भारत की अर्थव्यवस्था एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है। एक तरफ ग्रोथ के संकेत सुधर रहे हैं, कंपनियों के मुनाफे बढ़ रहे हैं और शेयर बाजार लगातार नए रिकॉर्ड छू रहा है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी बॉन्ड यील्ड ऊपर जा रही है, बैंकिंग सिस्टम की लिक्विडिटी लगातार कमजोर पड़ रही है और रुपये पर दबाव बना हुआ है। SBI रिसर्च की ताजा रिपोर्ट में इस पूरे माहौल को विस्तार से समझाया गया है। और इसमें कई बातें ऐसी हैं, जिनसे पता चलता है कि आने वाले महीनों में RBI और बाजार दोनों के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी।
आमतौर पर जब RBI ब्याज दरें घटाता है, तो सरकारी बॉन्ड की यील्ड भी नीचे आ जाती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। 2025 में RBI ने कुल 100 बेसिस पॉइंट की रेट कट की, लेकिन 10-साल के सरकारी बॉन्ड की यील्ड मुश्किल से 30 बेसिस पॉइंट नीचे आई। जून के बाद तो यील्ड वापस ऊपर चढ़ने लगी। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि वैश्विक बाजारों में अनिश्चितता बहुत बढ़ गई है। अमेरिका और यूरोप में ब्याज दरों पर भ्रम बना हुआ है, ट्रेड वॉर की आशंका बढ़ रही है और विदेशी निवेशक सुरक्षित निवेश की तलाश में हैं। इन परिस्थितियों में भारतीय बॉन्ड बाजार भी दबाव महसूस कर रहा है।
इससे RBI असहज हो गया है। वह चाहता है कि सरकारी बॉन्ड की यील्ड स्थिर रहे ताकि सरकार को कर्ज महंगा न पड़े। इसी वजह से SBI रिपोर्ट यह संकेत देती है कि RBI शायद बैकडोर से सरकारी बॉन्ड खरीदकर यील्ड को स्थिर रखने की कोशिश कर रहा है। यह अनुमान इसलिए लगाया जा रहा है क्योंकि सरकारी कागजों में RBI की हिस्सेदारी पिछले एक साल में तेजी से बढ़ी है।
लिक्विडिटी यानी बैंकिंग सिस्टम में उपलब्ध नकदी हाल के महीनों में बुरी तरह से डगमगा गई है। सितंबर के पहले दो हफ्तों में सिस्टम में 2.7 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त नकदी थी, लेकिन महीने के अंत तक यह घटकर लगभग जीरो के बराबर रह गई। कुछ दिनों में तो लिक्विडिटी घाटे में चली गई। इसके पीछे कई वजहें हैं- एडवांस टैक्स, जीएसटी भुगतान, सरकारी उधारी और सबसे बड़ा कारण RBI का खुद का दखल।
रुपये को गिरने से बचाने के लिए RBI ने जून से अगस्त के बीच लगभग 14 अरब डॉलर बेचे। जब RBI डॉलर बेचता है, तो वह रुपये सिस्टम से बाहर निकाल लेता है। इस वजह से बैंकिंग सिस्टम करीब 1.2 लाख करोड़ रुपये खो चुका है। यही कारण है कि लिक्विडिटी अचानक कमजोर होती दिखी।
यह हालात को और जटिल बनाता है। एक तरफ RBI OMO खरीद कर रहा है, जिससे सिस्टम में स्थाई नकदी आती है। दूसरी तरफ वह VRRR नीलामी भी कर रहा है, जिससे सिस्टम से अस्थाई नकदी निकल जाती है। दोनों गतिविधियां एक साथ होने से बाजार भ्रमित है। OMO यानी RBI द्वारा सरकार के बॉन्ड खरीदना। यानी सिस्टम में पैसा डालना। VRRR यानी RBI द्वारा बैंकों से पैसा वापस लेना।
जनवरी से मई तक OMO खरीद ने कॉल रेट को नीचे धकेला। लेकिन जून के बाद VRRR नीलामियों के कारण कॉल रेट फिर से बढ़कर RBI की नीति दर से भी ऊपर निकल गया। यह RBI के लिए संकेत है कि बाजार की स्थिति अस्थिर है और उसे अधिक सावधानी से लिक्विडिटी मैनेजमेंट करना होगा।
एक दिलचस्प बात यह है कि लोन और कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार दोनों तेजी से बढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट बॉन्ड इश्यू, CP इश्यू और बैंक क्रेडिट- इन तीनों में मजबूत वृद्धि दिखाई दे रही है। लेकिन बैंकों की जमा इतनी तेजी से नहीं बढ़ रही। यह भविष्य में बड़ी समस्या पैदा कर सकता है क्योंकि अगर क्रेडिट तेजी से बढ़ता रहा और जमा नहीं बढ़ी, तो बैंकों को लिक्विडिटी की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है। म्युचुअल फंडों में भी पैसा बड़ी मात्रा में आया है, लेकिन यह पैसा ज्यादातर शॉर्ट टर्म फंडों में जा रहा है। इससे यह संकेत मिलता है कि बाजार लंबी अवधि के बारे में अब भी सतर्क है।
SBI रिसर्च की सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी यह है कि RBI और बाजार दोनों के महंगाई अनुमान लगातार गलत साबित हुए हैं। कभी अनुमान से बहुत कम महंगाई आई और कभी बहुत ज्यादा। यह मौद्रिक नीति के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। जब महंगाई अनुमानित नहीं रहती, तो नीति बनाना कठिन हो जाता है और इससे Type-I और Type-II जैसी गलतियां होने की संभावना बढ़ जाती है। यानी RBI या तो ब्याज दर जल्दी घटा देता है या बहुत देर से कदम उठाता है।
आने वाला समय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उतार-चढ़ाव भरा हो सकता है। रुपए पर दबाव, बॉन्ड यील्ड का ऊपर रहना, बैंकिंग सिस्टम में नकदी की कमी, और वैश्विक अनिश्चितता। ये सभी चुनौतियां अभी बरकरार हैं। लेकिन SBI रिसर्च का मानना है कि RBI के समझदारी भरे कदम, स्पष्ट नीति और स्थाई संवाद भारत को इन चुनौतियों से निकालने की क्षमता रखते हैं।