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नवाचार पर वैश्विक जुनून से कदम मिला सकेगा भारत?

भारत में बड़ी टेक कंपनियों और बड़ी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी नवाचार से जुड़ी बड़ी खबरों या सुर्खियों में भारत का नाम आगे क्यों नहीं दिखता है?

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अजित बालकृष्णन   
Last Updated- October 11, 2024 | 9:26 PM IST

जब पूरी दुनिया नवाचार के क्षेत्र में झंडे गाड़ने के प्रयास में जुटी है तब प्रतिभाओं से भरा भारत इसमें क्यों पिछड़ रहा है और होड़ में आने के लिए उसे क्या करना चाहिए, बता रहे हैं अजित बालकृष्णन

किसी भी शैक्षिक पत्रिका के पन्ने पलटिए, किसी ऑनलाइन समाचार वेबसाइट या अखबार में प्रकाशित लेख पढ़े अथवा किसी समाचार के शीर्षक पर नजर डालें तो आप देखेंगे कि कि तमाम व्यवसाय अपने एकदम नए और अनूठे उत्पाद या सेवाएं शुरू होने का दावा कर रहे हैं अथवा सरकारें नवाचार से जुड़े निवेश या कानून की घोषणा कर रही हैं। आपको अचरज होने लगता है कि नवाचार के लिए यह कैसा पागलपन, कैसा जुनून है!

जब मैंने अपने कारोबारी मित्रों से पूछा तो उन्होंने तुरंत कहा कि नवाचार उनके उत्पादों और सेवाओं को प्रतिस्पर्द्धियों के उत्पादों और सेवाओं से अलग बनाने के लिए जरूरी है। जब मैंने राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माण से जुड़े अपने मित्रों से बात की तो उन्होंने कहा कि नवाचार ऐसे उद्योग तैयार करने के लिए जरूरी है, जो आर्थिक वृद्धि को गति देते हैं और इस प्रकार रोजगार एवं सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में इजाफा करते हैं।

‘जीडीपी’ शब्द की बात करें तो हमारे कॉलेज के दिनों में हम सब यही मानते थे कि यह शब्द केवल शिक्षाविदों के काम का है। लेकिन आज की दुनिया में यह पेशेवर जगत से दूर बैठे लोगों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण नजर आ रहा है, जितना भारत का एकदिवसीय क्रिकेट विश्व कप जीतना या किसी भारतीय युवती का मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता जीतना।

इसके बाद हम अमेरिका की गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के बारे में पढ़ते हैं जो नवाचार और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) जैसे उन क्षेत्रों में दबदबा रखती हैं, जिनकी आजकल जमकर चर्चा हो रही है। फिर हम सुनते हैं कि नवाचार के मैदान की इन महारथी कंपनियों की कमान भारतीयों के हाथ में है: गूगल का नेतृत्व सुंदर पिचाई कर रहे हैं तो माइक्रोसॉफ्ट को सत्य नडेला चला रहे हैं, आईबीएम की कमान अरविंद कृष्ण के हाथ में है और शायद आपको यकीन नहीं हो मगर अमेरिका में व्हाइट हाउस की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति समिति की बागडोर भी आरती प्रभाकर संभाल रही हैं!

यह सूची बहुत लंबी है। भारत में बड़ी टेक कंपनियों और बड़ी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी नवाचार से जुड़ी बड़ी खबरों या सुर्खियों में भारत का नाम आगे क्यों नहीं दिखता है? इससे भी अधिक हैरान करने वाली बात यह है कि अमेरिका की इन सभी कंपनियों की अगुआई कर रहे भारतीय और भारतीय टेक कंपनियों तथा प्रयोगशालाओं की बागडोर संभाल रहे भारतीय, एक ऐसी व्यवस्था से निकले हैं, जिस पर हम सभी को गर्व है: योग्यता या मेरिट पर चलने वाली भारत की शिक्षा व्यवस्था।

वह शिक्षा व्यवस्था, जो सुनिश्चित करती है कि विज्ञान हो, इंजीनियरिंग हो, प्रबंधन हो या सामाजिक विज्ञान हो, सभी क्षेत्रों में बेहतरीन कॉलेज या संस्थान में दाखिला प्रवेश परीक्षा की प्रणाली के जरिये होगा, पारिवारिक संपर्क, विरासत या भारी भरकम धन के बल पर नहीं।

इन सभी के साथ यह खबर भी अक्सर पढ़ने या सुनने को मिल जाती है कि योग्यता पर बहुत अधिक चलने वाली इस व्यवस्था के कारण छात्रों और प्रवेशार्थियों की ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जो प्रवेश परीक्षाओं में रटकर (कोटा जैसे कोचिंग सेंटरों के जरिये) पास होने में माहिर हो गई है। यही वजह है कि उसके भीतर मौलिक सोच की क्षमता ही नहीं रह गई, जो नवाचार के लिए जरूरी है।

