लोकसभा चुनाव के नतीजों से एक ऐसे प्रश्न का उत्तर मिल गया जो मुझे पिछले कई वर्षों से परेशान कर रहा था। भारत निर्वाचन आयोग (ECI) के आंकड़ों के अनुसार 2024 के आम चुनाव में 64.2 करोड़ लोगों ने मतदान किया। इनमें 36.6 प्रतिशत या लगभग 23.5 करोड़ लोगों ने देश पर पिछले 10 वर्षों से शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी (BJP) के पक्ष में वोट डाले।
आप देश में लगभग 400 समाचार चैनलों में से कई चालू करें तो ऐसा लगेगा कि ये 23.5 करोड़ लोग केवल समाचार ही देखते हैं। अगर यह मान लिया जाए कि ये लोग केवल टेलीविजन देखते हैं तो उस सूरत में इनकी संख्या देश में टेलीविजन देखने वाले कुल 90 करोड़ लोगों (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के आंकड़ों के अनुसार) के एक तिहाई से कम होगी।
अब समाचार पत्रों पर निगाहें दौड़ाते हैं। जब आप बड़े राष्ट्रीय समाचार पत्रों, विशेषकर अंग्रेजी और हिंदी, के पन्ने पलटेंगे तो पाएंगे कि इन 23.5 करोड़ लोगों की पसंद-नापसंद एवं उनके विचार प्रमुखता से दिखते हैं। इं
डियन रीडरशिप सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों के अनुसार यह संख्या समाचार पढ़ने वाले 42.1 करोड़ लोगों की आधी है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि कई लोग संभवतः समाचार पत्र पढ़ने के साथ टेलीविजन भी देखते होंगे। इस लिहाज इसे इन आंकड़ों में दोहराव की बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
अगर आप वर्ष 2014 और 2019 के आंकड़ों (मतदाताओं एवं समाचार माध्यमों तक पहुंच के लिहाज से) पर विचार करें तो इनमें भिन्नता दिखती है। मगर मोटे तौर पर लगता है कि समाचार माध्यम केवल एक प्रकार के दर्शकों का ध्यान रखते हैं। यह रुझान स्थिर बना हुआ है।
मुझे इस बात ने परेशान किया कि दूसरे दलों के पक्ष में मतदान करने वाले 40.7 करोड़ लोगों की अनदेखी लगभग एक दशक तक क्यों की गई। अगर आप पूरे देश की आबादी (14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नहीं करने पर भी) पर विचार करें तो समाचार चैनलों का संकीर्ण दृष्टिकोण कहीं अधिक हतप्रभ करने वाला है और इससे एक सूचना तंत्र में कहीं न कहीं रिक्तता का भाव पैदा हुआ है।
मतदाता या गैर-मतदाता के रूप में हम जो भी विचार (जैसे हमारे इर्द-गिर्द क्या हो रहा है, किस स्कूल या कॉलेज जाना है, स्वास्थ्य, नागरिक सेवा, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषय आदि पर) बुनते हैं वे इस बात से प्रभावित होते हैं कि हमारे पास कैसी खबरें पहुंच रही हैं। मुख्यधारा का मीडिया, जिसकी तगड़ी पहुंच है, ऐसी खबरों का अकेला सबसे बड़ा स्रोत है।
हालांकि, विविधताओं से भरे भारत जैसे देश में विभिन्न प्रकार की खबरों के लिए असीमित गुंजाइश रहती है मगर पिछले एक दशक से केवल एक तरह की खबर ही परोसी जा रही है। मुख्यधारा की मीडिया द्वारा दिखाई एवं सुनाई जा रहीं खबरों पर सवाल उठाने वाली काफी कम खबरें सामने आ पाती हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण क्षेत्र में संकट या रोजगार की कमी जैसी समस्याओं को लेकर मुख्यधारा के मीडिया में काफी कम खबरें आती हैं। किसी तरह लोगों के बीच ऐसी वाजिब खबरें पहुंचती भी हैं तो लोग अक्सर चकित हो जाते हैं या इन पर विश्वास नहीं कर पाते हैं। पिछले कई वर्षों से पूरे देश में केवल एक निश्चित समूह की पसंद के अनुरूप खबरें चलाई जा रही हैं। इससे सूचना के स्तर पर कहीं न कहीं एक रिक्तता की स्थिति बन रही है जो लगातार बढ़ रही हैं। मगर प्रकृति ऐसी रिक्तता को पसंद नहीं करती हैं।
