डॉनल्ड ट्रंप की शुल्क संबंधी धमकियों से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय की राह उपयुक्त होती। परंतु दुनिया ने ऐसा नहीं किया और यूरोपीय संघ, जापान और अन्य देशों ने उसके साथ ऐसे समझौतों पर हस्ताक्षर किए जो अमेरिका के लिए अधिक फायदेमंद थीं, उनके लिए कम। हमारे देश की बातचीत अब तक बेनतीजा रही है।
अमेरिका ने जिन देशों पर सर्वाधिक शुल्क लगाया है उनमें भारत भी शामिल है। ट्रंप ने शुल्क वृद्धि के साथ-साथ हमें अपमानित करने वाली बातें भी कहीं हैं। मसलन भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम करने की बात या भारतीय अर्थव्यवस्था को एक मृत अर्थव्यवस्था बताना। ऐसे में प्रश्न यह है कि हम कहां हैं और हमारे समक्ष क्या विकल्प हैं?
इसी समाचार पत्र में प्रकाशित टीएन नाइनन के बेहतरीन आलेख से मुझे दो बातों की याद आई। पहली बात तो यह कि मैं सप्ताहांत पर प्रकाशित होते रहे (अब बंद) उनके स्तंभ को कितनी शिद्दत से याद करता हूं और दूसरा हम जापान से कितना कुछ सीख सकते हैं जिसने 19वीं सदी के मध्य में अमेरिकी दबंगई के जवाब में खुद को चमत्कारिक रूप से बदला और एक औद्योगिक अर्थव्यवस्था बन गया। मेरे प्रमुख स्रोत हैं समाजशास्त्री रोनाल्ड डोर जिन्होंने जापानी संस्कृति और आर्थिक सफलता पर काफी कुछ लिखा है।
विनम्रता और महत्त्वाकांक्षा: नाइनन हमें याद दिलाते हैं कि हमें आर्थिक जंग जीतनी है न कि ट्रंप से कोई बहस जीतनी है। यानी हमें अपमान को विनम्रतापूर्वक नजरअंदाज करते हुए अंतिम परिणाम पर नजर रखनी है। ‘पेरी घटनाक्रम’ (वर्ष1853 में) से अमेरिका ने जापान पर दबाव बनाकर उसे अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने पर विवश किया और उससे कुछ रियायतें हासिल की थीं। इन असमान समझौतों में अपनी ही शुल्क दरें तय करने का अधिकार गंवाना और विदेशियों के निवास वाले इलाकों में पश्चिमी कानूनों को लागू होने देना शामिल था। जापानियों ने इसका उत्तर कुछ महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों के साथ दिया:
डोर बताते हैं कि इन महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को सभी जापानियों के साझा लक्ष्यों के रूप में प्रस्तुत किया गया था और इन्हें हासिल करने में राष्ट्रवाद की भावना का जमकर इस्तेमाल किया गया। राष्ट्रवाद अक्सर खराब ढंग से समाप्त होता है। न केवल किसी देश के लिए बल्कि उसके पड़ोसियों के लिए भी। यहां खराब से तात्पर्य युद्ध और पेशेगत पराजय से है। चीन के लिए 1895 में, कोरिया के लिए 1905 में और जापान के लिए ऐसा 1945 में दो परमाणु बम विस्फोटों के बाद हुआ।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई सकारात्मक चीजें हुईं। आर्थिक वृद्धि राष्ट्रीय आकांक्षा बन गई। जापान के दैनिक अखबारों ने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वृद्धि की सारणी प्रकाशित करनी शुरू की। हर बार जब जापान प्रति व्यक्ति आय में किसी देश को पीछे छोड़ता तो यह सुर्खियों में आ जाता। इसका लक्ष्य राष्ट्रीय गौरव था न कि महज आर्थिक वृद्धि। 1950 और 1960 के दशक में जापान रिकॉर्ड गति से (दो दशकों में 9 से 10 फीसदी की तेज वृद्धि) विकसित हुआ। इसमें तकनीकी क्षमताओं की अहम भूमिका थी। 1950 से 1978 के बीच जापान दुनिया में तकनीक का सबसे बड़ा आयातक था।
डोर के मुताबिक उसने 9 अरब डॉलर की राशि तकनीक आयात करने में व्यय की। हालांकि, 1978 में अमेरिका ने शोध एवं विकास पर 60 अरब डॉलर खर्च किए थे। जापानी कंपनियों ने आंतरिक शोध पर भी खूब व्यय किया। जापानी कंपनियों ने विदेश में विस्तार किया। होंडा, सोनी, पैनासोनिक और टोयोटा दुनिया भर में पहचानी जाने लगीं। सर्वश्रेष्ठ से सीख लेने के लिए विनम्रता जरूरी है। नई तकनीक और विश्वस्तरीय कंपनियां बनाने के लिए महत्त्वाकांक्षा जरूरी है। इन दोनों का मेल बेजोड़ साबित हुआ।
