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‘लिबरेशन डे’ और भारत की तैयारी

अमेरिका की 2 अप्रैल से शुल्क बढ़ाने की घोषणा के बीच भारत की कंपनियों और नीति निर्माताओं को आगे की राह और रणनीति तय करनी होगी। बता रहे हैं

Last Updated- March 31, 2025 | 10:45 PM IST
India US Trade

अमेरिका की दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक चौथाई हिस्सेदारी है और वैश्वीकरण के बाद बनी उदार व्यवस्था की अगुआई वही करता रहा है। हर किसी की नजर अब 2 अप्रैल पर है, जिसे ‘लिबरेशन डे’ कहा गया है और जिस दिन से अमेरिका ने नए टैरिफ यानी शुल्क लागू करने का वादा किया है।

भारत में हम अल्पविकास को झट से पहचान लेते हैं। इसलिए हम नए अमेरिका को दूसरों से पहले और आसानी से समझ लेंगे। अच्छे नीति निर्माण में शोध, मशविरा और वार्ता तीनों रहते हैं मगर 2 अप्रैल से पहले इनमें से कुछ भी नहीं किया गया है। उभरते बाजारों की नीतिगत क्षमता के हिसाब से 2 अप्रैल की घोषणाओं से हम आज बिल्कुल अनजान हैं। उनमें भूल भी होंगी और अनचाहे नतीजे भी। लोकलुभावन सरकारों में क्षमता कम होती है और गौरव बोध ज्यादा। गलती होने की बात कबूलना और पीछे हटना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। वैश्विक आर्थिक नीति में जितनी अनिश्चितता आज है, पहले कभी नहीं रही और 2 अप्रैल के बाद भी काफी अनिश्चितता बची रहेगी।

अमेरिका 1930 में स्मूट-हॉली टैरिफ एक्ट लाया, जिसने दूसरा विश्व युद्ध लाने वाली आर्थिक और राजनीतिक आपदाओं में अहम किरदार निभाया। मगर इस बार बेहतर की गुंजाइश की जा सकती है क्योंकि विकसित अर्थव्यवस्थाएं इस बार शायद पहले जैसी भूल यानी जवाबी शुल्क लगाना और लचीली विनिमय दर छोड़ना नहीं करें।

व्यापार को सौदेबाजी मानना आसान है: मैं अपने शुल्क घटाऊंगा क्योंकि तुम अपने शुल्क घटाओगे। अर्थशास्त्री बेहतर समझते हैं: दूसरे क्या करते हैं इसकी फिक्र छोड़कर शुल्क में एकतरफा कमी भारत के ही हित में है। अगर आप जहर इसीलिए पी रहे हैं क्योंकि दूसरा पी रहा है तो यह बेवकूफी है। साथ ही वैश्विक वित्तीय बाजारों की ताकत और अंतरराष्ट्रीय पूंजी की चाल ने सरकारों के लिए मुद्रा की कीमत घटाकर विनिमय दरों में दखल करने की गुंजाइश कम कर दी है।

अमेरिकी सरकार की आज की सोच स्मूट, हॉली और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर के साथ जुड़ती दिखती है। लेकिन बाकी सभी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में धनी देशों की राजनीतिक तथा राज्य क्षमताएं रही हैं। कुछ देश सोच-समझकर ऐसे टैरिफ लगाएंगे, जो उन संसदीय क्षेत्रों में ट्रंप के वोटरों को नुकसान पहुंचाएंगी जहां वे मामूली अंतर से जीते थे। इस तरह वे अमेरिका से उसी भाषा में बात करने की कोशिश करेंगी, जो वहां का राजनीतिक नेतृत्व समझता है। मगर बाकी वैश्विक व्यापार व्यवस्था ढहने की आशंका नहीं है।

टैरिफ की कहानी 2 अप्रैल को खत्म नहीं होगी और उससे परे देखें तो लिबरेशन डे इकलौती दिक्कत नहीं है। दुनिया की अर्थव्यवस्था को 20 जनवरी से ही अनिश्चितता के झटके लग रहे हैं। अमेरिका में सरकार बदलने से कई तरह की अनिश्चितता आई हैं। अमेरिका में टैरिफ महंगाई लाएंगे, जिसके कारण फेड दरें बढ़ा सकता है। पर्यटन और उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्र पिछड़ रहे हैं। अमेरिकी निर्यात पर भी टैरिफ का असर होगा। अमेरिकी परिसंपत्तियों तथा डॉलर की कीमत घटने से अमेरिका में खपत और भी घट सकती है।

