चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग हाल ही में तिब्बत की तीन दिन की यात्रा पर गए। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के महासचिव के रूप में यह उनकी पहली तिब्बत यात्रा थी। वह तिब्बत के नाइंगट्री (चीनी में निंगची या लिंझी) शहर भी गए जो भारत के लिए सामरिक रुचि का है। चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है और कहता है कि वह नाइंगट्री प्रशासित प्रांत का हिस्सा है। यह तिब्बत को सिचुआन से जोडऩे की चीन की योजना में अहम है। इससे पर्यटन और व्यापार को बढ़ावा मिलेगा।
सन 2020 के शुरुआती नौ महीनों में महामारी के बावजूद 3.2 करोड़ लोग तिब्बत पहुंचे। नाइंगट्री सिचुआन की गर्मी और आद्र्रता से परेशान लोगों के लिए आदर्श हिल स्टेशन है। यह चीन की भारत की सीमा से लगने वाले दूरदराज इलाकों को जोडऩे और यारलांग सांगपो नदी व्यवस्था पर बांध बनाकर जलविद्युत पैदा करने की योजना के लिए भी अहम है। चीन की 14वीं योजना में नाइंगट्री के बड़े बांध बनाना शामिल है। इससे बनने वाली बिजली ल्हासा और सिचुआन की राजधानी चेंगदू के बीच उच्चगति वाली ट्रेनों के काम आएगी।
चीन बीते दशक भर से इस क्षेत्र पर रणनीतिक दृष्टि से ध्यान दे रहा है। 12 वर्ष पहले मेडॉक काउंटी (यो बेयुल पेमाको) जो नाइंगट्री प्रशासित प्रांत में है, चीन की अंतिम ऐसी काउंटी थी जो सड़क से जुड़ी नहीं थी। हिमालय में तीन किलोमीटर लंबी सुरंग बनाकर मेडॉक को उत्तर में बोम काउंटी से जोड़ दिया गया। मई में चीन की सरकारी एजेंसी शिन्हुआ ने नाइंगट्री से मेडॉक तक एक नए राजमार्ग के पूरा होने की खबर दी।
सात वर्ष में बनी यह 67 किमी लंबी सड़क अरुणाचल के गेलिंग में भारतीय सीमा के निकट तक जाती है। यहां यारलंग सांगपो, सियांग नदी के रूप में भारत में प्रवेश करती है। इसके चलते नाइंगट्री से मेडॉक की दूरी 346 किमी के बजाय 180 किमी रह जाती है। यात्रा अवधि भी 8 घंटे कम होती है।
अरुणाचल में सड़क निर्माण की भारत की कोशिशें निष्प्रभावी रही हैं और हमारी सेना वहां उसी नुकसान में है जो उसे गत वर्ष लद्दाख में डेपसांग, गलवान, हॉट स्प्रिंग, पेगॉन्ग सोमें चीनी घुसपैठ के समय हुआ था। चीन ने तिब्बत में भी सैन्य बल और लॉजिस्टिक्स के जुटाने के मामले में बढ़त हासिल कर ली है।
शी चिनफिंग नाइंगट्री से ल्हासा तक नई रेल से गए। 435 किमी का यह रेलखंड एक माह पहले शुरू हुआ है। चेंगदू से नाइंगट्री तक 1,200 किमी लंबा पहाड़ी मार्ग 2030 तक तैयार होने की आशा है। रास्ते में शी ने चीन की सेना और सीमा पर तैनात जवानों की सराहना की। सेना को उनका संदेश स्पष्ट था: भारत के साथ सीमा पर दबदबा रखो। सन 1962 के युद्ध के बाद से चीन की सेना यही करती आई है। 1990 के दशक के आखिरी दिनों के बाद से उसने अपनी रणनीति और तीक्ष्ण की है।
तिब्बत के जानकार लेखकों रॉबर्ट बर्नेट, मैथ्यू एकेस्टर तथा अन्य ने चीन की इस नीति के क्रियान्वयन के बारे में लिखा है। चीन ने याक चराने वाले सामान्य तिब्बती ग्रामीणों को विवादित सीमा पर अतिक्रमण करने का काम दिया है। ताकि भारत और भूटान के साथ विवादित सीमा पर चीन का दावा मजबूत हो। विवादित इलाके में कई जगह से घुसपैठ के जरिये चीन ने बर्नेट के शब्दों में अद्र्ध सैन्यीकृत आबादी का बड़ा नेटवर्क बना लिया है।
बर्नेट चार तिब्बती घुमक्कड़ों की दास्तान सुनाते हैं जो दूरवर्ती बेयूल खेनपाजॉन्ग इलाके के थे जिसे लेकर चीन और भूटान के बीच विवाद है। सन 1995 तक अन्य याक चराने वालों की तरह वे भी बेयूल में अपने याक चराते थे और ठंड में अपने गांव लौट जाते थे। परंतु 1995 में स्थानीय सीसीपी अधिकारियों ने उनसे कहा कि बेयूल चीनी इलाका है और जाड़ों में उसकी निगरानी करना उनका फर्ज है। अगले 20 सालों तक ये चारों चरवाहे अकेले बेयूल में एकदम आदिम परिस्थितियों में जाड़ा बिताते रहे।
हर गर्मी में सीसीपी अधिकारी चरवाहों के जरिये कुछ गतिविधियां कर भूटान को चीन के दावे की याद दिलाते। बर्नेट के मुताबिक इसके तहत भूटानी चरवाहों से कर मांगने, चोटियों पर चीनी झंडे लगाने और पहाड़ों पर चीन लिखने जैसे काम किए जाते। चीन के दबाव और अपनी सरकार के समर्थन के अभाव में भूटानी चरवाहे अपने पारंपरिक चारागाहों से पीछे हट गए।
बेयूल में चीन का असल इरादा भारत पर केंद्रित था। वह भूटान की पश्चिमी सीमाओं खासकर डोकलाम पर निगाह गड़ाए है। सन 1990 से चीन भूटान को एक सौदे की पेशकश कर रहा है। वह उत्तर में बेयूल समेत 495 वर्ग किमी जमीन पर से दावा छोड़ देगा, बशर्ते कि भूटान पश्चिम में डोकलाम समेत 269 वर्ग किमी इलाका उसे दे दे।
भूटान द्वारा 2007 में इसे ठुकराने और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में समझौता करने पर चीन ने दबाव बढ़ाया और 2015 में बेयूल में सड़क बनानी शुरू कर दी। 2018 में उसने बेयूल में एक गांव बना दिया। इसके बाद वहां की सीमा से लगे हिस्सों में 2.50 लाख तिब्बतियों को बसा दिया गया।
चीन समूची वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यही कर रहा है। भारतीय चरवाहों को अक्सर पीटा और धमकाया जाता है। चीन के सीमा दस्तों द्वारा पिटाई के बाद लद्दाखी चरवाहे अब दक्षिण में डेमचोक के आसपास नहीं जाते। चूशुल इलाके में भारतीय चरवाहों के साथ भी ऐसा ही किया जा रहा है। भारत ने 1986 में तवांग के निकट और 2017 में डोकलाम में भूटानी भूभाग में सैनिक भेजकर चीन को रोका और अपनी प्रतिक्रिया दी।
भारतीय सेना ने चीन से जूझने का माद्दा दिखाया है लेकिन राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी के कारण उसे अक्सर पीछे हटना पड़ा है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी सीमा के निगहबान चाहे सैनिक हों या नागरिक, उन्हें कभी ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े कि वे चीन के सामने कमजोर हों।