की बात करें तो सवाल यह है कि हम व्य​क्तिगत क्षमता का अ​धिकतम लाभ कैसे ले सकते हैं। वह भी उन लोगों के योगदान को ध्यान में रखते हुए​ जिनका योगदान कम महत्त्वपूर्ण है। अंतिम लक्ष्य है एक संतुलित, ​स्थिर और एक दूसरे का ख्याल रखने वाला समाज तैयार करना, न कि किसी विचारधारा की जीत या हार।

यहां ये सवाल भी पैदा हो सकते हैं कि क्या कोई समाज बिना समावेशन और योग्यता के दोहरे लक्ष्यों में संतुलन कायम किए बिना अपनी उत्पादक क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल कर सकती है?

क्या बड़ी कंपनियां या संगठन या समाज समावेशन या समता की तलाश में प्रतिभा की अनदेखी करके तैयार हो सकते हैं? क्या हमारे आईआईटी, आईआईएम, इसरो, एचडीएफसी बैंक या इन्फोसिस प्रतिभा की अनदेखी करके विश्वस्तरीय संस्थान बने?

हमें यह भी पूछना चाहिए: योग्यता दरअसल क्या है? क्या इसका अर्थ अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का इस्तेमाल करना है या फिर किसी कठिन परीक्षा द्वारा खड़े किए गए कृत्रिम मानक को पूरा करना? उदाहरण के लिए अगर हम योग्यता को आईआईटी-जेईई, नीट या कैट की परीक्षा पास करने वालों से मिलाएं तो हम योग्यता को कुछ खास चीजों तक सीमित करके देखते हैं।

परंतु कई आईआईटी इंजीनियर सॉफ्टवेयर की नौकरी करते हैं, न कि अच्छी गुणवत्ता वाला इंजीनियरिंग का काम। संक्षेप में हम योग्यता और इंजीनियरिंग प्रतिभाएं नहीं चुन रहे हैं ब​ल्कि बिना योग्यता के उच्च वेतन वाली नौकरी की अर्हता पूरी कर रहे हैं।

सन 1999 में आई किताब फर्स्ट, ब्रेक ऑल द रूल्स में लेखक मार्कस बकिंघम और कर्ट कॉफमैन कहते हैं कि दुनिया के महान प्रबंधकों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन ऐसी निरपेक्ष परीक्षा प्रणाली में नहीं किया ब​ल्कि यह दर्ज करके किया कि कैसे व्य​क्ति ही अपनी आंतरिक प्रतिभा का सटीक इस्तेमाल करके ऐसे काम पूरा कर सकते हैं जिनके लिए उसी तरह की प्रतिभा की आवश्यकता होती है।

कोटा व्यवस्था के रहते तैयार नहीं हो पाएंगे अगले आंबेडकर 

इस आदर्श व्यवस्था में एक प्रतिभाशाली व्य​क्ति मिसाल के तौर पर एक अच्छा सेल्समैन पदोन्नत होकर कभी वाइस प्रेसिडेंट (सेल्स) या सीईओ नहीं बन पाएगा लेकिन उस काम को बेहतर ढंग से करने के लिए उसे पुरस्कृत अवश्य किया जाएगा। यह बात हर व्य​क्ति से सर्वश्रेष्ठ हासिल करने के मार्क्सवादी आदर्श के करीब ठहरती है। सच्ची योग्यता प्रतिभा और उत्पादकता का पदानुक्रम तैयार करती है।

समावेशन और समता को कोटा से नहीं ब​ल्कि यह चिह्नित करके हासिल किया जा सकता है कि कौन सी प्रतिभा, हर व्य​क्ति से बेहतरीन नतीजे हासिल करने की दृ​​ष्टि से अच्छी है।

वंचित वर्ग के जो युवा सही मायनों में प्रतिभाशाली हैं, उन्हें बेहतर मार्गदर्शन, वित्तीय सहायता और सहयोग की आवश्यकता है ताकि वे बेहतरीन लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। अंतहीन कोटा और आरक्षण से बात नहीं बनेगी। उन्हें उद्यमी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि सरकारी नौकरी पर निर्भर रहने देना चाहिए। सात दशकों से हम निरंतर यह संदेश देते रहे हैं कि नौकरियों के लिए समूह की पहचान जरूरी है।

बाबा साहब आंबेडकर इसका अच्छा उदाहरण हैं। उनके बेहतरीन सामाजिक और बौद्धिक योगदान उनके अपने प्रयासों का नतीजा था। उनके प्रति ​सदिच्छा रखने वालों ने भी कुछ योगदान किया था। कुछ समय तक कोटा अपरिहार्य हो सकता है लेकिन अंतत: कोटा प्रतिभा और योग्यता को नष्ट करता है। हमें ऐसी
प्रारं​भिक परियोजनाएं शुरू करनी चाहिए कि ताकि कोटा समाप्त होने के बाद के वक्त के लिए बेहतर विकल्प तैयार हो सके। कोटा व्यवस्था के रहते अगले आंबेडकर तैयार नहीं हो पाएंगे।

(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)

First Published - July 7, 2023 | 11:31 PM IST

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