शायद हम अन्य देशों विशेषकर उन देशों से सीख सकते हैं, जो नवाचार में आगे हैं और इसके लिए अमेरिका से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है। हम सभी जानते हैं कि आज के दौर में कारोबारी दुनिया में अमेरिका की नवाचारी कंपनियां हावी हैं और गूगल तथा माइक्रोसॉफ्ट इसकी उदाहरण हैं। शिक्षा जगत में भी स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय और मैसाचुसेट्‌स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी जैसे नवाचारी अमेरिकी संस्थान अग्रणी हैं। आखिर वह कौन सी बात है जो हमारे समय में अमेरिका को नवाचार में अग्रणी बनाती है?

आप सोच भी नहीं सकते मगर इसका जवाब एक सरकारी संस्थान है जिसका नाम है- डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एडमिनिस्ट्रेशन (डारपा)। इस संस्थान ने तकनीकी चुनौतियों को परिभाषित किया और गूगल के मूल सर्च अलगोरिदम को तैयार करने तथा चलाने वाले अल्गोरिदम के लिए जरूरी धन भी दिया।

डारपा से मिली वित्तीय मदद के बल पर ही इंटेल, एनवीडिया, क्वालकॉम, सिस्को के साथ-साथ रेथियॉन, बोइंग और तमाम दूसरी कंपनियां अस्तित्व में आईं और अपने-अपने क्षेत्रों में दबदबा बना पाईं। हाल ही में एमेजॉन की क्लाउड कंप्यूटिंग परियोजना को डारपा से मिली 60 करोड़ डॉलर की मदद चर्चा में रही। संयोग से वामपंथी विचार वाले मेरे कई अमेरिकी मित्र कहते हैं कि अमेरिका को हर समय जंग इसीलिए चाहिए ताकि इस तरह की वित्तीय मदद जारी रखी जा सके। खैर, वह अलग किस्सा है।

प्रिय पाठकों जो बात मुझे चिंतित करती है और शायद आपको भी करती होगी, वह भारत में भी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) जैसे बड़े संस्थानों की मौजूदगी एवं प्रदर्शन है। पिछले साल डीआरडीओ को ही 2.8 अरब डॉलर यानी करीब 23,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। उसके पास 52 से अधिक प्रयोगशालाएं हैं, जो देश भर में फैली हैं और इस संस्थान में 7,000 से ज्यादा वैज्ञानिक काम करते हैं। इसके बावजूद भारत के पास गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और एमेजॉन जैसी दुनिया भर में अग्रणी तकनीकी कंपनियां क्यों
नहीं हैं?

जब मैंने यही सवाल अपने मित्रों और परिचितों से किया तो सबसे सटीक जवाब उस मित्र से मिला, जो देश के ‘कारोबारी समुदायों’ में से एक का सदस्य है। उसने कहा, ‘भारत में नवाचार या कुछ अलग और नया करने का कोई फायदा ही नहीं होता।’ मैंने भी तत्काल दूसरा सवाल दाग दिया, ‘ऐसा क्यों है?’ जवाब में मित्र ने कहा कि भारतीय कंपनियां निजी हों या सरकारी हों, उन्हें लगता है कि नए और अनूठे उत्पाद या नई सेवा को अपनाने में बहुत अधिक जोखिम है।

एक अन्य मित्र ने कहा कि भारत में शोध के लिए मिलने वाली रकम में बड़ा हिस्सा सरकार से आता है, जो खास तौर पर रक्षा, अंतरिक्ष एवं ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में चला जाता है। इससे निजी क्षेत्र में भी ब्यूरोक्रेसी जैसी दिक्कतें और सुस्ती आ सकती है तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने में भी धीमापन दिख सकता है। इतना ही नहीं बड़ी भारतीय कंपनियां अक्सर अधिक जोखिम भरे मगर अधिक फल देने वाले नवाचार के बजाय कम जोखिम वाले सेवा पर आधारित मॉडल को तरजीह देती हैं।

और अंत में, भारत बेहद ऊंचे कौशल वाले कई इंजीनियर तथा तकनीकी ग्रेजुएट तैयार करता है किंतु उनमें से ज्यादातर अमेरिका जैसे देशों में चले जाते हैं, जहां उन्हें तकनीक में नवाचार के अधिक मौके मिलते हैं। जो वहां नहीं जाते, वे देश के ही भीतर सेवा क्षेत्र में खप जाते हैं। भारत की शिक्षा व्यवस्था भी समस्या के रचनात्मक समाधान पर सोचने के बजाय रटने पर जोर देती है। जाहिर है कि भारत को तकनीक के मामले में अधिक नवाचारी देश बनाना हमारे ही हाथों में है!

First Published : October 11, 2024 | 9:21 PM IST