हमारी आकांक्षा 2047 तक विकसित देश बनने की है। किसी विकसित या उच्च आय वाले देश का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी करीब 14,000 डॉलर होता है यानी 2,700 डॉलर के हमारे वर्तमान प्रति व्यक्ति जीडीपी के पांच गुने से भी अधिक। उस स्तर तक पहुंचने के लिए हमें अगली चौथाई सदी तक वृद्धि दर को मौजूदा दर से दो फीसदी अधिक यानी करीब 8.5 फीसदी पर रखना होगा।
वृद्धि और रोजगार आपस में जुड़े होते हैं। जैसे-जैसे देशों का विकास होता है वैसे-वैसे वृद्धि सबसे नाटकीय कारक के रूप में लोग कृषि जैसे कम उत्पादकता वाले काम से विनिर्माण और सेवा क्षेत्र जैसे अधिक उत्पादकता वाले पेशों में जाने लगते हैं। जब किसी किसान का बेटा चेन्नई में जोहो, पुणे में जोमैटो या बेंगलूरु में टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स में काम करने जाता है तो परिवार की आय में हुआ इजाफा सीधे जीडीपी में नजर आता है। आय में इस वृद्धि से अर्थव्यवस्था में इजाफा होने लगता है क्योंकि परिवार छुट्टियों से लेकर प्रोसेस्ड फूड तक सभी की खपत करने लगता है।
बीते 30 सालों से हमारे जीडीपी में वृद्धि खपत के बल पर हुई है। इसी तरह जब हम शहरों से गांवों की ओर उलटा पलायन देखते हैं तो आर्थिक वृद्धि पर असर होता है। पिछले चार साल में कृषि और अनौपचारिक ग्रामीण स्वरोजगार सेवाओं में दो करोड़ रोजगार शामिल हुए हैं। हमें देखना होगा कि दशकों तक कम उत्पादकता वाले ग्रामीण रोजगारों से उच्च उत्पादकता वाले शहरी रोजगारों तक पलायन हुई। हाल के दिनों का उलटा रुझान विकास की नाकामी को दिखाता है।
जुलाई में आई आर्थिक समीक्षा बताती है कि 56.5 करोड़ के हमारे कुल श्रम बल में 46 फीसदी कृषि में, 11 फीसदी विनिर्माण में, 13 फीसदी निर्माण कार्यों में और 29 फीसदी सेवा क्षेत्र यानी व्यापार, होटल तथा परिवहन आदि में है।
कृषि 46 फीसदी रोजगार देता है किंतु जीडीपी में उसका योगदान केवल 18 फीसदी है। कृषि में इतने लोगों की आवश्यकता नहीं है। रूमानियत से परे देखें तो अधिकतर किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। तकनीक के मामूली इस्तेमाल के साथ हम इतना ही अनाज एक चौथाई किसानों के बल पर भी उगा सकते हैं।
समीक्षा में कृषि क्षेत्र से बाहर सालाना 80 लाख रोजगार तैयार करने की बात कही गई है। इसके लिए तार्किक अनुमानों का सहारा लिया गया है। श्रम बल में पुरुषों की भागीदारी मौजूदा स्तर यानी 54 फीसदी पर ही बनी रहेगी। महिलाओं की भागीदारी मौजूदा 27 फीसदी से हर साल 1 फीसदी बढ़ती जाएगी। यह दर कम प्रतीत होती है लेकिन बीते 30 वर्ष दिखाते हैं कि शहरों में महिलाओं के लिए रोजगार तैयार करने में हमारा प्रदर्शन कमजोर रहा है। हर वर्ष कम से कम एक फीसदी लोगों को कृषि से विनिर्माण और सेवा में आना चाहिए। यह भी कम लगता है लेकिन बीते 23 सालों में इसका बड़ा प्रभाव हुआ है। हमें नहीं पता कि ग्रामीण इलाकों में कितने लोग रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक 70 फीसदी लोग गांवों में रहते थे। 2021 की जनगणना में बहुत देर हो चुकी है किंतु अनुमान है कि अब 60 फीसदी लोग ही गांवों में रहते होंगे। शेष 10 फीसदी वहां से निकलकर महानगरों नहीं बल्कि छोटे शहरों में रहने लगे होंगे।
यह अनुमान अच्छी खबर लाता है। श्रम बल में नए लोगों का शामिल होने और कृषि से दूर होना सीधे जीडीपी बढ़ाता है। समीक्षा यह भी दिखाती है कि रोजगार में सर्वाधिक वृद्धि निर्माण में तथा लॉजिस्टिक्स तथा कंपनियों के भीतर ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों में हुई है। निर्माण क्षेत्र में अधिकांश रोजगार ठेके पर होता है। ये बहुत स्तरीय काम नहीं हैं लेकिन उत्पादक हैं और कृषि की तुलना में अधिक आय प्रदान कराते हैं। विनिर्माण और सेवा के क्षेत्र में 80 लाख से अधिक नौकरियां अगले 23 साल में हर वर्ष जीडीपी में तीन चौथाई से एक प्रतिशत तक वृद्धि करेंगी। 2047 तक यह विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने में जो फासला है, उसका आधा तो इससे ही दूर हो जाएगा।
