अगर हम पिछले तीन दशकों से भी अधिक पुरानी भारत के आर्थिक सुधारों की गाथा पर नजर डालें तो कुछ बातों को दोबारा याद करना सार्थक लगता है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण में इसे लेकर कुछ अंतर्निहित सोच थी कि कोई अर्थव्यवस्था कैसे संचालित की जाए और इसका आकार निरंतर कैसे बढ़ाया जाए। उन धारणाओं या सोच में एक सरकार के उस फैसले की बात सामने आई जब निजी क्षेत्र को उन खंडों में उतरने की अनुमति दे दी गई जहां सरकार नियंत्रित उद्यमों का दबदबा हुआ करता था। इस उदार निर्णय के बाद यह माना गया कि सरकार उन क्षेत्रों के लिए कानून बनाती रहेगी जो निजी क्षेत्र के लिए खोले गए हैं मगर उन नीतियों का नियमन या क्रियान्वयन स्वतंत्र नियामक द्वारा तैयार नियमों के माध्यम से ही होगा।
इस सोच का एक नायाब उदाहरण भारत का दूरसंचार क्षेत्र था जिसमें 1990 के दशक की शुरुआत में निजी क्षेत्र को उतरने की अनुमति दे दी गई। इस निर्णय के कुछ ही वर्षों बाद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) का गठन हो गया। इसके बाद देश के एक बड़े हिस्से में एक सरकारी विभाग द्वारा संचालित बुनियादी टेलीफोन सेवाओं का कारोबार अलग कर एक नया उद्यम (सरकार नियंत्रित) स्थापित किया गया। बीमा, हवाई अड्डा और बिजली क्षेत्रों में थोड़े बहुत बदलाव के साथ ऐसी ही पहल की गई। इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों में स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को प्रभावित करने वाले कारकों जैसे बाजार में कुछ गिनी-चुनी कंपनियों के वर्चस्व एवं अनुचित कारोबारी व्यवहारों पर अंकुश लगाने एवं उनसे जुड़े विषयों पर विवाद निपटाने के लिए भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई) की स्थापना की गई। इसके पीछे सोच बिल्कुल स्पष्ट थी कि सरकार नीतियां बनाती रहेगी (मगर कारोबार से दूर रहेगी) जबकि स्वतंत्र नियामकीय संस्थाएं आवश्यक कानून बनाकर उन नीतियों को लागू करेंगी।
सरकार और नियामकों के बीच उत्तरदायित्वों के विभाजन के पीछे एक अंतर्निहित धारणा इससे संबंधित थी कि इन नियामकीय संस्थाओं के संचालन का दायित्व किसे दिया जाना चाहिए। इन संस्थानों को स्वायत्तता एवं स्वतंत्रता देने और सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए अहम लोगों की नियुक्तियों के लिए प्रतिभाओं के समूह का दायरा बढ़ाया गया। विशेषज्ञ एवं संबंधित क्षेत्रों में महारथ रखने वाले निजी क्षेत्र के पेशेवरों सहित न्यायपालिका के सेवानिवृत्त न्यायाधीश (यद्यपि कुछ दबाव में और सीसीआई के गठन के लिए जब कानून तैयार हुआ तो यह नजर भी आया था) उन लोगों में शामिल थे जिन पर सरकार को भरोसा था कि वे इन नियामकीय संस्थाओं को नेतृत्व देने के लिए नियुक्त किए जा सकते हैं।
इस प्रकार, केंद्रीय बिजली नियामकीय आयोग (सीईआरसी) का पहला अध्यक्ष एक अर्थशास्त्री को बनाया गया। ट्राई की स्थापना एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में हुई थी और उसके अगले अध्यक्ष एक पूर्व बैंकर थे। यहां तक कि 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में पूंजी बाजार नियामक की कमान भी एक बैंकर के हाथ में थी और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के पूर्व चेयरमैन को बीमा क्षेत्र के नियामक का पहला अध्यक्ष बनाया गया था। सीसीआई के पहले पूर्णकालिक अध्यक्ष भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के एक पूर्व अधिकारी थे। इस तरह, सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के विशेषज्ञों के समूह से लोग विभिन्न नियामकीय संस्थाओं के अध्यक्ष बनाए गए थे। सिविल सेवा के कुछ अधिकारी भी अवश्य इन संस्थानों का नेतृत्व कर रहे थे मगर इस लक्ष्य से पर ध्यान बना रहा कि नियामक एवं नियमन प्रक्रिया को कार्यपालिका की पकड़ एवं प्रभाव से मुक्त रखना है।
आर्थिक सुधारों के शुरुआती दिनों में नियमन से जुड़ा एक तीसरा महत्त्वपूर्ण पहलू नियामकीय इकाइयों के प्रमुखों की नियुक्ति के लिए नियम तैयार करने से जुड़ा था। ये नियम तैयार करते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि हितों के टकराव की आशंका पूरी तरह समाप्त हो जाए। इस तरह, अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद किसी नियामक को सामान्यतः सरकारी तंत्र में किसी दूसरे पद पर नियुक्त करने पर विचार नहीं किया जाएगा। इसके पीछे मकसद यह था कि नियामक सरकारी या निजी क्षेत्र में बिना किसी पद की अभिलाषा के स्वतंत्र एवं पारदर्शी तरीके से काम करने में सक्षम होना चाहिए। वास्तव में ऐसे नियामकों में एक को कुछ समय पहले तक एक नियामकीय पद पर सेवा देने के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार करने से रोक दिया गया था। नियामकों की निष्ठा और स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए ये उपाय किए गए थे।
