नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद पर लगातार सबसे लंबी अवधि तक बने रहने वाले दूसरे नेता बन गए हैं। यह जानने का प्रयास करते हैं कि चार अहम मामलों में वह इंदिरा गांधी के साथ तुलना में कैसे नजर आते हैं?
जून 2024 में जिस दिन नरेंद्र मोदी ने तीसरा कार्यकाल हासिल किया, यह उसी दिन तय हो चुका था कि इस वर्ष वह लगातार कार्यकालों में दूसरी सबसे लंबी अवधि तक प्रधानमंत्री बने रहने वाले नेता बन जाएंगे। इस दौरान वह इंदिरा गांधी से आगे निकल गए जो 24 जनवरी, 1966 से 24 मार्च, 1977 तक प्रधानमंत्री रही थीं। उसी दिन यह भी तय हो गया था कि 2025 में लगभग इसी समय मोदी और इंदिरा के बीच तुलनाओं का सिलसिला भी शुरू हो जाएगा। चलिए मैं इसकी शुरुआत करता हूं। या आप ऐसा करने वाले शुरुआती लोगों में मेरा नाम शुमार कर सकते हैं।
सबसे पहले, हमें उन व्यापक राजनीतिक हकीकतों पर नजर डालनी होगी जिनके तहत दोनों सत्ता में आए तथा उनकी सत्ता के समक्ष चुनौतियों पर भी गौर करने की जरूरत है। उसके पश्चात हम विभिन्न आयामों पर उनके प्रदर्शन का आकलन करेंगे: राजनीति, सामरिक और विदेश मामले, अर्थव्यवस्था और राष्ट्रवाद।
इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी ने एकदम अलग-अलग हालात में सत्ता संभाली। दोनों की राजनीतिक पूंजी में भी अंतर था। गांधी ने 1966 में कोई चुनाव नहीं जीता था। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद उन्हें एक सहज विकल्प के रूप में चुना गया था। अपने शुरुआती दिनों में वह संसद में ज्यादा कुछ नहीं बोलती थीं और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने उन्हें ‘गूंगी गुडि़या’ कहकर खारिज कर दिया था। उन्हें विरासत में एक ध्वस्त अर्थव्यवस्था मिली थी। 1965 में देश की वृद्धि दर 2.6 फीसदी ऋणात्मक थी। युद्ध, सूखा, खाद्य संकट तथा राजनीतिक अस्थिरता की तिहरी मार के साथ-साथ महज 19 महीनों के अंदर दो पदासीन प्रधानमंत्रियों के निधन ने भारत को कमजोर कर दिया था।
2014 में मोदी के लिए तस्वीर इसके एकदम उलट थी। उन्हें बहुमत मिला था और देश में 30 साल बाद बहुमत की सरकार आई थी। वह अपनी पार्टी के चुने हुए प्रत्याशी थे। अर्थव्यवस्था पिछले 15 वर्षों में औसतन 6.5 फीसदी की मजबूत वृद्धि दर से चल रही थी। उन्हें सत्ता शांतिपूर्ण तरीके से, नियोजित ढंग से और चुनाव प्रक्रिया के जरिये मिली थी। सत्ता के आरंभ में उनके लिए कठिनाई इंदिरा गांधी की तुलना में बहुत कम थी क्योंकि उनके पास बहुत अधिक राजनीतिक पूंजी थी।
इस बात को रेखांकित करना भी आवश्यक है कि इंदिरा गांधी को सत्ता का 11वां साल चुनावी जीत से नहीं हासिल हुआ था बल्कि उन्हें वह अतिरिक्त वर्ष संविधान धज्जियां उड़ा कर मिला था। यह इसलिए संभव हुआ कि कांग्रेस को संसद में भारी बहुमत हासिल था। उसके पास 518 लोक सभा सीटों में से 352 सीटें थीं और विपक्ष को जेल में डाल दिया गया था। इसके विपरीत मोदी का तीसरा कार्यकाल आम चुनाव जीत कर हासिल किया गया। हालांकि इस बार वह पूर्ण बहुमत से थोड़ा पीछे रह गए। मोदी को 11 साल में कोई चुनौती नहीं मिली। न तो पार्टी के भीतर और न ही पार्टी के बाहर। वैश्विक हालात भी मोटे तौर पर अनुकूल बने रहे। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत ने जरूरत हालात को मुश्किल बनाया।
अब बात करते हैं चारों आयामों की। घरेलू राजनीति के मोर्चे पर पहला सवाल है: भारत का सबसे मजबूत प्रधानमंत्री कौन रहा? नरेंद्र मोदी या इंदिरा गांधी? बाकियों का उल्लेख करना ठीक नहीं।
गांधी ने अपनी राजनीति एक विचारधारा (समाजवादी रुझान वाली) के बूते चलाई। शुरू में मजबूरी के कारण, और उसके बाद अपनी पसंद से। मोदी का जन्म भगवा राजनीति में हुआ और वे उस रंग में पूरे रंगे रहे। इंदिरा गांधी की ताकत समय के साथ फर्श और अर्श को छूती रही। मोदी की ताकत 2024 में 240 सीटें जीतने के बाद के कुछ महीनों को छोड़ निरंतर स्थिर रही।
240 सीटों के साथ भी उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से कोई चुनौती मिलती नहीं दिख रही। उन्होंने सभी को हाशिये पर कर दिया है। राज्यों के क्षत्रपों की जगह अनजान नेताओं को आगे लाया गया है। यह इंदिरा गांधी के व्यवहार से अलग नहीं है यानी निर्ममता के मामले में दोनों को एक साथ रखा जा सकता है। वहीं विपक्ष के साथ व्यवहार और अभिव्यक्ति की आजादी की बात करें तो आपातकाल जैसे कदम का मुकाबला करना किसी के लिए भी मुश्किल है। जहां तक संस्थानों के आदर की बात है तो तगड़ी प्रतिस्पर्धा है। सहजता के लिए आइए केवल एक संस्थान की बात करते हैं- राष्ट्रपति। वी.वी. गिरि के साथ इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के पद को एक पुतले की तरह बना दिया। कमजोर और दिखावटी जो बस खाली जगहों पर दस्तखत करता था। मोदी युग में भी राष्ट्रपति ऐसे ही रहे।
मोदी ‘56 इंच का सीना’ जैसे बयान के साथ सत्ता में आए, गांधी को भी उनके समय में ‘कैबिनेट में इकलौता मर्द’ कहकर पुकारा गया। 1977 से 1984 के बीच जब वह सत्ता से बाहर हुईं और फिर वापस आईं, उस समय उन्होंने एक अलग कौशल दिखाया लेकिन अभी हम उसकी बात नहीं करेंगे क्योंकि वह11 साल की तुलना से बाहर है।
एक अहम सवाल है कि किसने भारत के ताने-बाने को बेहतर बनाए रखा। गांधी ने मिजोरम और नागालैंड में विद्रोहियों से सख्ती से मोर्चा लिया। इस मोर्च पर उनकी समस्या 1980 के बाद शुरू हुई। मोदी ने कश्मीर घाटी में जबरदस्त सुधार किया और पूर्वोत्तर में हालात सामान्य करने की प्रक्रिया में लगे रहे। परंतु मणिपुर में उन्हें नाकामी हाथ लगी। देश के पूर्वी और मध्य इलाके में माओवाद का विनाश एक बड़ा सकारात्मक कदम रहा।
इंदिरा गांधी के 11 साल के दौरान शीतयुद्ध चरम पर था। उन्होंने सोवियत संघ के साथ संधि की जिसमें बहुत चतुराई से साझा सुरक्षा का प्रावधान रखा गया। उन्होंने निक्सन-किसिंजर के चीन के प्रति झुकाव का सामना किया और भारत के लिए उपलब्ध छोटे-छोटे अवसरों का लाभ लिया।