यह तो हुई अच्छी खबर। बुरी खबर यह है कि एक साल में कृषि से बाहर 80 लाख रोजगार हम कभी तैयार नहीं कर पाए। समीक्षा बताती है कि कृषि प्रसंस्करण और केयर इकॉनमी यानी बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों, दिव्यांगों आदि की देखभाल से संबंधित सेवाओं में संभावनाएं हैं। इन क्षेत्रों में बहुत गुंजाइश है।
इस वर्ष के बजट में मौजूदा कंपनियों में रोजगार बढ़ाने के तीन तरीके अपनाने का प्रयास किया गया है: पहले माह का वेतन बतौर सब्सिडी देना, नए कर्मचारियों की भर्ती के बाद पहले दो साल उनकी भविष्य निधि की राशि देना और एक बड़ा इंटर्नशिप कार्यक्रम, जिसमें सरकार छात्रवृत्ति देगी। ये सभी उपयोगी हैं और पहले से ही नौकरियां दे रही कंपनियों के लिए मददगार होंगे। यह अलग सवाल है कि उनकी वजह से कंपनियां ज्यादा लोगों को नौकरियां देंगी या नहीं। मेरा सुझाव है कि श्रम आधारित उद्योगों पर ध्यान दिया जाए।
आर्थिक समीक्षा के मुताबिक विनिर्माण में कार्यरत छह करोड़ लोगों में से केवल 1.7 करोड़ कारखानों में काम करते हैं। शेष लोग छोटे उपक्रमों में काम करते हैं। परंतु यह धारणा भी सही है कि कारखानों में ही वह आधुनिक विनिर्माण रोजगार होता है, जिसकी हमें कोशिश करनी चाहिए। ये रोजगार कहां हो सकते हैं?
लाखों में रोजगार तैयार करने की क्षमता तीन क्षेत्रों में है – वस्त्र, खाद्य और इलेक्ट्रॉनिक असेंबली। हमारा वस्त्र क्षेत्र लंबे समय से पिछड़ा हुआ है क्योंकि इस पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता। अब इसमें जरूरी सुधारों की आवश्यकता है। जिस तरह हमने फॉक्सकॉन को भारत में बुला लिया है उसी तरह दुनिया की सबसे बड़ी परिधान कंपनी ली ऐंड फंग को भी बुलाना चाहिए, जो चीन में करीब 10 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार देती है।
बांग्लादेश में परिधान के एक बड़े कारखाने में 30,000 से 50,000 लोगों को नौकरी मिलती है मगर भारत में केवल 3,000 से 5,000। इसमें इजाफा कैसे किया जा सकता है? डिजाइन और तकनीक के जरिये? या कौशल की मदद से? मुक्त व्यापार समझौते के तहत बाजारों तक शुल्क मुक्त पहुंच भी ऐसा कर सकती है? या श्रम सुधार अथवा एक खास अवधि के लिए श्रमिकों को अधिक आसानी से काम पर रखना?
खाद्य प्रसंस्करण में हम अब भी अंतरराष्ट्रीय मानकों पर बहुत पीछे हैं। दुनिया के 20 फीसदी फल और सब्जियां हमारे देश में उगते हैं लेकिन डेलॉयट के अनुसार हम अपने 4.5 फीसदी फलों और 2.7 फीसदी सब्जियों का ही प्रसंस्करण करते हैं। हम इन क्षेत्रों में दुनिया का नेतृत्व कर सकते हैं।
इलेक्ट्रॉनिक असेंबली में सफलता नई है। अब टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स, फॉक्सकॉन और पेगाट्रॉन श्रम के बहुत अधिक इस्तेमाल वाले कारखाने स्थापित कर रही हैं। उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के तहत इलेक्ट्रॉनिक असेंबली उन 14 पीएलआई क्षेत्रों में से इकलौता है, जहां श्रम का बहुत अधिक इस्तेमाल होता है।
आईफोन के खोल बनाना, फोन असेंबल करना, कपड़े बुनना और संतरों का प्रसंस्करण करना ड्रोन और सेमीकंडक्टर बनाने जैसा आकर्षक काम बेशक नहीं हो मगर लाखों लोगों को रोजगार दे सकता है। रोजगार की कारगर रणनीति के लिए श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले उद्योगों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं)