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मूल्य श्रृंखलाओं और निर्यात की तलाश

देश की निर्यात नीति में कई कमियां हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही वस्तु व्यापार में हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है। इस विषय में तीन सुझावों के बारे में बता रहे हैं शंकर आचार्य

Last Updated- April 17, 2023 | 10:54 PM IST
September trade data

अमिता बत्रा ने पिछले दिनों इस समाचार पत्र में प्रकाशित अपने आलेख में एक विचारोत्तेजक प्रश्न रखा था कि भारत आ​खिर किसके साथ व्यापार करेगा? उनकी दलील यह थी कि वै​श्विक वस्तु व्यापार तीन बड़े क्षेत्रीय कारोबारी ब्लॉक-उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ और आसियान-पूर्वी ए​शिया- में केंद्रित होता जा रहा है।

इनमें से पहले दो में अमेरिका-चीन के बढ़ते व्यापारिक विवादों, कोविड महामारी, यूक्रेन युद्ध और जलवायु परिवर्तन की चिंताओं के बीच ‘चुनिंदा और अलग-थलग करने वाली कारोबारी नीतियां’ अपनाई जा रही हैं जो स्पष्ट तौर पर विश्व व्यापार संगठन के सर्वा​धिक तरजीही मुल्क (एमएफएन) के सिद्धांत के साथ विरोधाभासी हैं और उन्हें विकासशील तथा न्यूनतम विकसित देशों की कीमत पर आधार मिल रहा है।

आसियान-पूर्वी ए​शिया में दो बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते हैं-क्षेत्रीय व्यापक आ​र्थिक साझेदारी (आरसेप) और व्यापक एवं प्रगतिशील अटलांटिक पार साझेदारी (सीपीटीपीपी)। हालांकि ये दोनों विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनुरूप हैं लेकिन इन्होंने निरंतर क्षेत्र के आ​र्थिक एकीकरण को गहरा किया। उन्होंने लिखा, ‘भारत आरसेप में शामिल नहीं है, उसने सीपीटीपीपी की सदस्यता के लिए आवेदन भी नहीं किया है, यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौते को लेकर अभी बातचीत ही चल रही है और अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर तो अभी विचार तक नहीं हो रहा है। ऐसे में भारत अलग-​थलग पड़ सकता है।’

चाहे जिस लिहाज से देखें, यह एक गहन, प्रासंगिक और गहराई से परेशान करने वाला मुद्दा है जो सरकार द्वारा एक पखवाड़े पहले प्रका​शित विदेश व्यापार नीति 2023 में न तो सामने रखा गया है और न ही उसका कोई समाधान किया गया है। इससे पहले कि मैं उभरते परिदृश्य में भारत के लिए संभावित रास्तों पर कुछ प्रारंभिक विचार पेश करूं, मुझे बीते 60 वर्षों में भारत की व्यापारिक नीतियों को लेकर संक्षेप में अपनी बात रखने दीजिए।

वास्तविक दुनिया के नीतिगत पहलुओं की तरह इतिहास का बोझ, खासकर गलत फैसलों का बोझ बहुत भारी होता है। सन 1950 के दशक के मध्य के विदेशी विनिमय संकट के बाद और सन 1960 के दशक की पूरी तरह गलत ‘निर्यात संबंधी निराशा’ के बाद, भारत के नीति निर्माताओं ने आयात और औद्योगिक नियंत्रण/लाइसेंस का एक जटिल ढांचा तैयार किया और हास्यास्पद रूप से ऊंचा सीमा शुल्क लगाया।

जगदीश भगवती, पद्म देसाई, टी एन श्रीनिवासन, विजय जोशी, इयान लिटल, एन क्रूगर और अन्य अर्थशास्त्रियों ने सन 1970 के दशक में इस नीतिगत व्यवस्था की जबरदस्त आलोचना की थी लेकिन इसके बावजूद देश का धन देश में रखने की यह अक्षम नीति मोटे तौर पर सन 1990 के दशक तक जारी रही।

जैसा कि अध्ययनों से पता चलता है कि इसकी बड़ी कीमत गंवाए गए कारोबार और राष्ट्रीय उत्पादन और रोजगार के क्षेत्र में चुकानी पड़ी। सन 1990 तक दुनिया की आबादी में 16 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाला भारत वै​श्विक वस्तु निर्यात में केवल 0.5 फीसदी हिस्सेदार था जबकि द​क्षिण कोरिया भारत की तुलना में पांच फीसदी आबादी होने के बाद भी वैश्विक वस्तु निर्यात में 1.9 फीसदी का हिस्सेदार था।

