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जमीन के मुद्दे पर खोटी नीयत वाले मुकदमे

Last Updated- December 05, 2022 | 10:01 PM IST

जमीन अधिग्रहण के लिए जारी होने वाले करीब-करीब सभी नोटिफिकेशनों पर इन दिनों किसी न किसी के द्वारा ऐतराज दर्ज करा दिया जाता है।


अधिग्रहण का आदेश देने वालों पर इल्जाम लगाया जाता है कि उन्होंने या तो किसी खास पक्ष के हितों के हिसाब से नोटिफिकेशन जारी किया है या फिर यह आरोप लगाया जाता है कि नोटिफिकेशन किसी खास पक्ष के खिलाफ जारी किया गया है।


इस तरह के मामलों में मीडिया को भी एक अच्छा मसाला मिल जाता है, जो लगातार जांच प्रक्रिया से जुड़ी खबरें पेश करता है। हालांकि जमीन अधिग्रहण से संबंधित नोटिफिकेशन जारी किए जाने के बारे में बुरी मंशा के जो आरोप लगाए जाते हैं, उनमें से ज्यादातर न्यायिक जांच की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते।


ऐसा नहीं है कि इस तरह के आरोप हमेशा पूरी तरह गलत होते हैं, पर कोर्ट द्वारा इन मामलों में काफी स्तरीय प्रमाण मांगे जाते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है, क्योंकि गुलाम मुस्तफा बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के मुताबिक, यह दूसरे पक्ष (जिस पर आरोप लगाया गया है) के लिए आखिरी शरणस्थली होती है।


हाल ही में आए एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि जो भी व्यक्ति यह आरोप लगाता है कि नोटिफिकेशन जारी किए जाने में सही मंशा से काम नहीं किया गया है, उसे प्रमाण देकर यह साबित करना होगा। साथ ही जिस पार्टी के खिलाफ आरोप लगाया गया है उसका नाम साफ तौर पर लिया जाना चाहिए और उसे बचाव का मौका दिया जाना चाहिए।


ऐसे मामलों में यदि नामजद आरोप नहीं है यानी आरोप की प्रकृति धुंधली है, तो इसे तवज्जो नहीं दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि आरोप लगाना जितना आसान होता है, उन्हें साबित करना उतना ही मुश्किल। गिरियास इन्वेस्टमेंट लिमिटेड बनाम कर्नाटक राज्य मामले में अपील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की।


इस केस में यह आरोप लगाया गया था कि बंगलोर हवाईअड्डे तक जाने वाली सड़क के निर्माण के लिए जरूरत से ज्यादा जमीन खरीदी गई और किसी खास पार्टी के हितों के मद्देनजर सड़क का रूट बदला गया, जबकि वैकल्पिक रूट मौजूद थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को खारिज कर दिया, क्योंकि आरोप सही नहीं पाए गए। दो रास्ते हैं, जिनके जरिये ईष्या या फिर बुरी मंशा की बात साबित की जा सकती है।


पहला यह कि यदि सरकार ने किसी खास मकसद से इस तरह का कदम उठाया है जिससे आरोप लगाने वाले पक्ष के हितों का नुकसान हो रहा हो। दूसरा यह कि सरकार द्वारा उठाया गया कदम ऐसा है कि इससे किसी खास पार्टी का हित सधता हो और दूसरों को इससे नुकसान होता हो। इस मामले में इन दोनों में से कोई भी तर्क साबित नहीं हो पाया। जमीन अधिग्रहण योजना में परिवर्तन किए जाने से जिन लोगों को फायदा हुआ, वे आम आदमी थे, जिनका सत्ता के गलियारों में कोई दखल नहीं था।


हालांकि कुछ विरले मामलों में आरोप साबित भी होते हैं। पंजाब राज्य बनाम गुरदयाल सिंह (1980) के मामले में पाया गया कि जमीन का अधिग्रहण तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा बुरी मंशा से किया गया, क्योंकि जमीन का मालिक उनका राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी था। इस मामले में एक मंडी के निर्माण के लिए जमीन का अधिग्रहण किया गया था, पर अधिग्रहण की मंशा सही नहीं पाई गई।


कोर्ट ने अपने फैसले में कहा – ‘यदि ऐसा लगता है कि पूरे मामले में लोक हित सही मकसद नहीं है, बल्कि इसकी आड़ में दूसरा मकसद साधे जाने की बात है, तो ऐसे मामले को कानून की अनदेखी माना जाएगा और ऐसा कोई भी कदम गलत माना जाएगा।


मौजूदा मामले में भी जमीन का अधिग्रहण इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि मंडी के निर्माण के लिए जामीन की जरूरत थी, बल्कि यहां मंडी की जरूरत इसलिए बताई गई, क्योंकि इसके बहाने ऐसे शख्स की निजी जमीन का अधिग्रहण किया जाना था, जो सत्ता की ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति का शत्रु था।’


इसी तरह, एस. एन. पाटिल बनाम एम. एम. गोसावी (1987) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरदयाल सिंह मामले को मानक माना। इस मामले में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ बुरी नीयत के आरोप को सही करार दिया गया।


कलेक्टर बनाम राजा राम (1985) का मामला दो शक्तिशाली पड़ोसियों की कानूनी भिड़ंत थी, जिनके बीच इलाहाबाद म्यूनिसिपल बोर्ड फंसा था। दरअसल, हिंदी साहित्य सम्मेलन को लाइब्रेरी कॉम्प्लेक्स बनाने के लिए जमीन का एक बड़ा टुकड़ा आवंटित किया गया। पर उसने जमीन का इस्तेमाल लंबे समय तक नहीं किया। इस जमीन से ठीक सटी जमीन का मालिक ऊंची पहुंच वाला आदमी था और वह अपनी जमीन में एसी सिनेमा हॉल बनाना चाहता था।


जब हिंदी साहित्य सम्मेलन को यह जानकारी मिली तो अचानक उसने अपनी आंखें खोलीं। फिर सम्मेलन ने शिकायत की कि सिनेमा हॉल बनने से उसकी प्रस्तावित लाइब्रेरी का अकादमिक वातावरण खराब होगा। इसके बाद सम्मेलन ने अथॉरिटी से गुजारिश की कि उसे थिएटर और ऑडिटोरियम बनाने के लिए पड़ोस वाली जमीन दे दी जाए, जबिक सचाई यह थी कि सम्मेलन का मकसद सिनेमा हॉल का निर्माण न होने देने का था।


अथॉरिटी ने सम्मेलन की इस मांग को मान भी लिया। पर सुप्रीम कोर्ट ने सम्मेलन के तर्क को नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि यदि जमीन अधिग्रहण के अधिकार का इस्तेमाल किसी बेजा मकसद से किया जाता है, तो ऐसे मामले में जमीन अधिग्रहण करने वाली निकाय को ही बुरी मंशा का आरोपी बनाया जा सकता है।

First Published - April 18, 2008 | 12:30 AM IST

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