विश्वविद्यालयों और सरकारी शोध संस्थानों को उनके आविष्कारों और खोजों के व्यावसायिक इस्तेमाल की इजाजत देने वाले प्रस्तावित विधेयक से विज्ञान और उस पर आधारित उद्योगों को काफी फायदा हो सकता है।
जरूरत है तो बस उसे को अगर पूरी ईमानदारी से बनाने और लागू करने की। वैसे, इस उत्साह की असल वजह तो इसका मसौदा है। इसके मसौदे के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के शोध संस्थान अब अपनी खोज का पेटेंट करवा पाएंगे। साथ ही, प्रस्तावित कानून का यह मसौदा उन्हें अपनी नई खोज को बाजार में प्राइवेट कंपनियों को बेचने की भी इजाजत देता है।
मसौदे के मुताबिक इस तरह के सौदों से होने वाली कमाई का 30 फीसदी हिस्सा उस खोज को करने वाले व्यक्ति या आविष्कारक के दिया जाएगा, जबकि 10 फीसदी रकम पर शोध संस्था का अधिकार होगा। उस रकम से वह अपने बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाएगी। बाकी की रकम सरकार के नाम होगी।
इन संस्थानों में रिसर्च फाइनैंस सरकार ही करती है। इसलिए कब कौन सी कंपनी को उस शोध का इस्तेमाल करने के लिए लाइसेंस जारी किया जाए, इसका फैसला भी सरकार ही करेगी। आपको बता दें कि इस बिल का मसौदा बनाया गया है राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की पहल पर।
इस बिल से सरकार, शोधकर्ता और शोध संस्थान हर किसी का भला ही होगा। इस कदम से सरकारी शोध संस्थानों में काम कर वैज्ञानिकों और उन संस्थानों का भला ही होगा। इससे इन्हें परिणाम पर आधारित शोध करने में मदद मिलेगी। इस तरह के प्रोत्साहन की कमी काफी दिनों से सरकारी शोध संस्थानों में काफी महसूस की जा रही थी। साथ ही, इस नई व्यवस्था से नए अविष्कारों और खोजों को लैब से बाहर निकालकर बाजार में भी लाने में मदद मिलनी चाहिए।
इससे विज्ञान पर आधारित औद्योगिक विकास में मदद मिलेगी। सबसे अहम बात तो यह है कि इस तरह की व्यवस्था से सरकारी शोध संस्थाओं की कमाई के लिए प्राइवेट कंपनियों से दूर रहने की सोच खत्म हो पाएगी।हालांकि इस खूबसूरत तस्वीर में कुछ नुख्स भी हैं, जो नजरों में खटकते हैं। पहली बात तो हमें यह समझनी होगी कि यह पहल और इस बिल का मसौदा अपनी तरह का पहला और अनोखा बिल्कुल भी नहीं है।
यह काफी हद तक अमेरिका के बाय-डोल कानून पर आधारित है, जो 1980 में बना था।यह कानून अमेरिका में तब बना था, जब सरकारी पैसों से होने वाले रिसर्च के पेटेंट पर पूरा अधिकार वहां की सरकार के हाथों में हुआ करता था। यह इन पेटेंटों के व्यावसायिक इस्तेमाल की राह में एक बड़ा रोड़ा बन गया था। हालांकि, भारत में सरकार रिसर्च संस्थानों के शोध उत्पादों के मालिकाना हक पर अभी तक तस्वीर साफ नहीं हो पाई है।
कम से कम, यह 1980 के अमेरिका के हालतों की तरह तो साफ कतई नहीं है। कुछ देसी शोध संस्थान तो बौध्दिक संपदा संरक्षण के मामले में काफी जागरूक हो चुके हैं। हालांकि, उम्मीद कम है कि इस बिल का असर उतना नहीं होगा, जितने की आस है।