देसी अगाथा क्रिस्टी के नाम से मशहूर, मंजरी प्रभु का कहना है, ‘हमें अधिक लेखकों की नहीं बल्कि अधिक पाठकों की आवश्यकता है।’ मंजरी इस साल की शुरुआत में पुणे में एक किताब के लोकार्पण समारोह में बोल रही थीं।
उन्होंने 21 किताबें लिखी हैं और वह लघु फिल्मों की फिल्मकार, टीवी निर्माता भी हैं। वह इस आयोजन में पुणे अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सव की संस्थापक/निदेशक के रूप में संवाद कर रही थीं। उनका पूरा संघर्ष यह है कि लेखक बनने की इच्छा न रखने वाले लोगों को लेखकों की बात सुनने के लिए लाया जाए।
मंजरी ने अनजाने में ही सही तेजी से डिजिटलीकृत हो रही दुनिया में मीडिया और मनोरंजन तंत्र के सामने आने वाली एक सबसे बड़ी चुनौती का जिक्र किया है। अब यह आलम है कि मनोरंजन कराने वाले और मनोरंजन करने वाले, सूचना देने वाले और सूचना पाने वाले, लेखक और पाठक, श्रोता और संगीतकार के बीच की सीमाएं समाप्त हो रही हैं।
इन दिनों सोशल मीडिया और वीडियो के माध्यम से मीडिया के सितारों या विशेषज्ञ लोगों से बात करने, उन्हें महसूस करने की क्षमता के चलते लोग, अब केवल दर्शक बनकर नहीं रहना चाहते हैं बल्कि वे क्रिएटर बनना चाहते हैं।
पहले इंटरनेट और फिर सोशल मीडिया के उभार ने जिस तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की उससे कई तरह के बदलावों को गति मिली। वर्ष 1995 में जब इंटरनेट की शुरुआत हुई या 1990 के दशक के अंत में गूगल सर्च या 2005 में यूट्यूब के साथ स्ट्रीमिंग वीडियो आया तब ये बातें इतनी स्पष्ट और आम नहीं थीं।
यहां तक कि जब सोशल मीडिया जैसे कि फेसबुक (2004) और ट्विटर (2006 में अब एक्स) ने दस्तक दी थी तब भी चीजें इतनी स्पष्ट नहीं थीं। इसका सार यह है कि अब यह वैश्विक मीडिया अर्थव्यवस्था के कारोबारी और रचनात्मक दोनों हिस्सों को प्रभावित कर रहा है। इन सभी बदलावों में से दो बड़े बदलाव अब स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।
पहला कलाकारों और दर्शकों को अलग करने वाली सभी बाधाओं को खत्म करना है। जब भी कोई फिल्म रिलीज होती है या कोई शो आता है तब एक्स या इंस्टाग्राम पर आपको जबरदस्त तरीके से मीम, कमेंट, समीक्षाएं देखने को मिलती हैं। अधिकांशतः आम लोग यह बताने में बहुत खुशी महसूस करते हैं कि उन्हें किसी किताब, नाटक या कलाकृति में क्या चीज अच्छी लगी।
आप सोच सकते हैं कि बड़ी तादाद में दी जा रही ऐसी राय के बीच पेशेवर फिल्म समीक्षक कहां होंगे। क्या अब उनकी कोई भूमिका है? लेकिन जो लोग प्रतिक्रिया देते हैं उनमें से कई को यह भी उम्मीद है कि लोग उनकी प्रतिभा स्वीकार करें। कई अन्य लोग अपनी प्रतिभा या कौशल से जुड़ा एक वीडियो बनाते हैं और दर्शकों को खोजने की उम्मीद में इसे अपलोड करते हैं।
यही दूसरा बदलाव है। इसने साइबरस्पेस को एक खुला, वैश्विक, ऑडिशन थिएटर बना दिया है जहां जिसका जो मन करे वो दिखा सकता है। आप यहां यह भी बता सकते हैं कि आपकी बिल्ली कैसे सोती है या आपकी मां कैसे नाचती हैं। इसने कई प्रतिभाशाली लोगों को एक रास्ता दिया है जो विज्ञापन, स्ट्रीमिंग शो, छोटे वीडियो, संगीत या फिल्मों की दुनिया में आ जाते हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी स्ट्रीमिंग सेवा, यूट्यूब पर लगभग 6.2 करोड़ क्रिएटर और 2.5 अरब दर्शक हैं। इस ब्रांड ने 2023 में विज्ञापन राजस्व से 31.5 अरब डॉलर कमाए हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा पेशेवर वीडियो से नहीं बल्कि उपयोगकर्ता द्वारा बनाए गए वीडियो से आया है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि यूट्यूब क्रिएटर तंत्र को बड़ी सावधानी से बढ़ावा देता है।
