मुझे चीन के पावर प्ले को पहली बार देखने का मौका 1987 में मिला। उस वक्त मैं भारतीय सेना में कैप्टन के पद पर तैनात था। मैं आज भी वह दिन नहीं भूल सकता। पतझड़ का मौसम था।
अरुणाचल प्रदेश के तवांग के पास कुछ चीनी सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को पार कर गए। इन सैनिकों ने वांगडंग नामक जगह के पास डेरा डाल रखा था। भारत ने सैनिकों को हटाने के लिए पहले कूटनीतिक स्तर पर विरोध जताना शुरू किया। इस दौरान चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की एक कंपनी ने वांगडंग में खुद को स्थापित कर लिया।
चीन द्वारा कूटनीतिक विरोध को अनसुना करने के बाद भारत ने तवांग के पास अपने 1 लाख सैनिक तैनात कर दिए। इसके बाद भारत के सख्त रवैये को देखते हुए चीन को अपने रुख में नरमी बरतने को मजबूर होना पड़ा। दोनों देशों के बीच कुछ ऐसी ही तनातनी 1967 में भी देखने को मिली थी। उस वक्त नाथू ला में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हुई लड़ाई में पीएलए के 200 सैनिक मारे गए थे। यह लड़ाई 6 दिनों तक चली थी। हालांकि वांगडंग पर चीन का कब्जा अब भी बरकरार है, लेकिन अगर भारत ने उस वक्त सख्त रवैया न अख्तियार किया होता तो चीनी घुसपैठ का दायरा काफी बढ़ चुका होता।
क्या तिब्बत में हो रही घटनाओं के मद्देनजर भारत को भी चीन के खिलाफ सख्त प्रतिक्रिया जतानी चाहिए?
चीन ने अपने बयानों के जरिये साफ कर दिया है कि बीजिंग ओलंपिक खेलों के मद्देनजर चीन की छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए तिब्बती ऐसा कर रहे हैं। भारत के संदर्भ में चीन ने यह भी कहा कि उसे उम्मीद है कि भारत तिब्बत मसले पर अपने परंपरागत रुख को बरकरार रखेगा। लेकिन भारत द्वारा चीन को यह कहा जाना कि तिब्बत मामले में उस पर धर्मशाला का काफी दबाव है और यह और तेज हो सकता है, भारत हित में बेहतर होगा?
लोगों की सामान्य अवधारणा के उलट तिब्बत मसले पर भारत का रुख काफी लचीला रहा है। अगले साल दलाई लामा को भारत द्वारा शरण दिए जाने के 50 साल पूरे हो जाएंगे। भारत की स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) की कई बटालियनों में अपने मुल्क को चीनी प्रभुत्व से मुक्त कराने को बेताब तिब्बती जवानों की भारी तादाद है। यह बल देश की उत्तरी सीमा पर तैनात रहता है।
चीन का मानना है कि एसएफएफ के जवान स्पेशल मिशन के तहत एलएसी (तिब्बत की सीमा के अंदर) को पार कर जाते हैं। भारतीय सेना के प्रमुख जनरल दीपक कपूर के मुताबिक, जिस तरह चीन एलएसी को पार कर ‘भारत’ की सीमा में प्रवेश कर जाता है, उसी तरह भारत भी एलएसी को पार कर ‘चीन’ में प्रवेश कर जाता है। सीमाओं के इस तथाकथित उल्लंघन की वजह के बारे में जनरल कपूर का कहना है कि चीन और भारत दोनों एलएसी की वास्तविक सीमा पर सहमत नहीं हैं।
दरअसल, तिब्बत की घटनाओं के मद्देनजर भारत का रवैया भी काफी ढुलमुल रहा है। भारत के विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने हाल में दलाई लामा से मुलाकात की है। इसके अलावा भारत ने तिब्बती धर्मगुरु के साथ एक औपचारिक समझौता भी किया। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैन्सी पिलोसी ने भी हाल में दलाई लामा से मुलाकात की थी और साथ ही चीन के खिलाफ सख्त बयान भी जारी किया था।
दरअसल ये सारी कवायदें ओलंपिक से पहले चलाए जा रहे अभियान का हिस्सा थीं, जो चीन को बिल्कुल भी पसंद नहीं था। पुलिस द्वारा ल्हासा मार्च अभियान के तहत रवाना हुए तिब्बतियों को रोक जाना भी चीन के पक्ष में नहीं रहा। इस घटना ने जमकर मीडिया की सुर्खियां बटोरीं। दिलचस्प बात यह है कि क्या भारत सरकार की मर्जी के खिलाफ तिब्बती प्रदर्शनकारी चीनी दूतावास की दीवारों को फांदने में सक्षम हो सकते थे?
