हाल में आई आर्थिक समीक्षा में सुझाव है कि विनिर्माण को गति देने, निर्यात बढ़ाने, चीन से आयात कम करने तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखला में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत को चीन से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का स्वागत करना चाहिए। मान लीजिए कि भारत ऐसा निवेश आने देता है तो क्या विनिर्माण, निर्यात, आयात और मूल्य श्रृंखला को वास्तव में लाभ होगा?
विनिर्माण: पहले काल्पनिक किरदार श्रीमान यांग के सहारे विनिर्माण में चीन के निवेश का असर समझते हैं। मान लेते हैं कि यांग सोलर मॉड्यूल बनाने वाली एक बड़ी चीनी कंपनी के सीईओ हैं। यांग भारत में सोलर मॉड्यूल बनाना चाहते हैं और उत्पादन के हर चरण पर चीन और भारत में आ रही लागत की तुलना करते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया क्वार्ट्ज खनिज हासिल करने और उसे प्रोसेस करके अत्यधिक शुद्धता वाली पॉलिसिलिकन सिल्लियां बनाने से शुरू होती है। सिल्लियों को बाद में पॉलिसिलिकन वेफर्स में बदला जाता है। वेफर्स को रासायनिक प्रक्रिया और लेसर से गुजारा जाता है और चांदी का इस्तेमाल कर सोलर सेल बनाई जाती हैं।
इन्हीं सोलर सेल को असेंबल कर अंत में सोलर मॉड्यूल बना दिया जाता है। यांग का विश्लेषण दर्शाता है कि भारत में क्वार्ट्ज खनिज जैसे कच्चे माल से उत्पादन करना चीन में उत्पादन की तुलना में करीब 40 फीसदी महंगा पड़ेगा। आयातित पॉलिसिलिकन वेफर्स का उपयोग करने पर यह अंतर घटकर 25 फीसदी रह जाता है और चीन से आयातित सोलर सेल इस्तेमाल करने पर केवल 3 फीसदी हो जाता है।
भारत में दिलचस्पी के बावजूद यांग देखते हैं कि कच्चे माल की मदद से सोलर मॉड्यूल तैयार करना महंगा पड़ता है। अगर भारत रियायती कीमत पर जमीने देने और पूंजी मुहैया कराने जैसी मदद करे तो वह वेफर वाले चरण से शुरू करना चाहेंगे। अन्यथा वह दूसरी कंपनियों की तरह सोलर सेल आयात कर सोलर मॉड्यूल बना सकते हैं। यह भारत के स्मार्टफोन क्षेत्र जैसा ही है जो आयातित सब असेंबली पर निर्भर है। इलेक्ट्रिक वाहनों का बैटरी उद्योग भी ऐसा ही है जो आयातित लीथियम सेल पर निर्भर है। दोनों मामलों में ज्यादातर विनिर्माण विदेश में हो रहा है और 85 फीसदी से अधिक घटक आयात किए जा रहे हैं।
भारत और चीन के बीच लागत में भारी अंतर इसलिए भी है क्योंकि हमारे यहां कच्चे माल की उत्पादन लागत अधिक है और चीन अपनी कंपनियों को सब्सिडी देता है। उदाहरण के लिए भारत में कारोबार के लिए पूंजी की लागत 9-10 फीसदी है जबकि चीन में 4-5 फीसदी। औद्योगिक बिजली भारत में 0.08 से 0.10 डॉलर प्रति किलोवॉट पड़ती है जबकि चीन में यह 0.06 से 0.08 डॉलर प्रति किलोवॉट रहती है।
भारत हमेशा से कपड़ा और वस्त्र, चमड़ा तथा जूते-चप्पल में मजबूत रहा है और इनमें आम तौर पर स्थानीय कच्चे माल का ही इस्तेमाल किया जाता है। किंतु बढ़ती उत्पादन लागत और पेचीदा नियमों के कारण हम बांग्लादेश और वियतनाम से पिछड़ रहे हैं। भारत में कच्चे माल से कई चीजों का निर्माण भी काम का नहीं रहा क्योंकि चीन की सरकार वहां होने वाले उत्पादन को बहुत मदद देती है।
उदाहरण के लिए चीन की सोलर कंपनियों को नि:शुल्क जमीन, बिजली, बिना ब्याज का ऋण और उत्पादन लागत के 35 से 65 फीसदी के बराबर सब्सिडी मिलती है। भारत में कंपनियों को वैसी मदद नहीं मिलती, इसलिए यहां उत्पादन महंगा पड़ता है। उत्पादन लागत में कमी किए बगैर और नियमों को सहज किए बगैर चीन समेत विदेशी निवेश से होने वाला निर्माण सतही होगा जो आयात पर निर्भर होगा।
निर्यात: 2024 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि मेक्सिको, वियतनाम, ताइवान और कोरिया की रणनीति पर चलते हुए चीन का एफडीआई विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत करेगा और अमेरिका तथा यूरोप को निर्यात बढ़ाएगा। परंतु यह आसान नहीं होगा।
इस वर्ष जून में अमेरिका ने कंबोडिया, मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम में बनने वाले चीनी कंपनियों के सोलर पैनल पर 250 फीसदी तक आयात शुल्क लगा दिया। मार्च में डॉनल्ड ट्रंप ने संकेत दिया कि वह चीन के वाहन उद्योग को निशाना बनाएंगे जो मेक्सिको के रास्ते अमेरिका को कार निर्यात करना चाहता है। भारत के लिए स्थिति अलग क्यों होगी?
