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दुनिया में भारत की अहमियत न हो अति विश्वास का शिकार

एक देश के रूप में भारत और यहां के लोगों में अपार संभावनाएं हैं। बता रहे हैं मिहिर शर्मा

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मिहिर एस शर्मा
Last Updated- December 30, 2022 | 11:24 PM IST

पिछले कई दशकों से भारत बाहरी दुनिया के साथ अपने संबंधों को एक खास विश्वास के साथ निर्धारित करता रहा है। देश में हमेशा से एक सोच रही है कि वह एक महानतम देश बनने की स्थिति के करीब पहुंच गया है। मगर वर्तमान परिदृश्य में हमारे पास चिंतित होने के पर्याप्त कारण हैं। हमारा विश्वास अब कमजोर होने लगा है। मैं यहां केवल सरकार के बारे में बात कर रहा हूं। राजनीतिक दृष्टि से किसी सरकार को अपने नागरिकों की मांग अवश्य परिलक्षित करनी चाहिए।

भारतीय मतदाताओं को यह विश्वास दिलाया गया है कि दुनिया में उनका देश एक अग्रणी भूमिका निभाएगा। पिछली सरकारों की तुलना में वर्तमान सरकार के लिए यह बात काफी हद तक लागू होती है। राजनीतिक महकमे में कोई भी वैश्विक संरचना में भारत की भूमिका को लेकर कम आश्वस्त नहीं दिखना चाहता है। यह धारणा केवल राजनीतिज्ञों एवं अधिकारियों तक ही सीमित नहीं है बल्कि निजी क्षेत्र भी यह सोचने लगा है कि दुनिया में भारत का रसूख पहले की तुलना में काफी बढ़ गया है।

क्या दुनिया में भारत की अहमियत वाकई बढ़ गई है और इसके बिना कोई काम नहीं हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें तीन संदर्भों पर विचार करना चाहिए। पहला है निवेश के लिहाज से माकूल स्थान, दूसरा वैश्विक कंपनियों के लिए बड़े बाजार और तीसरा भू-आर्थिक एवं भू-राजनीतिक साझेदार के रूम में। पहली नजर में निवेश के लिहाज से एक अहम बाजार के रूप में भारत का प्रदर्शन संतोषजनक लग रहा है। वित्त वर्ष 2021-22 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) बढ़कर 85 अरब डॉलर के अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। मगर सवाल है कि क्या यह आंकड़ा काफी है?

शायद नहीं। एफडीआई के बल पर जो देश अब आर्थिक शक्ति बन गए हैं उनकी तुलना में तो भारत के आंकड़े पर्याप्त नहीं लग रहे हैं। अगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखें तो यह आंकड़ा किसी दृष्टिकोण से प्रभावित करने वाला नहीं दिख रहा है। वर्ष 2010 से एफडीआई जीडीपी के 1.5 से 2.5 प्रतिशत के बीच रहा है। इसकी तुलना में 1990 से 2000 के दौरान चीन में एफडीआई उसके जीडीपी का 4 से 6 प्रतिशत के बीच हुआ करता था। एक व्यापारिक शक्ति के रूप में जगह बनाने के लिए किसी भी देश में एफडीआई का अहम योगदान होता है। 2000 के मध्य तक चीन की सरकार का अनुमान था कि देश के व्यापार में आधा से अधिक योगदान उन कंपनियों का था, जो पूरी तरह विदेशी निवेश पर निर्भर थे।

एफडीआई का मौजूदा आंकड़ा नाकाफी है और भारत को इस दिशा में और प्रयास करने की जरूरत है। क्या हम यह सोच कर संतुष्ट हो सकते हैं कि ऐपल जैसी बड़ी कंपनियों के लिए भारत चीन का विकल्प हो सकता है और इससे वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था में बड़ा बदलाव हो सकता है? मुझे नहीं लगता कि संतुष्ट हुआ जा सकता है। कई व्यापारिक समूहों का हिस्सा बन चुके चीन जैसे देश व्यापारिक संपर्क के मामले में बेहतर स्थिति में है।

आने वाले देशों में भौतिक एवं पूंजीगत लाभ और अन्य व्यापक संभावनाएं दूसरे देशों में अधिक आशा जगाने वाली हो सकती हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बुनियादी ढांचा भारत की तुलना में अच्छी स्थिति में हैं। पूर्वी अफ्रीका में श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी आधी है, जबकि भारत में यह अनुपात केवल एक चौथाई है। यूरोप सहित कई अन्य देशों में वहां के पूंजीपतियों के समक्ष आने वाले वर्षों में अब कई आकर्षक विकल्प आएंगे। ये विकल्प काफी उत्पादक होंगे और इनमें निवेश से जुड़े जोखिम भी काफी कम होंगे। इन देशों में ये सरकार की नीतियों मे बदलाव, ढांचागत क्षेत्र पर अधिक जोर और हरित ऊर्जा की तरफ तेजी से बढ़ते कदम के परिणाम होंगे।

ये सभी कारक भारत में एफडीआई का प्रवाह कम कर सकते हैं और कमजोर पक्ष यह है कि भारत के पास फिलहाल इनकी कोई काट भी नहीं है। हम यह सोचने के आदी रहे हैं कि दुनिया में केवल भारत ही निवेश के लिहाज से सबसे अधिक आकर्षक स्थान है, मगर यह सच्चाई यह नहीं है। हालांकि इन सब के बावजूद भी निजी क्षेत्र की इकाइयां भारतीय बाजार के आकार और भविष्य की संभावनाओं के मद्देनजर जरूर दिलचस्पी दिखाएंगी।

