यह बात मई 1996 की है जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार संसद में विश्वास मत हासिल न कर पाने की वजह से 13 दिन में गिर गई थी। वाजपेयी सरकार गिरने के बाद देश में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास का एक अहम पन्ना पलटने की तैयारी शुरू हो गई थी। उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु भारत के पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री बनने के लगभग करीब पहुंच गए थे। देश की राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या माकपा को कभी इतना महत्त्व नहीं मिला था जितनी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद मिल रहा था। आठ मुख्यमंत्री और कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व सभी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम में जुट गए थे। देश की सियासत में वाम दलों के लिए संभावनाओं की बयार बह रही थी।
दिल्ली के ए के गोपालन भवन में माकपा की केंद्रीय समिति अगले कई दिनों तक बैठक करती रही। माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने कहा कि किसी भी सूरत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सरकार से बाहर रखना है। उन्होंने कहा कि अगर वामपंथी दल सरकार में शामिल होते हैं और बसु संयुक्त मोर्चा के सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनने के लिए तैयार हो गए तो राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा सरकार बनाने का उनका दावा नहीं ठुकरा पाएंगे।
कुछ लोग इससे सहमत नहीं थे। प्रकाश करात ने कहा कि लोक सभा में सिर्फ 53 सदस्यों के साथ माकपा सरकार में शामिल भी हुई तो वह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होगी। केरल के एस आर पिल्लै और पश्चिम बंगाल के विनय चौधरी ने करात के तर्क का समर्थन किया। सुरजीत के प्रस्ताव का समर्थन करने वाले लोग भी कम नहीं थे। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि पार्टी को यह ऐतिहासिक मौका नहीं गंवाना चाहिए। जिन लोगों को लगा कि पार्टी को इस मौके का फायदा उठाना चाहिए उनमें हन्नान मुल्ला, समर मुखोपाध्याय और इस समूह में केरल से पार्टी के एकमात्र सदस्य मरियम एलेक्जेंडर बेबी शामिल थे।
बेबी अब माकपा के महासचिव नियुक्त हो चुके हैं। बेबी ने तब पार्टी की केंद्रीय समिति के समक्ष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखी थी। उन्होंने लेनिन की तर्ज पर ही बदलाव लाने के लिए सभी संसदीय संस्थाओं का इस्तेमाल करने की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर इस बार पार्टी सत्ता तंत्र का हिस्सा बनने में नाकाम रही तो वाम दल इतिहास के पन्नों में सबसे नीचे अपना संक्षिप्त उल्लेख पाएंगे। वह अपने राज्य के ही कद्दावर नेताओं ई के नयनार, वी एस अच्युतानंदन और सुशीला गोपालन के अनुभव एवं निर्णय को चुनौती दे रहे थे। उन सभी नेताओं का कुल तजुर्बा 100 वर्षों से अधिक का था। बेबी उस समय महज 42 साल के थे और बाद में उन्हें काफी कठिनाइयां झेलनी पड़ी क्योंकि पी विजयन, के बालाकृष्णन और एम वी गोविंदन जैसे नेताओं ने उन्हें किनारे करने के प्रयासों में कोई कमी नहीं की। उस बैठक में 27 सदस्यों ने माकपा की अगुवाई में सरकार गठन से जुड़ा प्रस्ताव ठुकरा दिया जबकि 22 लोगों ने इसके पक्ष में मतदान किया। अगर ये आंकड़े उलट जाते तो पता नहीं फिर देश की सियासत की सूरत क्या होती।
