भारत में तेजी से बढ़ती माल ढुलाई लागत और इसे नियंत्रित करने के उपायों पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि वर्ष 2047 तक भारत में माल ढुलाई लागत बढ़कर लगभग 400 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है। वर्ष 2019-20 में यह रकम 85 अरब डॉलर थी। इससे भी अधिक दुखदायक स्थिति यह है कि सारी रकम विदेशी नौपरिवहन कंपनियों की झोली में जा रही हैं।
इसे देखते हुए अब गैस, तेल, कोयला एवं उर्वरक क्षेत्र में सक्रिय सार्वजनिक उपक्रमों को अपनी शिपिंग कंपनी खड़ी कर माल ढुलाई कारोबार में उतरने के लिए कहा जा रहा है। इन उपक्रमों के लिए यह कारोबार बिल्कुल नया है और उनके पास पहले से कोई अनुभव भी नहीं है। एक बार फिर नीति निर्धारक किसी वित्तीय या प्रबंधन स्तर की समस्या के लिए पुराने समाधान की और लौटते प्रतीत हो रहे हैं। वह समाधान रहा है सार्वजनिक उपक्रम खड़ा करना।
सबसे पहले तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि नई कंपनी, चाहे निजी हो या सरकारी, वास्तव में माल ढुलाई पर खर्च कम कर पाएगी या नहीं। इसका अधिक सीधा उत्तर तो यही लग रहा है नहीं। माल का संबंध बाजार से है और माल ढुलाई की दर आपूर्ति एवं मांग से जुड़े कारक तय करते हैं। यह सच है कि हाजिर बाजार तक पहुंच या दीर्घ अवधि के समझौते के आधार पर अलग-अलग माल ढुलाई दर की पेशकश की जा सकती है, मगर इन दोनों के ही साथ खामियां एवं खूबियां जुड़ी हुई हैं। मगर इनमें किसी भी स्थिति में इस बात की संभावना कम ही है कि कोई सरकारी कंपनी बाजार द्वारा निर्धारित दरों से कम दर की पेशकश कर पाएगी।
अधिकांश लोगों को यह बात अखरती है कि हम विदेशी कंपनियों को भुगतान भी विदेशी मुद्रा में ही करते हैं। आलोचकों का कहना है कि यह रकम देसी कंपनियों को जानी चाहिए। इन कंपनियों को भी विदेशी मुद्रा में भी भुगतान होगा मगर यह रकम किसी न किसी रास्ते से वापस भारत में लौट आएगी। इस समय देश में विदेशी मुद्रा भंडार 650 अरब डॉलर से अधिक हो गया है, इसलिए केवल विदेशी मुद्रा बचाने के लिए नई सरकारी कंपनी स्थापित करना थोड़ा अटपटा लगता है। इसके बजाय अधिक क्षमता, कम माल ढुलाई दर और कम समय में माल ढुलाई करना अधिक समझ-बूझ वाला उपाय जान पड़ता है।
एक दूसरी चिंता यह होगी कि भारत में शिपिंग सेक्टर में पहले से एक सार्वजनिक कंपनी मौजूद है, जो जहाजों एवं माल ढुलाई के लिहाज से सबसे बड़ी भारतीय शिपिंग कंपनी है। मगर पिछले कुछ वर्षों से भारतीय नौवहन निगम (एससीआई) के निजीकरण की बात चल रही है। मगर किसी न किसी कारण से इसमें देरी होती रही है। चुनाव के बाद सरकार के सूत्रों से जो खबर बाहर आ रही है उसके अनुसार सरकार एससीआई के निजीकरण को लेकर प्रतिबद्ध है। तो फिर एक ही क्षेत्र में एक सरकारी कंपनी बेचकर दूसरी सरकारी कंपनी खड़ी करने का क्या औचित्य है?
कई प्रेक्षकों ने उन मुश्किलों की ओर ध्यान दिलाया है जिनसे तेल, उर्वरक और गैस क्षेत्रों में काम करने वाली सार्वजनिक कंपनियों की आयात से जुड़ी आवश्यकताएं पूरी करने में रूबरू होना पड़ेगा। पहली बात, देश के ज्यादातर तेल आयात में विक्रेता मालवहन कंपनी का नाम तय करता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि विक्रेता भारतीय जहाजों का चयन करेंगे। अगर उनके एजेंट या वे स्वयं जहाजों का प्रबंध कर सकते हैं तो उस स्थिति में वे शायद ही भारतीय जहाज का चयन करेंगे।
अगर किसी तरह भारतीय कंपनी का नाम तय भी हो जाता है तो उस स्थिति में कच्चा तेल वहन करने वाले हमारे जहाज को माल लादने के स्थान (लोड पोर्ट) तक खाली ही जाना होगा। इससे उनका परिचालन काफी महंगा हो जाएगा। परिभाषा के हिसाब से देखें तो एकतरफा यात्रा आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं होती है और इससे किसी कंपनी के मुनाफे पर गंभीर असर होगा।
वास्तविक समस्या यह है कि लगभग 1,500 जहाजों के साथ भारतीय बेड़ा काफी छोटा है। कंटेनर जैसे क्षेत्रों में यह लगभग नाम मात्र है। विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि जिस देश की माल वहन क्षमता अधिक होती है वह कम दर पर माल ढुलाई सौदा हासिल कर लेता है। प्रश्न केवल यह है कि बड़ा बेड़ा तैयार करने में केवल सरकार की भूमिका होनी चाहिए या नहीं।
सरकार ने अपने बेड़े का आकार बढ़ाने के लिए 1959 में एक पहल की थी और इसके अंतर्गत शिपिंग डेवलपमेंट फंड (एसडीएफ) की स्थापना की गई थी। यह पहल मोटे तौर पर सभी भूल गए हैं। एसडीएफ ने जहाज मालिकों को जहाज खरीदने के लिए रियायती दरों पर ऋण दिए थे। 1959 से लेकर 1987 में एसडीएफ बंद होने तक इसने जहाजरानी उद्योग को 1,472 करोड़ रुपये के ऋण मुहैया कराए, जिनमें लगभग आधा हिस्सा निजी क्षेत्र को गया था।
एसडीएफ द्वारा उपलब्ध कराए गए ऋण का जादुई असर दिखा था। वर्ष1959 में भारतीय बेड़े का सकल पंजीकृत टन भार (जीआरटी) 0.75 था, जो 1970 के दशक की समाप्ति तक बढ़कर 60 लाख जीआरटी तक पहुंच गया।
थोड़ा तालमेल बैठाकर यह विधि दोबारा प्रयोग में लाई जा सकती है। मगर इस बार योजना के तहत ऋण बैंकों की तरफ से उपलब्ध कराया जाना चाहिए जबकि सरकार की भूमिका जहाज मालिकों के लिए ब्याज का भुगतान करने तक सीमित रहना चाहिए। इससे न केवल बजटीय आवंटन काफी कम हो जाता है बल्कि परियोजना मूल्यांकन कार्य बैंक के पास रहता है। बैंकों के पास परियोजना मूल्यांकन की जरूरी विशेषज्ञता होती है। सरकार को इस कार्य से अलग रहना चाहिए। इससे फंसे ऋण के मामले भी काफी कम हो जाएंगे।
अन्य सुधारों में केवल एक जहाज रखने वाले छोटे उद्यमों को दी जाने वाली तरजीह समाप्त की जा सकती है। कारोबार में गिरावट के दौरान इन एक जहाज वाली कंपनियां अक्सर सबसे पहले धराशायी होती हैं और उनके पास अन्य परिसंपत्तियां भी नहीं होती हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें दिए गए ऋण की वसूली काफी मुश्किल हो जाती है। नीति में उन उद्यमों को वरीयता दी जानी चाहिए जिनके (बेड़े के आकार के इतर) सफल होने की संभावना अधिक होती है।
यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यार्ड खरीदने का निर्णय पूरी तरह जहाज मालिक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस नीति में भारतीय यार्ड में बने जहाजों या भारतीय कच्चे माल जैसे इस्पात या इलेक्ट्रॉनिक्स या इंजन से बने जहाजों के इस्तेमाल पर विशेष जोर नहीं दिया जाना चाहिए। योजना का मुख्य उद्देश्य भारतीय जहाजों की संख्या में इजाफा करना है न कि स्थानीय शिपयार्ड कंपनियों या आपूर्तिकर्ताओं को मदद पहुंचाना है।
भारतीय जहाजों के बेड़े में विस्तार के सुनहरे दौर को दोबारा अंजाम नहीं दिया गया है और बाद में इसका विकास लचर रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि इसके कुछ अन्य कारण भी रहे हैं मगर नीति निर्धारकों के लिए स्पष्ट संदेश यह है कि बेड़े का आकार बढ़ाने के लिए एक नया सार्वजनिक उपक्रम बनाना आवश्यक नहीं है। सभी जहाज मालिकों (निजी एवं सरकारी) को मदद पहुंचाने वाली उपयुक्त वित्तीय नीति के प्रभावी होने की संभावना अधिक है।
(लेखक पूर्व नौवहन सचिव हैं)