भारतीय बाजार के आंकड़ों को देखते हुए यह जरूर कहा जा सकता है कि अगर कंपनियां भविष्य में अपनी संभावनाएं खोना नहीं चाहती हैं तो उन्हें भारत को लेकर अवश्य ही एक रणनीति तैयार रखनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप हम तकनीकी से लेकर सेवा क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों के साथ पक्षपात करते हैं। हम इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों पर स्थानीय कंपनियों के साथ साझेदारी करने का दबाव डालते हैं, उनकी बौद्धिक संपदा साझा करते हैं, वैश्वित स्तर पर मध्यस्थता में भाग लेने से इनकार करते हैं या गोपनीय तरीके से भेदभाव नियम स्वीकार करते हैं। इन बातों को उचित तो नहीं ठहराया जा सकता है। हम निवेश के एक आकर्षक गंतव्य को लेकर भले ही जरूरत से ज्यादा उत्साहित हो जाएं मगर विदेशी कंपनियों को लेकर अपनाया जा रहा व्यवहार कहीं से उचित नहीं है।

कंपनियां अपने निवेश पर एक तार्किक प्रतिफल अर्जित करना चाहती हैं मगर उन्हें अपने निवेश पर बड़ा नुकसान होने की आशंका सताती रहती है। भारत में एमेजॉन का उदाहरण गौर करने वाला है। उसने शोध समूह बर्नस्टीन की एक रिपोर्ट के अनुसार अपने भारतीय कारोबार में अब तक 6.5 अरब डॉलर का निवेश किया है, मगर कंपनी मुनाफा अर्जित नहीं कर पाई है। भारत के मध्यम वर्ग के आकार के बारे में कुछ भी कहना सदैव से मुश्किल रहा है। 10 से 20 वर्ष पहले भारतीय कंपनियों ने मध्यम वर्ग को लेकर जो भी अनुमान लगाए थे उनका 2022 की वास्तविक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं होगा।

एक निश्चित सीमा के बाद भारत को सभी लोगों को संपन्न बनाना होगा और भविष्य के एक मजबूत बाजार के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करने से काम नहीं चलेगा। सरकार से सब्सिडी पाने वाले क्षेत्र जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स एवं मोबाइल हैंडसेट विनिर्माण में वैश्विक कंपनियों की रुचि लगातार बनी रहेगी मगर इतना तो तय है कि कारोबार के समान अवसर और बुनियादी प्रशासनिक सुधारों एवं न्यायिक सुधारों के अभाव में अन्य क्षेत्रों की हालत बेहतर नहीं हो पाएगी। सीमेंट क्षेत्र ऐसा ही एक उदाहरण है। ​स्विटजरलैंड की कंपनी होल्सिम ने भारत में अपना कारोबार समेट लिया। रक्षा क्षेत्र दूसरा उदाहरण है। विदेशी कंपनियों को लगातार यह कहा जा रहा है कि उन्हें न केवल अपनी आपूर्ति व्यवस्था यहां स्थानांतरित करनी होगी बल्कि अपना बौद्धिक संपदा अधिकार भी साझा करने के लिए तैयार रहना होगा।

इन बातों के बावजूद भारत निवेश के एक आकर्षक केंद्र के रूप में प्रदर्शन नहीं कर पाता है तब भी क्या इसे दूसरे देशों की सरकारों से तरजीह मिलती रहेगी? दुनिया में चीन के मजबूत विकल्प या एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत स्वयं को एक ऐसे देश में देखता है जिसकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता है। जमीनी स्तर पर बिना कोई खास उपलब्धि अर्जित किए बिना हम स्वयं को विभिन्न महकमों में अपने आप को एक अहम साझेदार के रूप में देखते हैं। इसके उलट ताइवान पर मंडराते चीन के खतरे के बीच भारत स्वयं चीन के साथ सीमा पर विवाद शांत करने में उलझा हुआ है। भारत की सेना के आधुनिकीकरण का भी पूरा नहीं हो पाया है।

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध में भारत दोनों पक्षों के साथ झूलता नजर आ रहा है। इस बीच, दुनिया में एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में भारत की छवि राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण कमजोर हुई है। देश में उदार राजनीतिक विचारधारा भी कमजोर हुई है। जापान और जर्मनी अपनी पुरानी पहचान छोड़कर अस्थिर विश्व में सुरक्षा सुनिश्चित करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने में लगे हुए है। मगर भारत ने इस ओर कोई खास पहल नहीं की है। भारत को भी करना चाहिए मगर रणनीतिक योजनाकार भारत का लंबे समय तक इंतजार नहीं कर सकते हैं। एक देश के रूप में भारत और यहां के लोगों में अपार संभावनाएं हैं। यहां के लोग निश्चित तौर पर अपनी क्षमताओं को वास्तविकता में बदलते जरूर देखना चाहेंगे।
                                                                                                                                                                  (लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में इकॉनमी ऐंड ग्रोथ प्रोग्राम के लेखक हैं)

First Published : December 30, 2022 | 10:37 PM IST