सन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट ने कई बड़े व्यापारिक सुधारों, विदेशी निवेश तथा विनिमय दर नीतियों से जुड़े सुधारों को जन्म दिया। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि विनिमय दर को व्यापक तौर पर बाजार आधारित बनाया गया तथा औद्योगिक लाइसेंसिंग, पूंजी तथा मध्यवर्ती वस्तुओं पर आयात नियंत्रण को ​शि​थिल किया गया। उच्च सीमा शुल्क को करीब 300 से कम करके 1995 तक 50 फीसदी के आसपास लाया गया। उसके बाद धीमी गति से 2015 तक उसे पूर्वी एशियाई देशों के स्तर तक लाया गया। सन 2000 तक वै​श्विक निर्यात की हिस्सेदारी बढ़कर 0.7 फीसदी हुई और 2005 में एक फीसदी तथा 2015 में यह 1.7 फीसदी हो गई। तब से अब तक यह वहीं ​स्थिर है और आं​शिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि 2016 के बाद से देश में शुल्क बढ़ा। परंतु चीन की तुलना में यह इजाफा बहुत कम है। उसका निर्यात 1980 के एक फीसदी से बढ़कर 2000 में 3.9 फीसदी और 2020 में 15 फीसदी हो गया।

सन 2000 के बाद हमारी व्यापार नीतियों में अहम कमी यह रही कि हम वैश्विक और क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं में अहम भागीदारी करने में नाकाम रहे जबकि 1990 से 2020 के बीच यह वै​श्विक व्यापार का अहम गुणधर्म बन गया। इस कमजोरी की कई वजह हैं: सन 1995 के बाद शुल्क में कमी की धीमी गति, क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों में निष्प्रभावी भागीदारी, कमजोर घरेलू लॉजि​स्टिक्स और क्षेत्रीय सुविधा और प्रतिस्पर्धी विनिर्माण क्षेत्र के विकास में गंभीर बाधाएं। ऐसा न केवल व्यापार नीतियों की बदौलत हुआ छोटे उद्योगों से संबं​धित आरक्षण के कारण, श्रम बाजार की दिक्कतों, विदेशी निवेश, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा विकास और निचले स्तर पर कमजोर कौशल विकास के कारण भी हुआ। नीतियों को लेकर भी समझ बहुत सीमित थी। कहना न होगा कि प्रतिस्पर्धी लोकतांत्रिक राजनीति और निहित वा​णि​ज्यिक हितों ने भी दरों में कमी और मुक्त व्यापार संगठनों की प्रक्रिया रोकने में अपनी भूमिका निभाई।

इसलिए ऊपर शुरुआती पैराग्राफ में रेखांकित प्रश्न के हवाले से बात करें तो भारत को आने वाले वर्षों में व्यापारिक अवसर बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाने ​चाहिए? आइए बात करते हैं तीन सुझावों पर जिन पर विचार किया जा सकता है। पहला, हमें हर को​शिश करनी चाहिए कि मौजूदा यूरोपीय संघ-भारत मुक्त व्यापार समझौता वार्ता को सफल बनाया जा सके।

बहरहाल, यूरोपीय संघ की नीतियों में जलवायु कार्बन के मुद्दों की बढ़ती संबद्धता और पुराने इतिहास को देखते हुए एक व्यापक और गहन समझौते की बहुत उम्मीद नहीं है।

दूसरा, हमें गंभीरतापूर्वक इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि नवंबर 2019 में हम अंतिम चरण में आरसेप से पीछे क्यों हट गए? हमें उसमें दोबारा शामिल होने का प्रयास करना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि चीन की आ​र्थिक और सैन्य शक्ति हमारे अन्य ए​शियाई पड़ोसियों जापान, कोरिया और अ​धिकांश आसियान देशों के लिए भी चिंता का विषय है। इनमें से कुछ का तो चीन के साथ क्षेत्रीय और समुद्री विवाद भी चल रहा है। लेकिन इसके बावजूद उनका इस विशाल पड़ोसी देश के साथ साझा लाभ वाला व्यापारिक और निवेश का रिश्ता है। आसियान, जापान और कोरिया के साथ हमारा मुक्त व्यापार समझौता भी आरसेप की सदस्यता का विकल्प नहीं हो सकता।

तीसरा, हमें सीपीटीपीपी की सदस्यता के लिए भी आवेदन करना चाहिए हालांकि इसमें आरसेप की तुलना में अ​धिक आर्थिक एकीकरण है। यह बड़ा क्षेत्रीय समझौता दीर्घाव​धि में आरसेप की तुलना में व्यापार का अ​धिक श​क्तिशाली वाहक बन सकता है। ध्यान देने वाली बात है कि ब्रिटेन हाल ही में इसका सदस्य बना है।

सबसे बढ़कर हमें सन 1950 के बाद के आ​​र्थिक विकास के इतिहास का सबक याद करना होगा। किसी भी बड़े देश ने बिना वस्तु निर्यात में तेज इजाफे के निरंतर उच्च वृद्धि दर और रोजगार हासिल नहीं किया है।

(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आ​र्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार हैं)

First Published - April 17, 2023 | 10:43 PM IST

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