अधिक अनिश्चितता विश्व अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाल रही है। प्रबंधक इसी वजह से धीमे बढ़ रहे हैं और कुछ भी करने से पहले ज्यादा जानकारी जुटा रहे हैं। दुनिया भर की कंपनियां रणनीतिक आयात के फैसले धीमे ले रही हैं। 20 जनवरी से समूची विश्व अर्थव्यवस्था में मांग इसी तरह सुस्त चल रही है और अब आंकड़ों मंव भी नजर आ रही है। अप्रैल और मई में भी अनिश्चितता कम होने की कोई संभावना नहीं दिख रही है।

भारत के हित सफल विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं। सेवा निर्यात हमारे लिए सबसे अहम और सफल क्षेत्र है, जो हर आठ साल में दोगुना हो रहा है। विश्व अर्थव्यवस्था में समस्याएं भारत के लिए खराब हैं। भारतीय कंपनियां अपने कर्मचारियों के जरिये अमेरिकी अर्थव्यवस्था से गराई से जुड़ी रहती हैं। उन्हें कोई भी योजना बनाते समय इस अनिश्चितता और अमेरिका के कमजोर आर्थिक प्रदर्शन को ध्यान में रखना होगा। इसीलिए अमेरिका के अलावा दूसरी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं को तरजीह देना ठीक रहेगा।

अमेरिका में दिक्कतें देखकर वहां की कंपनियां भारत में कारोबार बढ़ाना चाहेंगी। अमेरिका में शुल्क और शुल्कों पर अनिश्चितता ‘अमेरिका+चीन+1’ की नीति के एकदम माफिक है। इसलिए भारत समेत दूसरे उत्पादन केंद्रों पर और भी काम भेजा जाएगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की दिक्कतें राजस्व और मुनाफे की रफ्तार रोकती हैं तो कंपनियां ठेकों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिये भारत में अपनी गतिविधियां किसी भी समय दोगुनी कर सकती हैं।

भारत से अमेरिका को निर्यात हो रही कुछ वस्तुओं पर अगर अन्य देशों से आ रीह उन्हीं वस्तुओं के मुकाबले कम शुल्क लगता है तो भारत को फायदा हो सकता है। जब कई आंकड़े सामने हों और धड़ाधड़ घोषणाएं हो रही हों तो ऐसी स्थिति आ ही जाती है। भारतीय कंपनियों को इनका फायदा उठाना चाहिए। उन्हें समझना होगा कि यह मौका भी कुछ दिनों में गायब हो सकता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की टीम की प्राथमिकता सूची में भारत ऊपर आ गया है क्योंकि इसे सबसे ज्यादा शुल्क लगाने वाला देशों में गिना जाता है। खबरों के मुताबिक भारत सरकार ने स्थिति संभालने के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद घटाने की बात कही है। भारत की व्यापार बाधाएं बहुत अधिक हैं और अलग-अलग दरों के कारण संरक्षण भी बहुत ज्यादा है। शून्य या 1 फीसदी की इकलौती दर तथा खास स्थितियों के लिए खास व्यवस्था ही हमारे लिए सही है। वैश्वीकरण के अनुकूल नीतियों का दौर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बढ़िया होगा। इसीलिए इक्वलाइजेशन लेवी हटाने के फैसले का भी स्वागत होना चाहिए।

इस मौके का इस्तेमाल अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ के साथ व्यापक आर्थिक समझौतों के लिए किया जा सकता है। मगर ये संरक्षणवाद बनाए रखने वाले सैकड़ों विशेष प्रावधानों से भरे पुराने समझौतों की तरह नहीं होने चाहिए। ये समझौते सरल हों, जो सीमा पार गतिविधियों की सभी बाधाएं दूर कर दें। संदेह और संरक्षणवाद छोड़कर वास्तविक वैश्वीकरण की ओर ले जाने वाले ऐसे समझौते भारत के आर्थिक भविष्य का कायाकल्प कर देंगे।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - March 31, 2025 | 10:34 PM IST

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