विकास की आकांक्षा: डोर जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर में ‘विकसित होने की इच्छा’ की बात करते हैं। यह इच्छा पिछड़ेपन की भावना से आई जिसे दूर करने की आकांक्षा थी। अपने इतिहास में 30 वर्ष की उच्चतम वृद्धि के बाद हम प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से सबसे गरीब पांचवे देश से सबसे गरीब तीसरे देश बने। यह अच्छा सुधार है लेकिन पर्याप्त नहीं। चीन आज भारत से पांच गुना अमीर है और शोध एवं विकास में हमसे 25 गुना निवेश करता है। हमें अपनी इच्छाशक्ति और मजबूत करने की जरूरत है।
डोर कहते हैं कि पिछड़ेपन की यह भावना पूरे समाज में साझा होनी चाहिए। हम नोबेल पुरस्कार विजेताओं और वैश्विक कंपनियों का नेतृत्व करने वाले भारतीयों के नाम पर गर्व करते हैं लेकिन अगर हम इसके साथ ही यह प्रश्न करना शुरू करें कि अमर्त्य सेन, वेंकटरमन रामाकृष्णन और अभिजित बनर्जी जैसे हमारे नोबेल विजेता विदेश के उच्च शिक्षा संस्थानों में काम क्यों करते हैं तथा सत्य नाडेला और सुंदर पिचाई जैसे लोग अमेरिकी कंपनियों का ही नेतृत्व क्यों करते हैं तब आग्रह पूर्णतः सकारात्मक होगा।
लेकिन अगर हमारे महान बुद्धिजीवियों और कारोबारियों पर गर्व, खेत में काम करने वाले किसानों को अपने साथ जोड़ने की हमारी इच्छा को कम कर देता है, तो हम विकास की साझा इच्छाशक्ति को कमजोर कर देते हैं। तेज आर्थिक विकास के लिए महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने से हमारी विकास की इच्छाशक्ति को बढ़ावा मिल सकता है।राजनीतिक नेताओं और उद्योगपतियों के रूप में हमें इस पिछड़ेपन की भावना को साझा करना होगा भले ही हम इसे स्वयं में महसूस नहीं कर सकें। इससे आगे बढ़ने की साझा ललक तैयार होगी।
ऐसे में हम जहां ट्रंप के अपमान की अनदेखी कर रहे हैं वहीं हमें क्या महत्त्वाकांक्षाएं पालनी चाहिए? वर्ष 2047 तक विकसित होने का हमारा लक्ष्य एक अच्छा आर्थिक लक्ष्य है। इसके लिए हमें जापान की तरह दो दशक से अधिक समय तक 9 फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल करनी होगी। यानी मौजूदा दर से 3 फीसदी अधिक। हमारे समाचार पत्र भी ऐसी सारणी प्रकाशित कर सकते हैं कि इस दौरान हम प्रति व्यक्ति जीडीपी में किन देशों को पछाड़ते हैं। फिलहाल हम इस मामले में 136वें स्थान पर हैं।
टीएन नाइनन और साजिद चिनॉय ने इस अखबार में कई बड़े सुधारों की बात कही: नई शिक्षा नीति को लागू करना, विनिर्माण में देश के लिए अच्छी जगह बनाना, कृषि उत्पादकता की समस्याओं को हल करना, अपने शहरों में बदलाव, औद्योगिक शक्ति का कुछ घरानों तक सीमित होने पर अंकुश, कारोबारी सुगमता की लागत कम करना, वस्तु एवं सेवा कर की एकल दर, निजीकरण पर जोर और प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए शुल्क कम करना। यह एक अच्छी सूची है।
कई लोग संदेह करेंगे कि हम ऐसा कर पाएंगे या नहीं। हम चरणबद्ध सुधार जारी रख सकते हैं। यानी दो कदम आगे तो एक कदम पीछे। हम ट्रंप की धमकियों और अपमान के बदले या तो प्रतिक्रिया दें और अंतर्मुखी हो जाएं या फिर उसकी अनदेखी करें और चुनौती को अवसर में बदल लें। इसके लिए हमें पूर्ण विकसित अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य लेकर चलना होगा और इसके लिए जरूरी कदम उठाने होंगे। हम क्या करेंगे इसका चुनाव हमें करना है।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष हैं)