इन सारी बातों के मद्देनजर बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या नई दिल्ली तिब्बत मसले पर चीन से टकराव का रास्ता अख्तियार करने को तैयार है? या फिर भारत हमेशा की तरह डर की वजह से खुलकर सामने नहीं आ रहा है?
भारत-चीन के विरोधाभासी संबंधों की वजह से इस मामले में भारत के पास दुविधा जैसी स्थिति पैदा हो रही है। एक तरफ अंतरराष्ट्रीय सिस्टम के तहत दोनों देशों का हित अपने-अपने यहां मौजूदा स्थिति को बरकरार रखने में है। तिब्बत के मामले में जिस तरह चीन की चिंता नजर आती है, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में भारत की हालत कुछ ऐसी ही है। लेकिन चीन ने कभी भी दोनों देशों के साझा हितों की परवाह नहीं की और भारत की परेशानी बढ़ाने में अपने प्रभाव और ताकत का इस्तेमाल किया। चीन ने नागालैंड और मणिपुर में उग्रवाद संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं बाकी रखी।
नगा विद्रोही नेता टी. मुईवा ने साफ तौर पर चीन से ट्रेनिंग और हथियार प्राप्त करने की बात स्वीकार की थी। पाकिस्तान को परमाणु हथियार बनाने में सहयोग कर चीन ने परमाणु अप्रसार संधि और मिसाइल टेक्नोलोजी कंट्रोल रेजीम का उल्लंघ किया है। पिछले कुछ वर्षों में (जब से अमेरिका ने चीन को रूस के खिलाफ सहयोगी के रूप में देखना शुरू किया है) चीन ने भारत के साथ सीमा-विवाद पर हाय-तौबा मचाना तेज कर दिया है।
ऐसे में भारत को यह तय करना होगा कि क्या बहुपक्षीय भारत-अमेरिकी संबंधों की तर्ज पर चीन से भी रिश्ते बनाए जा सकते हैं। लेकिन अगर बार-बार सहयोग के मुद्दे बदलते रहे तो भारत 3 मसले पैदा कर सकता है। तिब्बत की स्वतंत्रता के मसले पर भारत की नीति में बुनियादी बदलाव मुमकिन नहीं हो सकता।
भारत सीमाओं के पुनर्निधारण का समर्थन नहीं कर सकता और साथ ही दलाई लामा खुद भी तिब्बत के लिए वास्तविक स्वायत्तता से ज्यादा की मांग नहीं कर सकते। ऐसी स्थितियों के मद्देनजर भारत तिब्बत को स्वायत्त देश का दर्जा दिए बगैर और अपने पुराने रुख को बिना बदले इसकी स्वायत्तता पर बहस को आगे बढ़ा सकता है।
भारत के इस कदम को निर्वासित तिब्बती सरकार काफी सकारात्मक रूप में लेगी। इसके लिए चीन द्वारा दोनों देशों के रिश्तों पर ओढ़ाए गए गर्माहट के आवरण को हटाना होगा। इसके बाद शायद चीन से जुड़ी समस्याओं को पहचानने और उसका हल निकालना ज्यादा आसान हो सकेगा।