मोदी ने सबके साथ दोस्ती के साथ शुरुआत की लेकिन पाकिस्तान और चीन की हकीकतों ने जल्दी ही हालात स्पष्ट कर दिए। गांधी ने 1974 में पोकरण-1 के बाद भारत को परमाणु शक्ति बनाया लेकिन 2019 में बालाकोट और 2025 में पहलगाम के बाद पाकिस्तान की परमाणु धमकी का प्रत्युत्तर दिया गया जो मोदी की कामयाबी है।
पड़ोस में माहौल बिगड़ रहे थे और भारत, अमेरिका और पश्चिम के साथ रिश्ते सुधार रहा था कि तभी यूक्रेन में जटिलताएं शुरू हो गईं। ट्रंप ने दूसरे कार्यकाल में हलचल मचा दी। अमेरिका और चीन के साथ पाकिस्तान 1971 की तरह खेल रहा है। उस दौर की इंदिरा गांधी की तरह मोदी को विकल्प तलाशने होंगे। सोवियत संघ बहुत पहले जा चुका है। उनके पास 1971 की इंदिरा गांधी की तुलना में कम विकल्प हैं। लेकिन भारत मजबूत हुआ है।
अर्थव्यवस्था में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। इंदिरा गांधी के उलट मोदी यह कहते हुए सत्ता में आए कि कारोबार करना सरकार का काम नहीं है। परंतु वह कई जगह उनका अनुकरण करते नजर आए। उदार और प्रभावी तरीके से लोगों में कुछ वितरित करते रहने की राजनीति इसका उदाहरण है। निजीकरण के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र को लेकर प्रतिबद्धता नजर आई। इस वर्ष के बजट में भी 5 लाख करोड़ रुपये की राशि सरकारी क्षेत्र की इकाइयों में नए निवेश के लिए रखी गई है, जबकि हमारा रक्षा बजट ही केवल 6.81 लाख करोड़ रुपये का है। मोदी ने डिजिटल भुगतान, जीएसटी और ऋणशोधन संहिता जैसे सुधार अवश्य किए हैं। कई अन्य सुधार प्रक्रिया में हैं।
अपने पहले और दूसरे कार्यकाल में मोदी ने भूमि अधिग्रहण, कृषि और श्रम सुधार, अफसरशाही में लैटरल एंट्री जैसे सुधारों के प्रयास किए लेकिन अब उन्हें त्याग दिया गया है। ट्रंप के सत्ता में आने तक मोदी 6-6.5 फीसदी की वृद्धि दर से संतुष्ट दिख रहे थे जिसे हम हिंदुत्व वृद्धि दर कह सकते हैं। तर्क यह है कि हिंदू पहचान और ध्रुवीकरण से संचालित राजनीति 6-6.5 फीसदी की वृद्धि दर के साथ चुनाव जिताने में कामयाब रहेगी। परंतु ट्रंप की हरकतों और उसके चलते हो रहे व्यापार समझौतों ने हालात बदल दिए।
राष्ट्रवाद की बात करें तो इंदिरा गांधी के लिए 1962 और 1971 की जंग जैसी पृष्ठभूमि थी। भारत पहले ही जय जवान, जय किसान का देश था। बांग्लादेश की आज़ादी, हरित क्रांति और गुटनिरपेक्षता ने उनके राष्ट्रवाद को हवा दी। मोदी का राष्ट्रवाद अधिक शक्तिपूर्ण और सैन्य छवि वाला है।
मोदी के अधीन एक नया हिंदू आधारित राष्ट्रवाद उभरा है। इसने उन्हें सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर हिंदुओं को एकजुट किया है लेकिन विभाजन भी बढ़ाया है। देश के विरोधी इसका लाभ लेना चाहेंगे। हमने देखा है कि कैसे पाकिस्तान केवल मुस्लिमों ही नहीं सिखों के साथ भी ऐसी कोशिश करता है। खासतौर पर वह ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ऐसा करता नजर आया।