भारतीय उद्योगपति जिस तरह से ग्लोबल कंपनियों को खरीद रहे हैं, उसके बारे में हर कोई अपनी प्रतिक्रिया देने में जुटा है।
खासतौर पर प्रतिष्ठित ब्रैंड जगुआर और लैंड रोवर के अधिग्रहण के बाद इस तरह की चर्चाएं उफान पर हैं। ऐसे अधिग्रहणों के पीछे कई तरह की वजहें बताई जा रही हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि भारतीय कंपनियां ग्लोबल बनने की कवायद में जुटी हैं और दूसरे बाजारों में परिचालन के मुद्दे पर वे आत्मविश्वास से लबरेज हैं। विकसित देशों के बाजारों में वे मार्केटिंग और फ्रंट-एंड परिचालन के कारोबार की बागडोर संभालना चाहती हैं और अपने देश में इन कारोबारों का बैक-ऑफिस रखना चाहती हैं।
वे चीन में किए जाने वाले अपने निवेश से होने वाले लाभ का इस्तेमाल इन जगहों पर करना चाहती हैं। वे उन कठिन तकनीकों तक अपनी पहुंच चाहती हैं, जिनकी बदौलत अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनका दखल बढ़े। और आखिरी बात यह कि वे बेहद आक्रामक होना चाहती हैं। अर्थशास्त्री केन्स के लफ्जों में कहें तो यह उद्योगपतियों का ‘जुनूनी जज्बा’ है।
इन सभी सकारात्मक वजहों को स्वीकार कर लें, तो भी मन में एक सवाल कौंधता है कि भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशों में किए जा रहे निवेश का क्या कोई स्याह चेहरा भी है? भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मामले में दुनिया में दूसरे पायदान पर रहा है और है। साथ ही भारत में व्यापक धन सृजन की संभावनाओं को प्रमाण की दरकार नहीं।
जब भारत राफ्ता-राफ्ता विकास की राह पर बढ़ रहा था, उस वक्त भी धीरूभाई अंबानी कहा करते थे कि भारत में विकास की अपार संभावनाएं हैं और सिर्फ ग्लोबल बनने के नाम पर उन्हें भारत छोड़कर कहीं और जाने की जरूरत महसूस नहीं होती। लिहाजा स्वत:स्फूर्त सवाल यह है कि कोई भी अपना पैसा क्यों ऐसे विदेशी बाजार में लगाता है, जिन बाजारों की सालाना विकास दर महज 2 से 3 फीसदी के बीच है?
हो सकता है भारतीय कंपनियां ऊपर बताई गई वजहों से ऐसा कर रही हों या फिर ऐसा भी हो सकता है कि देसी कंपनियां सस्ते की आस में विदेशी जमीन पर अपने कदम रख रही हों (लैंड रोवर और जगुआर के लिए टाटा को उस रकम के आधे से भी कम का भुगतान करना है, जितनी रकम फोर्ड ने अर्से पहले इन दोनों ब्रैंड्स को खरीदते वक्त दी थी)। पर क्या कहानी यहीं खत्म हो गई?
आदित्य बिड़ला ऐसे पहले भारतीय कारोबारी थे, जिन्होंने अपनी जवानी के दिनों में ही तय कर लिया कि उन्हें बहु-देश और बहु-उत्पाद की रणनीति पर चलना है। हालांकि उन्होंने यह फैसला इसलिए लिया, क्योंकि उन्हें लगा कि भारतीय कारोबारी वातावरण काफी दमघोंटू है। अपनी रणनीति पर चलते हुए आदित्य बिड़ला ने थाईलैंड जैसे देशों में (जहां उन्हें कारोबारी आजादी की भावना महसूस होती थी) अपना कारोबारी कदम रखा।
दूसरे शब्दों में कहें तो वह एक आला दर्जे के आर्थिक शरणार्थी थे। आज हमारे पास ऐसे उद्योगपतियों की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है। इनमें लक्ष्मी निवास मित्तल का नाम भी शामिल है, जिन्होंने भारतीय बाजार में तरक्की की बहुत गुंजाइश न पाकर विदेश में अपनी किस्मत आजमाई और उनके सिर कामयाबी का ऐसा सेहरा बंधा कि उनकी कंपनी स्टील बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बन गई।
ऐसे उद्योगपतियों की भी कोई कमी नहीं है, जो तकनीकी तौर पर प्रवासी भारतीय हो गए हैं, यह बात दीगर है कि भारत में उनका वृहत कारोबार है, क्योंकि उन्हें यहां कारोबारी परिचालन की आजादी महसूस होती है (और शायद कुछ टैक्स लाभ भी मिलता है)। ऐसे लोगों में विजय माल्या, रुइया और कम से कम एक बिड़ला समेत कइयों के नाम शुमार हैं।
भारत में कारोबारी परिचालन का मौजूदा माहौल बाकी दुनिया से बिल्कुल इतर है। आज यहां वह माहौल कतई नहीं है, जिसकी वजह से आदित्य बिड़ला और लक्ष्मी निवास मित्तल को भारत छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था। लाइसेंस और आयात से संबंधित कई पाबंदियां अब यहां खत्म कर दी गई हैं।
हालांकि अब भी एक नामचीन टेलिकॉम उद्योगपति ने मुझसे कहा कि टेलिकॉम नियमों में जिस तरह से छेड़छाड़ हो रही है, उसे देखते हुए उन्होंने अपने लोगों से कह दिया है कि वे विदेश में निवेश करने पर ध्यान दें, क्योंकि भारत में काम करना अब मुश्किल हो गया है। पिछले हफ्ते मेरी मुलाकात एक ऐसे उद्योगपति से हुई, जो नेताओं द्वारा ली जाने वाली रकम की बढ़ती मात्रा को लेकर बेहद क्षुब्ध थे। उनका भी यही कहना था कि उन्होंने अपने ग्रुप से कह दिया है कि वह दूसरे देशों में निवेश करे।
खुद रतन टाटा भी भारत में कारोबारी कायदे-कानूनों से होने वाली दिक्कतों का जिक्र कर चुके हैं और आज यदि वह विदेश पर अपना ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, तो हो सकता है यह भी उसकी एक वजह हो।
यह सही है कि आज भारत में उतना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो रहा है, जितना कभी नहीं हुआ, क्योंकि भारतीय बाजार काफी आकर्षक हो गया है। पर इस बात में भी कोई दो राय नहीं कि हमारे अपने बेहतरीन उद्योगपति (जो अपने कारोबारी चलन का नैतिक आधार तलाशते हैं) आज भारत को ऐसी टोकरी नहीं समझ रहे, जिसमें वे अपने ज्यादा से ज्यादा अंडे डाल सकें।