हालांकि, पिछले कुछ दशकों के दौरान नियामकीय ढांचे के पीछे अंतिम दो धारणाओं या सोच को लेकर स्थिति काफी तक बदल गई है। ध्यान रहे कि सुधारों के शुरुआती वर्षों में अपनाए जाने वाले इन सिद्धांतों का ह्रास अचानक या केवल वर्तमान समय में नहीं हुआ है। यह पिछले कई वर्षों के दौरान धीरे-धीरे हुआ है। वित्तीय क्षेत्र के एक पूर्व नियामक के सरकार में एक प्रमुख पद संभालने पर अब वाजिब प्रश्न उठाए जा सकते हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पहले भी वित्तीय क्षेत्र के तीन वरिष्ठ नियामक ऐसे थे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद तत्कालीन सरकार की तरफ से नए पद संभालने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
आप यह तर्क दे सकते हैं वे पद या उत्तरदायित्व अलग किस्म के थे, मगर वास्तविकता यही है कि किसी नियामक द्वारा अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद कोई पद स्वीकार नहीं करने के सिद्धांत की पूर्व में कुछ मौकों पर अवहेलना हो चुकी है। यह वाकया फिर दोहराया गया है जो चिंता की बात है, मगर ऐसी नियुक्तियां पूर्व में पिछली सरकारें भी कर चुकी हैं। किसी नियामक को सरकार में प्रमुख पदों पर बैठाने के लिए बेशक वर्तमान सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कानून में संशोधन किए थे। मगर प्रश्न यह है कि क्या नियामकीय पदों पर नियुक्तियों के लिए विधायिका द्वारा किए गए सुरक्षात्मक उपाय अब अपना महत्त्व खो चुके हैं?
इन उपायों में संशोधन से पहले भी नियामकों की शक्तियों एवं उनके उत्तरदायित्वों पर राजनीति से प्रेरित सवाल उठते रहे हैं। लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों और कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत नियुक्त नियामकों की शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों को लेकर प्रायः बहस होती रही। इस सवाल ने सरकार और नियामकीय स्वतंत्रता के बीच पुराने संतुलन को अस्थिर कर दिया। अच्छी बात यह है कि हाल तक वह बहस दोबारा नहीं छिड़ी है।
नियमन के क्षेत्र में एक और दिक्कत वाली बात यह है कि सरकार विभिन्न क्षेत्रों में नियामकीय पदों पर सिविल सेवा के सेवानिवृत्त लोगों, विशेषकर आईएएस अधिकारियों को नियुक्त करने को वरीयता दे रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने सरकारी तंत्र से बाहर के पेशेवरों को नियुक्त करने का प्रयास नहीं किया है मगर इस प्रयोग से कुछ विवाद खड़े हो गए हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि ये विवाद दूर नहीं हो सकते।
इन विवादों के बाद सरकार ने नियामकीय संस्थाओं के प्रमुखों के लिए सिविल सेवा के अधिकारियों को ही अपनी पहली पसंद बना ली है। इसका परिणाम यह हुआ कि हाल के वर्षों में नियामकीय संस्थाओं में सभी नई नियुक्तियों के लिए सिविल सेवा के अधिकारी पसंदीदा विकल्प बन गए हैं। उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों में सिविल सेवा के अधिकारी ही वित्तीय क्षेत्र के शीर्ष नियामक बनाए गए हैं।
सिविल सेवा के किसी अधिकारी को किसी नियामकीय संस्था का प्रमुख बनाने में कोई हानि नहीं है, बस केवल इससे हितों के टकराव की आशंका खड़ी हो जाती है। इस बात का डर हमेशा बना रहता है कि सरकार अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए उन पर दबाव डाल सकती है। इससे पूरी व्यवस्था बिगड़ सकती है क्योंकि एक नियामक के रूप में किसी व्यक्ति पर उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए किसी उद्योग को प्रभावी तरीके से नियंत्रित करने की जिम्मेदारी होती है।
सिविल सेवा के अधिकारियों के सेवानिवृत्ति से ठीक पहले या ठीक बाद इन नियामकीय पदों पर नियुक्त किए जाने का वास्तविक खतरा यह है कि इससे नियामकीय संस्थाएं तैयार करने का मूल उद्देश्य ही कमजोर हो सकता है। मूल उद्देश्य तो यही था कि सरकार नीतियां तैयार करेंगी और नियामक उन्हें क्रियान्वित करने के लिए नियम बनाएंगे। हमें इस बात ख्याल रखना होगा कि इन दोनों कार्यों को विभाजित करने वाली रेखा कमजोर न हो।