इस खाली जगह को भरने के लिए ऑनलाइन माध्यम में कई लोग, ब्रांड एवं प्लेटफॉर्म आ चुके हैं। ऑनलाइन माध्यम में प्रवेश करने में टेलीविजन या अखबार जैसी परेशानी या बाधा सामने नहीं आती है। वर्ष 2017 में डेटा या इंटरनेट का शुल्क कम होने से इस प्रक्रिया में तेजी आई। इंटरनेट शुल्क लगातार कम हो रहे हैं जिससे ऑनलाइन माध्यम पर उपलब्ध सामग्री का लोग अधिक से अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं।
कॉमस्कोर के अनुसार 52.3 करोड़ से अधिक लोगों ने जनवरी 2024 में वीडियो देखने, पढ़ने मनोरंजन सामग्री देखने या ऑनलाइन समाचार पढ़ने के लिए तेज गति वाले इंटरनेट का इस्तेमाल किया। स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट, यूट्यूब चैनल, शॉर्ट वीडियो ऐप एवं लोग विभिन्न विचार एवं सूचना लोगों के साथ साझा कर रहे हैं।
हालांकि, इनमें ज्यादातर की पहुंच कम ही होती है और उन्हें देखने, सुनने एवं पढ़ने वाले लोगों की संख्या 50 लाख से 2.5 करोड़ के बीच होती है। इन सभी को जोड़ दें तो ऐसा लगता है कि उन्होंने कुछ हद तक सूचनाओं के प्रसार में आए रिक्त स्थान को भर दिया है।
यही कारण था कि जब 4 जून को परिणाम आए तो ये व्यक्तिगत या समाचार साइट- रवीश कुमार, ध्रुव राठी, ऑल्ट न्यूज़, द न्यूज़ मिनट, द वॉयर, द क्विंट, न्यूजलॉन्ड्री, स्क्रॉल, खबर लहरिया और कई दूसरी भाषाओं की साइट-का गुणगान होने लगा था। मानो ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने दूसरे दलों के पक्ष में चुनाव का रुख मोड़ दिया था।
हालांकि, ऐसा सोचना भी सही नहीं है। मगर यह सच है कि इनमें अधिकांश संगठन एवं लोग एक नए माहौल में तथ्यों एवं विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। आप ऐसे लोगों से सहमत हो भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन इतना तो तय है कि वे एक ऐसे दायरे से बाहर रहकर अपनी बात रख रहे हैं जो भारत की केवल 17 प्रतिशत (23.5 करोड़ की खास आबादी) आबादी को ही संतुष्ट करता है।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जितने विचार आएंगे उतना ही बेहतर रहेगा। समाज, अर्थव्यवस्था, नियमन एवं राजनीति को लेकर हो रही बहस में प्रत्येक समूह का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। ये स्वतंत्र विचार लोकतंत्र में मीडिया द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका को रेखांकित करते हैं।
अगर यह चुनाव मुख्यधारा की मीडिया को एक संकीर्ण दायरे से निकलकर खबरों में विविधता लाने के प्रेरित करता है तो यह अच्छी बात होगी। ऐसा करने के पीछे नैतिक तर्क भी है। हालांकि, सभी मीडिया मालिक इस तर्क से प्रभावित नहीं होंगे।
मीडिया ब्रांड लगभग दस वर्षों से एक बड़े बाजार (दर्शकों) की जान बूझकर अनदेखी करते रहे हैं। उनके इस बरताव से उनकी विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। यही कारण था कि इन अपेक्षित लोगों की पसंद-नापसंद का ध्यान रखने वाले दूसरे लोग एवं साधन सामने आने लगे। अब समय आ गया है जब मुख्यधारा का मीडिया पिछले एक दशक से नजरअंदाज हुए इन लोगों की भावनाओं को भी समझे।