लोक सभा चुनावों के प्रचार अभियान का तकरीबन आधा दौर पूरा हो चुका है और ऐसा लगता है, और मैं थोड़ी घबराहट के साथ ऐसा कह रहा हूं कि बहुत कम चीजें सामने आई हैं। घबराहट इसलिए कि मेरी दलील इस बात पर टिकी है कि इस अभियान में अग्रणी नजर आने वाले अभियान को अब तक कोई दिशा नहीं दे पाए हैं।
नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का उभार 2012 के आसपास हुआ और तब से उन्होंने भारत में प्रतिस्पर्धी राजनीति की शर्तों को निर्धारित किया है। वर्ष 2014 में सबके लिए अच्छे दिन और ’56 इंच सीने’ और दुश्मनों (मुख्यत: चीन और पाकिस्तान) के लिए लाल-लाल आंखों की बात की गई।
वर्ष 2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल उठाया गया और कहा गया कि इसे लेकर रुख बदलना होगा। आतंकवादियों और दुश्मनों को उनके घर में घुसकर मारने की बात की गई। वर्ष 2024 के चुनावों में हम सात में से तीसरे चरण की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन अभी तक भाजपा की चुनावी थीम सामने नहीं आई है। चीन पूरी तरह गायब है और पाकिस्तान का जिक्र भी बहुत कम है।
परंतु इन बातों से इस हकीकत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है कि पार्टी अभी भी चुनावी होड़ में दूसरों से काफी आगे है। यही वजह है कि इन चुनावों को लेकर कुछ निरंतरता वाली बातों का सामने नहीं आना दिलचस्प है। यह भी एक वजह है कि इस बार मतदान का प्रतिशत कम है, जबकि अभी तो गर्मियां भी पूरी तरह नहीं आई हैं। यह भी हो सकता है कि भाजपा को अपने सामने कोई प्रतिद्वंद्वी ही नजर न आ रहा हो और इस वजह से उत्साह की कमी नजर आ रही हो। वैसे ही जैसे दो असमान क्षमता वाली क्रिकेट टीमों के बीच एकतरफा मैच होता है।
जब नतीजों का अनुमान लगाना इतना आसान हो तो वोट डालने जाना ही क्यों? अगर आप भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लोगों तथा मोदी सरकार के समर्थकों से बात करेंगे (मैंने पिछले दिनों बेंगलूरु और उसके आसपास यही किया) तो यही आशंका सामने आएगी।
कोई भी व्यक्ति जिसने भारतीय चुनावों पर लंबे समय तक नजर रखी होगी वह आपको बताएगा कि ऐसा कभी होता नहीं है। हकीकत में मतदाता का उत्साह अक्सर ‘लहर’ वाले चुनावों के समय नजर आता है। एक अनुमान, बेहतर भविष्य की और कई बार प्रतिशोध की भावना होती है। इन सभी वजहों से 2024 असाधारण रूप से बिना बिना किसी कहानी के नजर आ रहा है।
आश्चर्य की बात यह है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा दौर के सबसे बड़े जादूगर नरेंद्र मोदी ने अब तक इन चुनावों के लिए कोई थीम नहीं पेश की है। उन्होंने ऐसा कोई मुद्दा नहीं पेश किया है जो पहले से सातवें चरण तक चल सके। शुक्रवार को दूसरे चरण के मतदान तक उन्होंने और उनकी पार्टी ने नई-नई थीम पेश कीं और आगे बढ़ गए। ये मुद्दे प्रचार अभियान में एक सप्ताह भी नहीं टिके। विगत तीन सप्ताह के दौरान कांग्रेस तथा विपक्ष के तय मुद्दों ने जिस तरह भाजपा के अभियान को प्रभावित किया है वह भी उल्लेखनीय है।
आमतौर पर ऐसा होता नहीं कि पहले से सत्ता पर काबिज और चुनाव में आगे चल रहा कोई दल चुनौती देने वाले की बातों पर इस प्रकार प्रतिक्रिया दे। भाजपा ने कड़ी मेहनत से यह प्रतिष्ठा हासिल की है कि वह हमेशा चुनाव प्रचार के लिए तैयार रहने वाला दल है। ऐसे में 2024 का प्रचार इस थीम पर आरंभ हुआ कि नरेंद्र मोदी भारत को अधिक ऊंचा वैश्विक कद दिला रहे हैं। ऐसा जैसा अतीत में किसी ने नहीं दिलाया। जाहिर है संकेत जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की ओर है। इसकी शुरुआत भारत मंडपम से हुई जहां जी20 शिखर बैठक का आयोजन किया गया था। पूरा आयोजन इस तरह तैयार किया गया था ताकि मोदी को दुनिया का नया नेता दिखाया जा सके और दुनिया के अधिकांश शक्तिशाली देशों के नेताओं ने ऐसा माना भी।