बेबी कभी भी रूढ़िवादी या पुरातन विचार रखने वाले कम्युनिस्ट नहीं रहे हैं। वह 21 वर्ष की उम्र में स्टूडेंट्स फेडेरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के राज्य इकाई के अध्यक्ष बन गए। गिरफ्तार होने के कारण वह अपनी पहली डिग्री भी पूरी नहीं कर पाए। वह वाकया आपातकाल के दौरान का था जब केरल में वामदलों के लिए कठिन दौर चल रहा था। लगभग 8,000 लोग जेलों में डाले गए और कई लोगों को तो शारीरिक यातनाएं भी दी गईं। जो लोग जीवित बच गए उन्हें यह दर्द अब भी सालता है और वे केरल के उन दिनों को नहीं भूल पाते जब कांग्रेस सरकार का हिस्सा थी और के करुणाकरण राज्य के गृह मंत्री थे।
पी राजन की मौत हिरासत में ही हो गई। इसके बावजूद बेबी की यह सोच आज भी कायम है कि वाम दलों को व्यवस्था परिवर्तन के लिए सामने आने वाले किसी भी अवसर का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहना चाहिए और फासीवाद को हराने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने में भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
मगर बेबी के सामने कई अंदरूनी चुनौतियां हैं। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा संकट में है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखाई दे रही है। त्रिपुरा में भी वाम दल के लिए हालात अनुकूल नहीं हैं। उत्तर प्रदेश सहित उत्तर भारत में पहचान आधारित राजनीति का प्रभाव बढ़ने से वाम दलों का प्रभाव कमजोर होता जा रहा है। केरल ही एकमात्र ऐसा राज्य बचा है जहां वाम मोर्चा सत्ता में हैं मगर वहां भी सत्ता विरोधी लहर के कारण 2026 में सरकार बचा पाना उसके लिए कठिन लग रहा है। केरल में उसकी मुख्य विरोधी और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस ही है।
वाम मोर्चा के सामने अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे में माकपा के कांग्रेस के साथ कैसे संबंध होने चाहिए? वाम मोर्चा को ही इसका निर्णय करना होगा। उनके पास ऐसा करने के लिए विचारधारा के स्तर पर क्षमता मौजूद है। मगर विरोधाभास इतना अधिक है कि संभावनाएं कमजोर पड़ने लगती हैं। केरल में कांग्रेस और माकपा एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हैं तो पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में वे एक दूसरे के मित्र और डीएमके सरकार में सहयोगी हैं।
माकपा में छह से सात वरिष्ठ सदस्य सेवानिवृत्त हो चुके हैं। केंद्रीय समिति में नए चेहरे भर गए हैं। उनमें कई तो माकपा को बुजुर्गों की पार्टी कहकर आलोचना भी करते रहे हैं। मगर वरिष्ठ सदस्यों के अनुभव ने ही पार्टी को इतने लंबे समय से राह दिखाई है। नया नेतृत्व तैयार करने की जिम्मेदारी बेबी के कंधों पर है और उन्हें इस आलोचना पर भी ध्यान देना होगा कि पुरानी मार्क्सवादी विचारधारा का अनुसरण करने वाले दल वर्ग न्यूनीकरणवादी होने के साथ आर्थिक नियतिवाद में विश्वास करते हैं और स्त्री-पुरुष, नस्ल एवं जाति से जुड़े मुद्दों पर ध्यान नहीं देते हैं।
लैटिन कैथलिक परिवार में जन्मे बेबी नास्तिक हैं। वी एस अच्युतानंदन सरकार में शिक्षा मंत्री (2006-11) के पद पर रहते हुए उन पर विद्यालयों की पुस्तकों में अनीश्वरवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा। यह आरोप लगने के बाद वह मुश्किल में आ गए जिसके बाद उन्हें कुछ पुस्तकें वापस लेनी पड़ीं। बेबी राज्य सभा (1986-98) में जगह पाने वाले माकपा के सबसे युवा सदस्य थे। काफी कम लोगों को पता है कि बेबी की खेलों में काफी रुचि है। वह बैडमिंटन खेलते हैं और फुटबॉल मैच देखने के भी बहुत शौकीन हैं। संगीत में भी उनकी काफी दिलचस्पी है। अपनी खूबियों के कारण ही बेबी ए के एंटनी और के आर नारायणन को अपने सांस्कृतिक संगठन ‘स्वरालय’ के आजीवन सदस्य के रूप में जोड़ पाए।
एक सांसद मजाकिया लहजे में कहते हैं कि माकपा केरल में सबसे बड़ी हिंदू पार्टी है। यानी भाजपा के लिए गुंजाइश बहुत कम है। इसी लक्ष्य के साथ आगे बढ़ना बेबी की प्रमुख प्राथमिकता है।