मौद्रिक नीति के मूल में यह बात है कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जाए अथवा विनिमय दर को। पिछले दशकों में एक दलील यह भी थी कि विनिमय दर को स्थिर बनाकर हमने घरेलू कीमतों को स्थिर कर दिया है। मुद्रास्फीति को लक्षित करने का विकल्प कभी नहीं चुना गया क्योंकि कई अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना था, खासतौर पर भारत जैसी महाद्वीपीय अर्थव्यवस्था के लिए ऐसा करना आवश्यक था। अब जबकि अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये के अविचलित रहते हुए भी वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति अस्थिर हो चुकी है तो इसका अर्थ यही है कि वैश्विक मुद्रास्फीति अब भारत में भी आ जाएगी। संतुलन अब कम विनिमय दर वाले प्रबंधन की ओर स्थानांतरित हो चुका है।
भारत में मुद्रास्फीति ने 1970 के दशक में गति पकड़ी और तब से वह बार-बार सामने आई है। सन 1990 के दशक के अंत में और 2000 के दशक के आरंभ में देश में मूल्य स्थिरता का दौर था। यही वह समय भी है जब विनिमय दर का जमकर प्रबंधन किया गया। उस समय तक विनिमय दर का निर्धारण काफी हद तक सरकार करती थी न कि बाजार की ताकतें। उस दौर की मूल्य स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन में एक संबंध है।
इस क्षेत्र में जो जुमले अहम हैं, ‘आयात समता मूल्य’ और ‘विनिमय लायक मुद्रास्फीति।’ आयात समता मूल्य के आधार पर कई घरेलू कीमतें निर्धारित की गईं। उदाहरण के लिए इस्पात की कोई भारतीय कीमत नहीं है: लंदन मेटल एक्सचेंज की कीमत को अमेरिकी डॉलर/भारतीय रुपये की विनिमय दर में तब्दील किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस्पात के साथ विदेशी मुद्रा में क्रय विक्रय प्राय: प्रभावित नहीं होता। यदि भारतीय कीमत बहुत कम होगी तो भारत में इस्पात खरीदकर उसे विदेश ले जाने वाला कारोबारी फायदे में होगा। यदि भारतीय कीमतें बहुत अधिक होंगी तो ऐसा व्यक्ति मुनाफा कमाएगा, जो उसे भारत में आयात करेगा।
जिंस की कीमत उस समय आयात समता मूल्य से नियंत्रित होती है जब वस्तु व्यापार प्राय: केवल व्यवहार्य होता है। समय-समय पर ऐसा क्रय विक्रय होता रहता है। बाकी समय अहम आयात/ निर्यात गतिविधि की आवश्यकता होती है।
भारत में जिन उत्पादों के मामले में पर्याप्त आयात समता मूल्य है, वहां भारतीय कीमतें मौद्रिक नीति से प्रभावित नहीं होतीं : यह कीमत वह होती है जो विनिमय दर को वैश्विक कीमतों से गुणा करने पर हासिल होती है। सभी विकसित देशों ने केंद्रीय बैंकों को मुद्रास्फीति के लक्ष्य की जवाबदेही देकर उस पर विजय हासिल की। ऐसे में सन 1983 से 2021 तक का समय ऐसा था जब वैश्विक मुद्रास्फीति कम थी। अमेरिकी डॉलर में इस्पात कीमतें अपेक्षाकृत कम थीं और जब उसे अमेरिकी डॉलर/रुपये के मूल्य से गुणा किया गया तो हमें इस्पात कीमतों में रुपये में भी मामूली वृद्धि देखने को मिली।
इस अवधि में विनिमय दर प्रबंधन के लिए एक विशेष स्पष्टीकरण था: वह यह कि अमेरिकी डॉलर/रुपये की दर को स्थिर करके हम भारत में विनिमय लायक मुद्रास्फीति का आयात कर सकते हैं। रुपये को अमेरिकी डॉलर के साथ सांकेतिक रूप से संबद्ध करके हम भारत में भी मूल्य स्थिरता लाएंगे। सन 1983 से 2021 तक की अवधि में यह दलील दुरुस्त रही। इसलिए जिस अवधि के लिए रिजर्व बैंक विनिमय दर प्रबंधन कर रहा था उस दौरान विनिमय लायक वस्तुओं की कीमतें स्थिर होने का यह अप्रत्यक्ष लाभ था। सिंगापुर जैसे छोटे देशों में ऐसा ज्यादा हुआ लेकिन भारत जैसे विशालकाय अर्थव्यवस्था वाले देश में कई कीमतें वस्तुओं के क्रय-विक्रय से तय नहीं होतीं और कम विनिमय लायक मुद्रास्फीति कम मूल्यवान होती है।
