अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने आखिरकार अपनी धमकी के मुताबिक विश्व व्यापार में उथल पुथल मचा ही दी। उन्होंने शुल्क या टैरिफ में 10 फीसदी की एकसमान बढ़ोतरी के साथ सभी देशों पर अलग-अलग टैरिफ लगाया है। जवाब में कई देश अमेरिकी माल पर शुल्क लगा रहे हैं, जिससे दुनिया में संरक्षणवाद तथा आर्थिक धीमापन आ सकता है।
संभव है कि अमेरिका मंदी की चपेट में आ जाए और वैश्विक वृद्धि में गिरावट आए। निर्यात में कमी के कारण अधिकांश देशों को वृद्धि के अपने पूर्वानुमान कम करने होंगे। अमेरिका को निर्यात करने वाले चीन जैसे कुछ मजबूत पहले ही जवाबी कदम उठा चुके हैं। कई देश अपने व्यापार के रास्ते और साधन नए सिरे से साधेंगे, अटके समझौते पूरे करने के लिए व्यापार वार्ता तेज करेंगे। होड़ में बने रहने की अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए वे अपने यहां सुधार भी कर सकते हैं। जाहिर है कि हम देसी-विदेशी नीतिगत मोर्चे पर बहुत दखल देख सकते हैं।
भारत पर ट्रंप के कदमों का बुरा असर पड़ सकता है मगर नुकसान उतना नहीं होगा, जितना पहले सोचा जा रहा था। कुछ अनुमान बताते हैं कि इससे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को 0.3 फीसदी का नुकसान हो सकता है। यकीनन पूरा प्रभाव जवाबी कार्रवाई पूरी होने के बाद ही पता चलेगा। यह भी सही है कि हाल के वर्षों में भारत की ज्यादातर वृद्धि देसी खपत और सार्वजनिक पूंजी निर्माण का ही नतीजा है। किंतु इसकी वजह से लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
लंबे अरसे तक ऊंची वृद्धि हासिल करने वाला हर देश निर्यात पर निर्भर रहा है। विकसित भारत बनने के लिए वृद्धि तेज करनी है तो केवल देसी खपत और निवेश से काम नहीं चलेगा। हम लापरवाह इसलिए हो सकते हैं क्योंकि हमारे प्रतिद्वंद्वी देशों पर ज्यादा टैरिफ लगाया गया है और उन देशों का कुछ कारोबार भारत आ सकता है। लेकिन वैश्विक वृद्धि धीमी होगी तो हमारे निर्यात की मांग भी घटेगी। नीति निर्माताओं को इस अवसर का लाभ उठाते हुए 2017 से अपनाए जा रहे संरक्षणवादी उपायों को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके अलावा हमें ढांचागत सुधारों को गति देनी होगी ताकि देश के विनिर्माण को प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके। अभी जारी व्यापार वार्ताओं को भी तेज करने की जरूरत है।
ऐसे प्रतिकूल हालात में अमेरिका को खुश करने के लिए टैरिफ घटाने का चलन रहा है, जिससे बचना जरूरी है। उसके बजाय इस मौके का इस्तेमाल व्यापक सुधार अपनाने में करना चाहिए ताकि देश के भीतर की रुकावटें हमारी होड़ की क्षमता के आड़े न सकें। सरकार को इसे 1991 जैसा अवसर बनाना चाहिए और देसी-विदेशी नीतियों में सुधार करना चाहिए। उसे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हम 2047 तक विकसित देश बनने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं।
इस बात पर व्यापक सहमति है कि 2017 के बाद से लगातार टैरिफ बढ़ाने के सिलसिले को उलटने और व्यापार तथा निवेश में खुलापन लाने की जरूरत है। टैरिफ बढ़ाने का प्रलोभन देश में सुधार करने की हमारी नाकामी का नतीजा था। यह स्पष्ट है कि सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे और भूमि तथा श्रम बाजारों को खोलना होगा। छोटे और मझोले उपक्रमों को आकार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के इरादे से ऐसे विनिर्माण को बढ़ावा देना होगा, जहां अधिक श्रमिकों का इस्तेमाल होता है। उन्हें बेहतर तकनीक अपनाने और होड़ करने के लिए प्रेरित करना होगा। इसमें राज्य सरकारों की भी अहम भूमिका होगी। उन्हें श्रम सुधारों को अपनाना होगा और भूमि बाजार मुक्त करना होगा ताकि उद्योग उचित कीमत पर इनका इस्तेमाल कर सकें। संचालन सुधार अहम हैं और ‘एकल खिड़की मंजूरी’ का मतलब हर मंजूरी के लिए अलग खिड़की नहीं होना चाहिए।
