केंद्र सरकार की पिछले माह घोषित नई विदेश व्यापार नीति पर विशेषज्ञों और निर्यात समुदाय ने अलग-अलग टिप्पणियां की हैं। बहरहाल, इस नई नीति का एक अहम पहलू जिस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया वह है सरकार की यह मान्यता कि नई नीति से निर्यातकों को आने वाले वर्षों में लाभ होगा।
नई नीति ने 2030 तक वस्तु एवं सेवा निर्यात को दो लाख करोड़ डॉलर पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है। यह एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य है। वर्ष 2022-23 के लिए सरकार का वस्तु एवं सेवा निर्यात का लक्ष्य 770 अरब डॉलर है। वर्ष 2029-30 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अगले सात वर्षों में 14.61 फीसदी की सालाना समेकित वृद्धि दर (सीएजीआर) हासिल करनी होगी। दूसरे शब्दों में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वस्तु एवं सेवा निर्यात की हिस्सेदारी 2022-23 के 23 फीसदी से बढ़कर 2029-30 में 28 फीसदी होने की उम्मीद है। यह सरकार के इन अनुमानों पर आधारित है कि तब तक देश की अर्थव्यवस्था 7 लाख करोड़ डॉलर की हो जाएगी।
बीते एक दशक में वस्तु एवं सेवा निर्यात का सीएजीआर 6 फीसदी से थोड़ा कम रहा। यह सही है कि कोविड ने निर्यात को कम से कम दो सालों तक बुरी तरह प्रभावित किया लेकिन यह भी तथ्य है कि कोविड के बाद के दो सालों में निर्यात में तेज सुधार नजर आया। इस सुधार के बावजूद बीते दशक का सीएजीआर 5.61 फीसदी था।
अगर निर्यात को वस्तु एवं सेवा निर्यात में अलग-अलग करके देखा जाए तो हम पाएंगे कि काम और कठिन हो जाता है। वस्तु निर्यात में पिछले 10 वर्ष में 4 फीसदी सीएजीआर वृद्धि देखने को मिली लेकिन अगले सात वर्षों का लक्ष्य 12 फीसदी होगा। सेवा निर्यात का परिदृश्य भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है और 2029-30 का उसका लक्ष्य 17.5 फीसदी सीएजीआर का है। जबकि बीते दशक में उसका प्रदर्शन 8 फीसदी से कुछ ही अधिक रहा।
यह सच है कि भारत ने बीते दो वर्षों में अच्छा सेवा निर्यात हासिल किया और सालाना वृद्धि दर क्रमश: 21 और 29 फीसदी रही। परंतु सेवा निर्यात में वृद्धि पिछले कुछ वर्षों में धीमी रही है। ऐसे में बीते दशक में सेवा निर्यात का सीएजीआर करीब 9 फीसदी रहा है।
वस्तु निर्यात का आंकड़ा 2021-22 में काफी सुधरा और उसमें 44 फीसदी की वृद्धि देखने को मिली। परंतु उससे अगले वर्ष यह वृद्धि कम होकर केवल 6 फीसदी रह गई। इससे भी बुरी बात यह है कि करीब एक दर्जन से अधिक क्षेत्रों में (इंजीनियरिंग वस्तु, रत्न एवं आभूषण, कपास और कालीन, प्लास्टिक लौह अयस्क और काजू आदि) 2022-23 में गिरावट आई। ऐसे में सरकार अगले सात वर्षों के लिए दो अंकों का लक्ष्य क्यों तय करेगी?