निश्चित तौर पर मौद्रिक नीति रणनीति बेहतरीन नहीं है। विनिमय दर प्रबंधन अंतत: वृद्धि और स्थिरता को प्रभावित करता है। भारत में मुद्रास्फीति में तेजी 2006 में शुरू हुई और 2013 में मुद्रा का बचाव किया गया। बौद्धिक सहमति में परिवर्तन आया और फरवरी 2015 में मुद्रास्फीति को लक्षित करने का निर्णय लिया गया।
विधिक रूप से मुद्रास्फीति को लक्षित किया जा रहा है लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है। यह कहना उचित होगा कि 2015 से ही रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति पहले से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गयी। विनिमय दर प्रबंधन का एक लाभ यानी देश में विनिमय लायक वस्तुओं की कीमतों को स्थिर करना, अब बरकरार नहीं है। सन 2021 और 2022 में विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति का सही प्रबंधन नहीं किया। उन सभी ने उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति की दर दो फीसदी तय की, जबकि वर्तमान मुद्रास्फीति की बात करें तो अमेरिका में यह 8.5 फीसदी है।
इसकी वजह से भारत में नीति निर्माताओं के सामने मौजूद व्यापार लायक चीजों में बदलाव आया। यदि अमेरिकी डॉलर में व्यापार लायक वस्तुओं की मुद्रास्फीति छह फीसदी है और अमेरिकी डॉलर/ रुपया अपरिवर्तित रहते हैं तो इससे छह फीसदी मुद्रास्फीति भारत आती है।
मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि विकसित बाजारों के केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को दोबारा दो फीसदी पर ले आएंगे। अमेरिकी फेडरल रिजर्व हो या यूरोपीय केंद्रीय बैंक या फिर बैंक ऑफ इंगलैंड- इन सभी ने मुद्रास्फीति को लक्षित करने में पूरी बौद्धिक स्पष्टता बरती। उन्हें केंद्रीय बैंक के लक्ष्यों और समाज को लेकर उनकी भूमिका के बारे में कोई भ्रम या दुविधा नहीं है। परंतु मुद्रास्फीति को फिर कम करने में समय लगेगा। अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 2024 के पहले दो फीसदी के लक्ष्य तक आती नहीं दिखती। वर्ष 2022 और 2023 में मुद्रास्फीति असहज करने वाले स्तर पर बनी रहेगी।
विनिमय दर प्रबंधन की राह दिक्कतों से भरी हुई है। इस आलेख का मकसद उन पर बात करना नहीं है। परंतु ऐसे समय में जबकि वैश्विक मुद्रास्फीति नियंत्रण में थी, विनिमय दर प्रबंधन में एक मुक्ति दिलाने वाला गुण था: डॉलर/रुपये को स्थिर करने का अर्थ यह था कि हम कम विनिमय लायक मुद्रास्फीति को भारत ला रहे थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए भी विनिमय दर प्रबंधन अच्छा नहीं रहा और 2006 से 2015 के बीच मौद्रिक नीति की विफलता के कारण मुद्रास्फीति को लक्षित करने की नई व्यवस्था लागू हुई।
2022 और 2023 में मुक्ति दिलाने वाला यह गुण अनुपस्थित है। अमेरिकी डॉलर/रुपये को स्थिर बनाने से केवल उच्चस्तरीय विनिमय लायक मुद्रास्फीति ही भारत आएगी। यह बात उसी दलील को मजबूत करती है, जिसके मुताबिक मुद्रास्फीति को रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य माना जाता है न कि विनिमय दर प्रबंधन का। ऐसे में आरबीआई भारत के लिए सबसे अच्छा काम यह कर सकता है कि वह मौजूदा दशक के अंत तक 4 फीसदी की उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति का अनुमान प्रस्तुत कर उस पर कायम रहे। इससे वृहद आर्थिक स्थिरता का माहौल बनेगा जिसके अधीन निजी व्यक्ति भी अपनी योजनाएं बना सकेंगे और निवेश कर सकेंगे।