क्रिएटर के लिए कई वेबसाइटें हैं और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) टूल्स का इस्तेमाल वीडियो बनाने, अपलोड करने और उससे कमाई को आसान बनाने के लिए किया जा रहा है। यूट्यूब किसी वीडियो को मिलने वाली विज्ञापन राशि का लगभग आधा हिस्सा क्रिएटर के साथ साझा करता है।
आप दर्जनों ऐसे लोगों को यूट्यूब फैन फेस्ट और सम्मेलनों में बोलते हुए देखते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें ब्रांड, राजनीतिक दल और कभी-कभी फिल्म निर्माता भी ढूंढते हैं। इसी वजह से अब क्रिएटर शब्द, मशहूर हस्ती होने का पर्याय बन गया है।
हालांकि तथ्य यह है कि केवल कुछ ही क्रिएटर जैसे कि भुवन बाम, जाकिर खान या रचना फाडके रानडे उस मुकाम तक पहुंच पाती हैं। यह किसी भी रचनात्मक क्षेत्र के विपरीत रुझान नहीं है जहां अभिनेताओं, लेखकों, संगीतकारों, कलाकारों या गीतकारों का एक छोटा हिस्सा ही लंबे समय में हिट हो पाता है।
रचनात्मक कारोबार की प्रकृति ऐसी ही होती है और केवल सर्वश्रेष्ठ में से सर्वश्रेष्ठ ही शीर्ष पर पहुंचते हैं। दरअसल बाजार जितना अधिक प्रतिस्पर्धी और वैश्विक स्तर के लायक होगा, सफलता पाना उतना ही कठिन होता जाएगा।
इसे इस तरह इसे देखा जा सकता है कि भारत में एक वर्ष में 1,700-1,900 फिल्में बनती हैं। इनमें से केवल एक-तिहाई ही पैसा कमा पाती हैं या फिर नफा-न नुकसान के स्तर पर पहुंचती हैं। इसमें वे सभी कारक मसलन सिनेमाघरों, स्ट्रीमिंग अधिकारों आदि से होने वाली सभी संभावित आय शामिल है। बाकी फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं।
यही बात प्रतिभाशाली लोगों के मामले में भी सच है। यह एक पिरामिड है और केवल असाधारण प्रतिभा, कड़ी मेहनत (और कुछ किस्मत) ही आपको शीर्ष पर ले जा सकता है। अधिकांश लोग बीच में ही रह जाते हैं और एक बड़ा हिस्सा नीचे रहता है।
मिसाल के तौर पर म्यूजिक स्ट्रीमिंग को ही लें। मार्च 2024 में अमेरिका के बिजनेस पब्लिकेशन, फास्ट कंपनी के लिए लिखे गए एक लेख में, मीडिया लेखिका जूलिया सेलिंगर ने भी इनके ही संदर्भ में बताया है। उनका कहना है कि औसतन, संगीतकारों को प्रति स्ट्रीम (हर बार जब कोई गाना सुनता है) 0.003 डॉलर और 0.005 डॉलर के बीच रॉयल्टी मिलती है।
इसका मतलब है कि 15 डॉलर प्रति घंटे के काम के लिए प्रति माह 800,000 से अधिक स्ट्रीम की आवश्यकता होगी।
क्रिएटर के लिए उचित भुगतान सुनिश्चित करने के लिए मिशिगन प्रतिनिधि राशिदा तलैब, न्यूयॉर्क के प्रतिनिधि जमाल बूमैन के साथ यूनाइटेड म्यूजिशियन्स ऐंड अलाइड वर्कर्स ने लिविंग वेज फॉर म्यूजिशियन्स एक्ट की पेशकश की है।
इसके लिए स्ट्रीमर्स को एक अलग फंड बनाने की आवश्यकता होगी जो कलाकारों को हर बार किसी ट्रैक की स्ट्रीमिंग के लिए न्यूनतम कुछ रकम का भुगतान करेंगे।
दुनिया भर में मनोरंजन का बाजार बहुत ही जटिल है, इसके बावजूद क्रिएटर के लिए न्यूनतम वेतन की मांग की जा रही है। यह उन लोगों को हतोत्साहित करने के लिए नहीं है, जो गाना, नाचना, लिखने के अलावा छोटे मजेदार वीडियो बनाना चाहते हैं।
हर किसी को अपनी पसंद की चीजें अपनानी चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि हम आजकल फिल्में, किताबें, मैगजीन, संगीत और वीडियो आदि की अधिकता में डूबे हुए हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि मनोरंजन की दुनिया में ज्यादा सामग्री की समस्या है। यही कारण है कि कुछ बड़ी स्ट्रीमिंग सेवाओं ने पिछले साल बजट में कटौती की थी।
फिर भी, हर दिन लाखों लोग फिल्मों, शॉर्ट्स, संगीत, पॉडकास्ट आदि के इस जाल में शामिल हो जाते हैं। इसे इस तरह समझें, अगर पार्टी में सभी लोग एक साथ बात करना शुरू कर दें, तो कौन सुनेगा? यानी अगर दुनिया में हर कोई क्रिएटर बन गया तब दर्शक कौन होंगे?