यहां सरकार की दलील यह हो सकती है कि लक्ष्य तय करने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को भी अतीत के प्रदर्शन के आधार पर ही तय किया जाना चाहिए। यकीनन 2015 में घोषित पिछली नीति में भी निर्यात के लिए बड़े लक्ष्य तय किए गए थे जो अतीत के बेहतर प्रदर्शन पर आधारित थे।
2015 की विदेश व्यापार नीति ने 2013-14 के 466 अरब डॉलर के वस्तु एवं सेवा निर्यात से 11.6 फीसदी सीएजीआर के हिसाब से 2019-20 के लिए 900 अरब डॉलर का लक्ष्य तय किया था। यह लक्ष्य 2004-05 से 2014-15 तक के 14 फीसदी के स्वस्थ सीएजीआर के आधार पर तय किया गया था। परंतु 2015 की नीति के दौरान हमें महज दो फीसदी सीएजीआर देखने को मिला।
जाहिर है सरकार ने अनुभव से सही सबक नहीं लिए। एक और अहम सवाल जिसका जवाब नहीं मिल सका वह यह था कि क्या निर्यात का कोई लक्ष्य तय करने की जरूरत भी थी? इससे पहले की एक सरकार के वाणिज्य मंत्री का कहना था कि सरकार को निर्यात लक्ष्य नहीं तय करने चाहिए। उनकी दलील थी कि निर्यात का काम सरकार का नहीं कंपनियों का है। सरकार का काम होना चाहिए नीतिगत मदद के जरिये निर्यात बढ़ाने के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करना। इसके बाद का काम निर्यातकों और क्षेत्रीय निर्यात संवर्द्धन परिषदों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
निर्यात लक्ष्य की तुलना सरकार के राजकोषीय घाटा लक्ष्य से नहीं की जा सकती है। राजकोषीय घाटे का लक्ष्य इस बात से संबंधित है कि सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं और परियोजनाओं पर व्यय कैसे करेगी और राजस्व में इजाफा किस प्रकार करेगी? ऐसे में सरकार को घाटे का लक्ष्य तय करना चाहिए और उसके प्रति जवाबदेह भी होना चाहिए।
बहरहाल, निर्यात का लक्ष्य निर्यातकों को हासिल करना होता है और इसमें सफलता या विफलता के जिम्मेदार भी निर्यातक होते हैं। अगर सरकार की नीतियां इसमें मददगार हो सकती हैं तो संबंधित विभागों को इस बारे में सरकार से चर्चा करनी चाहिए और उसे समुचित कदम उठाने के लिए कहना चाहिए। परंतु सरकार का निर्यात लक्ष्य तय करना गलत नीतिगत प्राथमिकता का उदाहरण है।
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ऐसा लक्ष्य तय करना सरकार के लिए अपेक्षाकृत आसान नीतिगत विकल्प है। 2015 की विदेश व्यापार नीति के 900 अरब डॉलर का निर्यात लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहने के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। केवल 526 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति होने और लक्ष्य से 58 प्रतिशत दूर रहने पर भी कोई कार्य योजना नहीं बनाई गई।
जब तक वैश्विक स्तर पर वस्तु एवं सेवाओं की मांग में आमूलचूल बदलाव नहीं आता है तब तक दो लाख करोड़ डॉलर के निर्यात का लक्ष्य दूर की कौड़ी बना रहेगा। तब शायद 2030 में कोई भी सरकार को 2023 में तय किए गए लक्ष्यों के लिए जवाबदेह नहीं मानेगा। सरकार के लिए एक तरीका यह है कि वह निर्यात लक्ष्य के बारे में ज्यादा न सोचे। अगर कोई लक्ष्य तय करना ही हो तो वह पांच या सात वर्ष की अवधि के लिए नहीं होना चाहिए। सरकार को सालाना लक्ष्य तय करना चाहिए जिसकी निगरानी की जा सके और लक्ष्यों पर पुनर्विचार किया जा सके।
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लक्ष्य तय करने से भी अधिक जरूरी यह है कि घरेलू नीतियों के निर्माण पर ध्यान दिया जाए ताकि निर्यात को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके। विनिमय दर नीतियों को ऐसा बनाया जाना चाहिए जिससे निर्यातकों को मदद मिले। आयात शुल्क को भी नीचे लाया जाना चाहिए ताकि निर्यातकों की लागत कम हो सके। आखिर में जैसा कि सन 1990 के सुधार वाले शुरुआती वर्षों में वाणिज्य मंत्री ने सोचा था, अगर विदेश व्यापार नीति महज तीन से पांच पृष्ठों की हो तो ऐसे में निर्यात को अधिक बढ़ावा दिया जा सकेगा।