वित्तीय बाजारों को मुक्त करके कारोबारों के लिए पर्याप्त और उचित ऋण दर तय करना प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिहाज से अहम है और इसके लिए गंभीर वित्तीय सुधारों की आवश्यकता है। यहां जिस सबसे अहम सुधार की जरूरत है वह है सरकारी क्षेत्र की उधारी की लागत को निजी क्षेत्र के बराबर करना और इस दिशा में पहला कदम होगा सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) की शर्त हटाना।
अभी वाणिज्यिक बैंकों को अपनी देनदारी का 18 फीसदी हिस्सा केंद्र और राज्य सरकारों के बॉन्ड में रखना होता है। सरकारी गारंटी भी मिला लें तो इससे सरकारी क्षेत्र को कम लागत में ज्यादा उधारी मिल जाती है। एसएलआर समाप्त करने से निजी कारोबारों की ऋण लागत कम हो सकती है। किंतु हाल के वर्षों में वाणिज्यिक बैंक एसएलआर की जरूरत से ज्यादा रकम रखते आए हैं। ऐसे में महत्वपूर्ण है कि वित्तीय बाजारों को मुक्त किया जाए और सरकारों को अहसास कराया जाए कि उनकी उधारी अर्थव्यवस्था में अवसर लील जाती है। साथ ही बेहतर आकलन वाली नियम आधारित राजकोषीय नीति भी जरूरी है, जो आम परिवारों की गिरती वित्तीय बचत की वजह समझे।
होड़ के योग्य बनने के लिए वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी में सुधार किया जा सकता है। इसे व्यापक बनाकर निर्यात पर देसी व्यापार कर हटाने से ऐसा हो जाएगा। गंतव्य आधारित जीएसटी को अपनाने का मकसद ही घरेलू व्यापार करों के बोझ से राहत दिलाकर हमारे उत्पादों को निर्यात में होड़ के लायक बनाना था। किंतु पेट्रोलियम उत्पादों, बिजली और अचल संपत्ति को जीएसटी से बाहर रखने के कारण ऐसा पूरी तरह नहीं हो पाया। उदाहरण के लिए 2022-23 में जीएसटी से बाहर रहे घरेलू खपत कर की देश के कुल अप्रत्यक्ष कर में 41 फीसदी हिस्सेदारी थी। इसमें पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र सरकार द्वारा लगाया जाने वाला उत्पाद शुल्क, बिक्री कर, मोटर वाहन कर, यात्री और वस्तु कर तथा राज्यों द्वारा लगाया जाने वाला बिजली कर शामिल है। चूंकि पेट्रोलियम उत्पादों का इस्तेमाल परिवहन में किया जाता है इसलिए कर का प्रभाव दूर तक पड़ता है।
इन उत्पादों को जीएसटी से बाहर रखने के पीछे जो राजस्व का जो तर्क दिया जाता है वह बेमानी है। जरूरत बेहतर कर प्रशासन की और प्रवर्तन के लिए तकनीक के अधिक कारगर इस्तेमाल की है। खबरों के मुताबिक इस वर्ष अप्रैल से जून के दौरान केंद्रीय अधिकारियों ने ही अकेले 25,397 ऐसे मामले पकड़े, जिनमें 1.95 लाख करोड़ रुपये की कर वंचना शामिल थी। इसमें 464 करोड़ रुपये की राशि इनपुट टैक्स क्रेडिट की धोखाधड़ी से संबद्ध थी। जिस राशि का पता ही नहीं चला उसका तो केवल अंदाजा लगाया जा सकता है। कर व्यवस्था का सरलीकरण और तकनीक का प्रभावी इस्तेमाल करने से इतना राजस्व मिलेगा, जो दरों को वाजिब बनाने से होने वाले नुकसान की भरपाई कर सके।
अब केंद्र और राज्य स्तर पर नीति निर्माताओं को यह बात समझनी होगी और जीएसटी को सरल तथा अधिक व्यापक बनाने का प्रयास करना होगा। ट्रंप के कदमों से जो अवसर उत्पन्न हुआ है उसे गंवाया नहीं जाना चाहिए।