निकट भविष्य में जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया रोकना तो छोडि़ए, धीमी करने के संबंध में भी ग्लासगो शिखर सम्मेलन (सीओपी26) विश्वास जगाने में विफल रहा। इससे कृषि को इसके दुष्प्रभावों से बचाने के लिए कारगर रणनीतियों की आवश्यकता और भी ज्यादा जरूरी हो गई है। शुक्र है कि इस संबंध में भारत संभवत: पूरी तरह से अभावग्रस्त न पाया जाए। कृषि को जलवायु-अनुकूल बनाने के लिए भारत में प्रौद्योगिकियों की खोज लगभग एक दशक पहले जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवोन्मेष (एनआईसीआरए) पर देशव्यापी परियोजना की शुरुआत के साथ आरंभ हुई थी। मूल रूप से इसके तीन उद्देश्य हैं-संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना; फसल उगाने, पशुधन और मत्स्य पालन पर तापमान वृद्धि के संभावित प्रभाव का आकलन तथा मौसम के उभरते स्वरूप के अनुकूल फसल की किस्मों और कृषि-विज्ञान संबंधी कार्यप्रणाली विकसित करना।
इस कदम का फायदा ग्लोबल वार्मिंग-चालित मौसम की अनिश्चितताओं में वृद्धि के बावजूद कृषि उत्पादन में निरंतर इजाफे के रुख में परिलक्षित होता है, विशेष रूप से मौसम की चरम घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति बढऩे के संबंध में। मॉनसून की बारिश में व्यापक उतार-चढ़ाव तथा मौसम जनित प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि के बावजूद कृषि की लगभग सभी गतिविधियां-जैसे फसल उगाना, बागवानी, पशुधन पालन और मत्स्य पालन नई ऊंचाइयों को छूना जारी रखे हुए है। जलवायु में संभावित परिवर्तनों का कृषि क्षेत्र पर कितना सटीक असर पड़ेगा? इस बारे में पूरी तरह से निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रीय और वैश्विक निकायों द्वारा किए गए विभिन्न अध्ययनों के निष्कर्षों और यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा जताए गए अनुमान एक मिलीजुली तस्वीर और कुछ मामलों में तो भ्रमित तस्वीर भी प्रस्तुत करते हैं। मोटे तौर पर इस बात के संकेत हैं कि मॉनसून की बारिश, जो अब तक घटती जा रही है, भले ही मामूली रूप से, हाइड्रोलॉजिकल चक्र में गर्मी से प्रेरित बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप बढ़ सकती है। भारी बारिश की पारी के साथ अंत:प्रकीर्ण गंभीर और दीर्घकालिक शुष्क अवधि की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा किए गए भेद्यता आकलन के अनुसार धान की कुल उत्पादकता वर्ष 2050 और 2080 के बीच 2.5 प्रतिशत तक कम हो सकती है। सिंचाई वाले धान की उपज में वर्ष 2050 तक सात प्रतिशत और वर्ष 2080 तक 10 प्रतिशत हानि दिखाई दे सकती है। इस सदी के अंत तक गेहूं का उत्पादन 6.0 से 25 प्रतिशत और मकई का उत्पादन 18 से 23 प्रतिशत घटने का अनुमान है। लेकिन इस उभरती जलवायु से चने का लाभ मिल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप इसकी उपज में 23 से 54 प्रतिशत के बीच वृद्धि हो सकती है।
असली चिंता कृषि आय में अनुमानित गिरावट के संबंध में है। वर्ष 2018 की सरकार की आर्थिक समीक्षा में माना गया है कि तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस के इजाफे से गैर-सिंचित क्षेत्र में खरीफ की कृषि आय में 6.2 प्रतिशत तक और रबी के मौसम में छह प्रतिशत की कमी हो सकती है। जलवायु परिवर्तन के कई संकेत पहले से ही दिख रहे हैं। भारत मौसम विज्ञान विभाग द्वारा प्रबंधित 100 साल से अधिक के मौसम के आंकड़ों से पता चलता है कि सर्वाधिक 15 साल में से 12 साल वर्ष 2006 से 2020 के बीच सामने आए हैं। पिछले दो दशक (वर्ष 2001 से 10 और वर्ष 2011 से 20) रिकॉर्ड में सबसे गर्म दशक रहे हैं। दरअसल वर्ष 1901 के बाद से वर्ष 2020 आठवां सबसे गर्म वर्ष था। वर्षा के मामले में इस सदी के 22 वर्षों में से 13 वर्ष में कमजोर मॉनसून देखा गया है। लंबे समय तक चलने वाला सूखा (दो या अधिक वर्षों तक चलने वाला) भी, जो सुदूर अतीत में दुर्लभ रहा है, देर से सामने आने लगा है। इस तरह का नवीनतम दौर वर्ष 2016 से 2018 तक रहा। इस साल के मॉनसून की भी अनोखी चाल रही थी। जुलाई और अगस्त के महीने में, जो सबसे अधिक वर्षा वाली अवधि मानी जाती है, बहुत कम बारिश दर्ज की गई, जबकि मॉनसून के वापसी वाले चरण सितंबर के महीने में असामान्य रूप से अधिक वर्षा हुई।
आईसीएआर के अधिकारियों के अनुसार इस तरह की असामान्य जलवायु पानी की उपलब्धता को कम करते हुए और फसल की पैदावार को रोककर कृषि को प्रत्यक्ष रूप से तथा कीटों और रोगाणुओं (फसल रोगों) की घटनाओं में भिन्नता के जरिये कृषि को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करेंगे। आईसीएआर के उप महानिदेशक एसके चौधरी दृढ़ता के साथ कहते हैं कि जलवायु के स्वरूप की तीव्रता, आवृत्ति और मौसम की अवधि, मौसम की चरम घटनाएं, ग्लेशियर पिघलने, समुद्र के स्तर में वृद्धि, समुद्र के अम्लीकरण, बारिश के स्वरूप और नदी के प्रवाह से डेयरी तथा मत्स्य पालन क्षेत्रों पर भी असर पडऩे की संभावना है। अग्रसक्रिय के रूप में एनआईसीआरए परियोजना के तहत पौधों की वृद्धि के महत्त्वपूर्ण चरणों में फसल सिंचाई की सुविधा के लिए बड़ी संख्या में जल संचयन संरचनाएं तैयार की गई हैं। इनके परिणामस्वरूप कम बारिश वाले कुछ क्षेत्रों में पैदावार में 85 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। कृषि को जलवायु-अनुकूलता प्रदान करने के लिए स्थिति-विशिष्ट उन्नत प्रौद्योगिकियां भी विकसित की गई हैं और जलवायु की दृष्टि से कमजोर 151 जिलों में किसानों को सफलतापूर्वक हस्तांतरित की गई हैं। जलवायु-प्रतिरोधी फसल की कुछ किस्में विकसित की गई हैं तथा बहुत-सी किस्मों पर काम चल रहा है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 650 जिलों के लिए जलवायु संबंधी विसंगतियों से निपटने के लिए आकस्मिक योजनाएं तैयार की गई हैं।
इस तरह, हालांकि कृषि वैज्ञानिक प्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन का सामना करने के तरीके और साधन विकसित करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनके प्रयासों की सफलता खेत में इन तकनीकों के प्रभावी कार्यान्वयन पर निर्भर करती है। उसे सुनिश्चित करने की यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है।
