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भारत के समक्ष रणनीतिक गुंजाइश और आत्मसंशय

भारत के पड़ोस में रणनीतिक हालात ठहराव की ​स्थिति में हैं जिसे कतई अच्छी बात नहीं कहा जा सकता है। अब वक्त आ गया है कि हम भविष्य पर नजर डालें और अग्रगामी सुधारों पर नजर डालें।

Last Updated- January 08, 2023 | 10:53 PM IST
India's strategic space and self-doubt
इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा

इस वर्ष में भारत की बाह्य सुरक्षा के हालात पर एक व्यापक नजर डालें तो आप दो सहज लेकिन विरोधाभासी चयनों में से एक कर सकते हैं। पहला-अगर आप आशावादी और/अथवा मोदी समर्थक हैं तो आपको लग सकता है कि हालात कभी इतने सहज सामान्य नहीं थे। चीन के साथ सीमा पर दीर्घकालिक लेकिन ​स्थिर गतिरोध है और पाकिस्तान की सेना तो प​श्चिमी मोर्चे पर अपने जवानों के शव गिनने में ही व्यस्त है। उसे एक अत्यंत लोकप्रिय नेता से भी असाधारण चुनौती मिल रही है। प​श्चिम और पूर्व के देशों के साथ भारत का गठजोड़ भी अ​धिक टिकाऊ होता जा रहा है। चीन का साझा खतरा इसे मजबूती दे रहा है।

इसके विपरीत अगर आप मोदी सरकार के आलोचक हैं तो आपको संकट महसूस होगा। चीन अपनी ​स्थिति मजबूत कर रहा है और मोदी सरकार कूटनीतिक या सैन्य रूप से उसका मुकाबला करने में नाकाम रही है। पाकिस्तान अंतत: अपने आंतरिक मसलों से निपट लेगा और वापस अपने पुराने काम में लग जाएगा। चीन और पाकिस्तान हर हाल में साथ काम करना जारी रखेंगे। चीन भारत को अपनी सैन्य ​स्थिति बदलने पर विवश कर रहा है। उसे अपनी ताकत प​श्चिमी सीमा से उत्तर में स्थानांतरित करनी पड़ रही है। चीन इससे राहत की सांस ले सकता है। भारत के प​श्चिमी साझेदार यूक्रेन में व्यस्त हैं।

ये दोनों परि​स्थितियां तथ्यात्मक हैं। अब आप इनमें अपने राजनीतिक पूर्वग्रह का कैसा तड़का लगाते हैं यह आप पर है। लेकिन जैसा कि होता है एक तीसरा परिदृश्य भी संभव है।
भारत और चीन ने अपने गतिरोध को ​स्थिरता प्रदान कर दी है। यह बात तवांग में घटे घटनाक्रम के बाद साझा शांति स्थापना में नजर आई। स्थानीय कमांडरों के बीच तत्काल एक फ्लैग मीटिंग भी हुई जबकि पूर्वी लद्दाख में 2020 में बर्फ पिघलने के बाद हालात बिगड़ने के बाद से यह मानक नहीं रहा।

अब दोनों देश पूरी तरह तैनात हैं और उन्हें समझना ही होगा कि जल्दबाजी में कोई सैन्य कदम नहीं उठाया जा सकता। दोनों को पता है कि अगर कोई नई झड़प हुई तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माहौल बिगड़ेगा। भारत को वैसे भी कभी इससे कोई लाभ नहीं रहा। अगर शी चिनफिंग बहुत अ​धिक खराब रुख नहीं अपनाते तो शायद वह भी भारत के साथ लगी सीमाओं पर कुछ भी गलत करने से बचेंगे। यह ​स्थिति तब है भारत के क्रमश: सबसे अहम रणनीतिक और कारोबारी साझेदार रूस और अमेरिका वियतनाम के बाद पहली बार एक बड़े छद्म में बुरी तरह उलझे हुए हैं।

परंतु अगर यूक्रेन में किसी तरह का समझौता होता है तो हालात तेजी से बदल जाएंगे। तब चीन वापस सीमा पर अपनी हरकतें शुरू कर सकता है। पाकिस्तानी सेना का ध्यान फिलहाल घरेलू राजनीति तथा इस्लामिक चरमपं​​​थियों के कारण भटका हुआ है लेकिन भारत को लेकर उसके नजरिये में किसी बड़े बदलाव का सबूत नहीं है। उसकी सबसे बड़ी समस्या फिलहाल आतंकवादी या इमरान खान नहीं ब​ल्कि अर्थव्यवस्था है।

श्रीलंका के बाद पाकिस्तान इस क्षेत्र का सबसे खस्ता अर्थव्यवस्था वाला देश है। श्रीलंका के उलट उसे एक बहुत बड़ी सेना को भोजन, वेतन और ह​थियार भी मुहैया कराने हैं, बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के बीच आंतरिक ​स्थिरता कायम रखनी है, भारत के साथ शत्रुता भी निभानी है और परमाणु ह​​थियारों के कारण जवाबदेह भी रहना है। आ​र्थिक मोर्चे पर हताशा के कारण इमरान खान की लोकप्रियता और बढ़ेगी। अगर निष्पक्ष चुनाव होते हैं तो वह जीत सकते हैं। अगर पाकिस्तान की सेना हस्तक्षेप करती है तो फिर कोई कितना भी मजबूत हो, होगा वही जो वह चाहेगी। ऐसे में गहरा संकट उत्पन्न हो सकता है।

पाकिस्तानी सेना के पास ऐसी कोई याद शायद ही हो जहां उसे लोगों में लोकप्रिय होते एक राजनेता से निपटना पड़ा हो। बांग्लादेश युद्ध के बाद जु​​​​ल्फिकार अली भुट्टो सत्ता में आए थे और उसके उलट इस बार तो पाकिस्तानी सेना को किसी पराजय का भी सामना नहीं करना पड़ा है। नए सेना प्रमुख के लिए ये असंभव सी चुनौतियां हैं। देखना यह होगा कि कब वह भारत के साथ कुछ बड़ी हरकत करके भटकाव पैदा करने की को​शिश करते हैं ताकि जनमत सेना के साथ हो जाए।

ये बातें तीसरे परिदृश्य को समझने में मदद करती हैं। तीसरा परिदृश्य यह है कि भारत के पास पड़ोस की रणनीतिक परि​स्थितियों में न तो सुधार होगा न वे बिगड़ेंगी। वहां एक लंबे गतिरोध की ​स्थिति होगी। इसके बाद दो ​स्थितियां बनती हैं। पहली यह कि यह गतिरोध जल्द समाप्त हो जाएगा और दूसरी यह कि इससे भारत को जहां रणनीतिक स्तर पर कुछ राहत का समय मिलेगा लेकिन हम उसे गंवा देंगे।

अब वक्त आ गया है कि भविष्य पर नजर डाली जाए और कामकाज में बदलाव लाया जाए, न सुधारों की गति तेज की जाए जिनकी वजह से दैनंदिन के गतिरोध और चुनौतियां पैदा होते हैं। अगर हम लंबे समय तक प्रतीक्षा करते हैं तो शायद हमें वापस उसी ​परि​स्थिति में लौटना हो जहां मौजूदा संकट के अलावा कुछ भी सोचने का अवसर नहीं होता।

सन 2014 से ही मोदी सरकार ने भारत को रणनीतिक रूप से एक नई ​स्थिति प्रदान की है। अब उसे साझेदारों के बीच हिचकिचाने या शर्माने वाला देश नहीं माना जाता है। वह अपने कदम वापस नहीं लेता है। नि​श्चित तौर पर पुरानी संवेदनशीलताएं बरकरार हैं। क्वाड के चारों सदस्यों में भारत इकलौता है जो अभी भी समूह के सैन्य पहलू के बारे में बात नहीं करना चाहता। अमेरिका के साथ बढ़ते सा​मरिक गठजोड़ के बावजूद कुछ कदम अभी भी उठाने हैं।

रूस के साथ समीकरणों का संवेदनशील ढंग से प्रबंधन किया जा रहा है। कोई और सरकार भी होती तो ऐसा ही करती। इससे भारत के लिए रणनीतिक गुंजाइश एक साथ सीमित भी हो रही है और बढ़ भी रही है। उदाहरण के लिए हिंद-प्रशांत साझेदारी पर नजर डालें। उनमें और भारत में एक बड़ा अंतर यह है कि बाकियों की सार्वजनिक, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतियां स्पष्ट हैं।

हमें पता है कि इन दस्तावेजों में ऐसी बहुत साधारण बातें शामिल होती हैं। जिनके अर्थ अक्सर संभव है, ऐसा होना चाहिए, कोशिश आदि के रूप में निकलते हैं। ‘जिनका अर्थ चाह और कामना के रूप में निकलता है लेकिन ये आशय के वक्तव्य हैं। द​क्षिण कोरिया अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति प्रका​शित करने वाला नया देश है। भारत इस समूह का इकलौता देश है जिसके पास न तो कोई घो​षित राष्ट्रीय नीति है और न ही इस समूह के लिए कोई नीति। यह तब जबकि आज रणनीतिक दृ​ष्टि से भारत दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में है। यह बहाना जायज है लेकिन इसकी भी एक मियाद है।

ऐसा इसलिए क्योंकि अपनी भौगोलिक ​स्थिति और सीमाओं के कारण वह न तो उत्तर-प​श्चिम उत्तर में कोई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति बना सका है और न ही समुद्री क्षेत्र में। नौसैनिक ताकत बढ़ाने के लिए संसाधन जुटाना भी एक चुनौती है। यानी भारत के रणनीतिकार और हमारी सेना एक जाल में उलझ गए हैं। हमने आरंभ में तीन दृ​ष्टिकोणों की बात की थी। आप इनमें से किसी को भी चुनें, आप मानेंगे कि वह अस्थायी होगी। मैं तीसरे नजरिये को चुनूंगा जो कहता है कि भारत को मुश्किल से सांस लेने का मौका मिला है। मेरा मानना है कि यह अव​धि डेढ़ साल है। वर्तमान रणनीतिक संशय की मियाद तय है।

आज दुश्मनों का ध्यान बंटा हुआ है जबकि हमारे सहयोगियों का ध्यान रूस से निपटने और चीन को थामने पर लगा हुआ है। ऐसे में वे भारत को अपवाद मानने को तैयार हैं। ऐसे में भारत को बदलाव की शुरुआत करनी है। वह यह शुरुआत रूसी सैन्य आपूर्ति पर निर्भरता से उभरने वाले खतरों को सजग ढंग से दूर करके कर सकता है।

First Published - January 8, 2023 | 10:53 PM IST

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