हालांकि इसके बाद उस समय झटका भी लगा जब गणतंत्र दिवस के आसपास दिल्ली में क्वाड देशों के नेताओं को एकत्रित करने की योजना फलीभूत न हो सकी। इतना ही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने आयोजन का मुख्य अतिथि बनने का न्योता भी ठुकरा दिया था। अब इसमें निज्जर-पन्नून मामले की क्या भूमिका थी या इसने जी20, खासकर भारत और अंग्रेजी भाषी देशों के दरमियान क्या भूमिका निभाई, हम नहीं जानते। यह निष्कर्ष जरूर निकाला जा सकता है कि बढ़ते वैश्विक कद की यह छवि टूटी नहीं है तो भी डगमगाई जरूर है।
चुनाव के पहले के उन सप्ताहों में महिला मतदाताओं को लुभाने का दांव चला गया। निर्वाचन वाली संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए आनन-फानन में पारित कानून इसका हिस्सा था। इस कानून के क्रियान्वयन के लिए कोई समय सीमा नहीं रखी गई और इसके लिए अगली जनगणना और परिसीमन की प्रतीक्षा करनी होगी। हम कह सकते हैं कि शायद यह 2029 तक भी लागू नहीं हो पाएगा। भाजपा के चुनाव प्रचार में इसका जिक्र भी नहीं सुनने को मिल रहा है। इन चुनावों में भी पार्टी के उम्मीदवारों में महिलाओं की हिस्सेदारी 16 फीसदी है।
राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा जनवरी में हुई यह भी चुनावों के लिहाज से मुफीद था। इसके बावजूद विभिन्न राज्यों में भाजपा के 20 नेताओं के करीब 100 भाषणों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उनमें इस पर जोर या इसका जिक्र नहीं है। यह मुद्दा हाल में उठा जब ऐसे संकेत मिले कि राहुल और प्रियंका गांधी राम मंदिर जा सकते हैं। इस वर्ष चुनाव की तारीख घोषित होने से कुछ सप्ताह पहले भारत रत्न की घोषणा करते समय भी पिछड़े वर्ग और ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले दो नेताओं कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह को यह सम्मान प्रदान किया गया।
ऐसा करके पार्टी ने सामाजिक न्याय का दांव चलने की कोशिश की। परंतु उसके बाद इससे इस बारे में भी ज्यादा कुछ सुनने को नहीं मिला। यह जरूर है कि चरण सिंह को यह सम्मान मिलने के बाद उनके पोते ने इंडिया गठबंधन से नाता तोड़कर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता जोड़ लिया।
अगर आज चुनाव प्रचार पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि इसे प्रतिपक्ष दिशा दे रहा रहा है। शायद कांग्रेस पार्टी भी इस बात से आश्चर्यचकित होगी। बीते तीन सप्ताह में दोनों दलों को अपने-अपने घोषणापत्र जारी कर दिए हैं। आप देख सकते हैं कि किस तरह प्रधानमंत्री लगातार कांग्रेस के घोषणापत्र का उल्लेख करते हैं, उस पर सवाल उठाते हैं और उसे लेकर भय उत्पन्न करते हैं, जबकि वह और उनकी पार्टी के नेता अपने घोषणापत्र का बहुत कम उल्लेख करते हैं।
इसी तरह राहुल गांधी ने 6 अप्रैल को हैदराबाद में घोषणापत्र जारी करते समय कहा कि ‘संस्थानों, समाज और संपत्ति’ का सर्वेक्षण किया जाएगा और उसके बाद उनका समुचित पुनर्वितरण देश की 90 फीसदी आबादी में किया जाएगा। उन्होंने पुनर्वितरण शब्द का इस्तेमाल नहीं किया लेकिन उनका इशारा यही था। तब से मोदी का प्रचार अभियान उसी पर केंद्रित है।
जाहिर है उन्होंने आम महिलाओं के डर का सहारा लेते हुए उनके मंगल सूत्र और स्त्री धन को छीन लिए जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि कांग्रेस उनसे यह लूटना चाहती है। ताजा मुद्दा सैम पित्रोदा के विरासत कर संबंधी बयान से मिल गया। ये डर उचित हैं या नहीं ये अकादमिक मुद्दा है, बशर्ते कि चुनाव अभियान के मध्य में आकर आप यह न सोच रहे हों कि वास्तव में कांग्रेस पार्टी के सत्ता में आने की संभावना है।
कांग्रेस के अधिकांश नेता तथा उसके विपक्षी सहयोगी दलों के नेता यही कहेंगे कि उनका लक्ष्य मोदी को 272 के नीचे रखने का है। यही वजह है कि अपने पक्ष में माहौल होने के बावजूद चुनाव को लेकर मोदी का रुख विचित्र है। वह अपने 10 वर्ष के प्रदर्शन और 2047 में विकसित भारत बनाने की चर्चा करने के बजाय कांग्रेस के सत्ता में वापस आने का डर दिखा रहे हैं।