आयात: विचार यह है कि चीन अपने उत्पाद भारत में बनाता है तो चीन से हमारा आयात कम हो जाएगा। यह मुश्किल नजर आता है क्योंकि भारत का 30 फीसदी औद्योगिक आयात चीन से होता है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार, मशीनरी, रसायन, प्लास्टिक और वाहन शामिल हैं। मोबाइल और स्मार्टफोन जैसे क्षेत्रों में देश में उत्पादन बढ़ाने के बाद भी चीन से भारत का आयात बढ़ा है।
खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक्स पुर्जों, सोलर पैनल और इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) की बैटरी के मामले में निर्भरता अधिक है। चीन जिन क्षेत्रों में भारत में उत्पादन शुरू करेगा, उनमें आयात घट सकता है मगर दूसरे हजारों उत्पादों का आयात बढ़ सकता है। चीन की कंपनियों द्वारा भारत में बनाए जा रहे सामान में भी आयात बढ़ सकता है क्योंकि लागत कम रखने के लिए ये कंपनियां कच्चा माल अपने देश से मंगाना पसंद करेंगी।
वैश्विक मूल्य श्रृंखला: आसियान, जापान और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते होने और एक दशक से भी अधिक समय से पूरे क्षेत्र में 90 फीसदी से अधिक औद्योगिक उत्पादों के व्यापार पर शुल्क शून्य करने के बाद भी भारत वैश्विक मूल्य श्रृंखला का अहम हिस्सा नहीं बन पाया। इसमें सुधार के लिए भारत को कारोबार की लागत कम करनी होगी और बंदरगाहों पर तथा सीमा शुल्क विभाग से मंजूरी तेज करनी होगी।
पड़ोसियों के अनुभव: कई आसियान देशों का चीन से आयात बढ़ रहा है और अपने यहां चीनी कंपनियों की मौजूदगी के प्रतिकूल असर भी उन्हें झेलने पड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए जब चीन की ईवी कंपनियों ने थाईलैंड में उत्पादन आरंभ किया तो स्थानीय वाहन कलपुर्जों की मांग 40 फीसदी तक कम हो गई और वहां के कई पुर्जा निर्माताओं को काम समेटना पड़ा। भारत में भी हालात इससे अलग नहीं होंगे क्योंकि हमारी ईवी नीति भी वैसी ही है।
भूराजनीतिक रणनीति में बदलाव: हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे और अमेरिका तथा अन्य साझेदारों के साथ आपूर्ति श्रृंखला मजबूत करने के कार्यक्रम में भारत की हिस्सेदारी का मकसद चीन की आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भरता कम करना है। चीन से एफडीआई पर जोर चीन के बाहर विनिर्माण ठिकाने बनाने के इन प्रयासों को नुकसान पहुंचाएगा।
एफडीआई विनिर्माण में मददगार नहीं साबित हुआ है। वित्त वर्ष 24 में केवल 41 अरब डॉलर का नया एफडीआई आया, दो सकल घरेलू उत्पाद के 1 फीसदी से भी कम रहा। मार्च 2000 से 20 फीसदी से भी कम एफडीआई विनिर्माण में गया और ज्यादातर असेंबलिंग के काम में चला गया।
इससे पता चलता है कि लागत अधिक होने और नियम-कायदे पेचीदा होने की वजह से भारत के विनिर्माण क्षेत्र में विदेशी निवेश कभी पूरी रफ्तार से नहीं आया। सुरक्षा के पहलू की अनदेखी कर चीन से एफडीआई आने भी दें तो हालात नहीं बदलेंगे, जबकि महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने में सबसे अहम पैमाना सुरक्षा ही होती है।
हमें पहले चरण से लेकर बंदरगाह पर सामान की रवानगी तक हर चरण पर कारोबारी लागत कम करनी होगी और बुनियादी ढांचे तथा कारोबारी सुगमता में सुधार करना होगा। इन बदलावों के बिना विदेशी निवेश सीमित रहेगा और उससे गहन विनिर्माण के बजाय केवल असेंबलिंग का काम होगा, जिससे अहम चीजों के लिए चीन पर हमारी निर्भरता बढ़ेगी।
इतना ही नहीं, जो निवेश आएगा वह चीनी वस्तुओं के व्यापार को बढ़ावा देगा और भारत में चीनी ब्रांडों की पैठ बढ़ाएगा। सबसे बढ़कर भारत को चीन के संबंध में स्पष्ट और स्थिर नीति की आवश्यकता है, जो उसके साथ सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और व्यापार के मसलों पर मध्यम से लंबी अवधि की नीति तैयार करे। (लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं)