प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो क्रेडिट: Pexels
मार्केटिंग क्षेत्र के शुरुआती गुरु कहलाने वाले जॉन वानामेकर ने मार्केटिंग प्रबंधन पर जोर देकर कारोबार के तरीकों में क्रांति ला दी। उन्होंने ‘कस्टमर इज किंग’ यानी ‘ग्राहक ही भगवान है’ का सिद्धांत दिया और ग्राहकों के इर्द-गिर्द ही नीतियां बनाईं, जिन्होंने आधुनिक व्यवसाय की सूरत ही बदल डाली। उनका फलसफा कहता है कि ग्राहक और उसकी ताकत ही कारोबार को सफल बना सकती है और बाजार की चाल पर सबसे ज्यादा असर ग्राहकों का ही होता है। मगर रक्षा बाजार में यह फलसफा न के बराबर चलता है क्योंकि वहां विक्रेता का ही दबदबा होता है और सौदे उनकी ही शर्तों पर होते हैं।
रक्षा बाजार में उत्पादों के दाम बहुत अधिक होते हैं फिर भी चलती विक्रेताओं की ही है। दूसरे क्षेत्रों में महंगे उत्पाद बनाने वाले खरीदारों को लुभाने के लिए मार्केटिंग पर बहुत खर्च करते हैं मगर रक्षा बाजार में उपकरण विनिर्माता और देश न केवल तकनीक पर अपना कब्जा रखते हैं बल्कि संस्थागत ढांचा बनाकर तय भी करते हैं कि किसको क्या बेचा जाएगा।
उदाहरण के लिए अमेरिका ने रक्षा एवं दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीकों के व्यापार पर नियंत्रण के लिए इंटरनैशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेग्युलेशंस (इटार) और एक्सपोर्ट एडमिनिस्ट्रेशन (इयर) जैसी व्यवस्थाएं बनाई हैं। इयर के अंतर्गत निर्यात की कुछ श्रेणियां बनाई गई हैं। पहली श्रेणी में बाधारहित वस्तुओं एवं ठिकानों के लिए लाइसेंस की जरूरत नहीं होती। दूसरी श्रेणी में नियंत्रित वस्तुएं कुछ खास देशों को बिना लाइसेंस भी निर्यात की जाती हैं। तीसरी श्रेणी सामान्य लाइसेंस की है, जिसमें बार-बार अनुमति नहीं लेनी पड़ती और पहले से मंजूर कुछ वस्तुओं के निर्यात की इजाजत होती है। एक अन्य श्रेणी वैलिडेटेड लाइसेंस की है, जिसमें हर वस्तु के निर्यात की मंजूरी लेनी पड़ती है। इटार रक्षा एवं अंतरिक्ष से संबंधित सामानों, सेवाओं, तकनीकी जानकारी के निर्यात एवं आयात पर नजर रखता है, जिससे बाजार में विक्रेता का दबदबा और बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप खरीदार देश को उन्नत तकनीक हासिल करने के लिए अक्सर विक्रेताओं की शर्तें माननी पड़ती हैं। इससे रक्षा बाजार में असंतुलन जाहिर होता है, जहां विक्रेता का पूरा रुतबा होता है और दुनिया के सबसे बड़े रक्षा आयातकों में शुमार भारत को भी उनकी बात माननी पड़ती है।
ज्यादातर उद्योगों में बड़े केंद्रों के पास विनिर्माण होने पर आवाजाही की लागत घटने, माल जल्द मिलने, आपूर्ति श्रृंखला ज्यादा मजबूत होने और स्थानीय जरूरतों के हिसाब से उत्पाद को ढालने जैसे फायदे मिलते हैं। किंतु रक्षा में मामला कदम अलग है, जहां तकनीक हस्तांतरण समझौते के तहत होने वाले स्थानीय विनिर्माण के लिए भी खरीदार अक्सर पूरी तरह विक्रेता पर निर्भर होता है। रक्षा में तकनीक हस्तांतरण एकतरफा है और विक्रेता का पलड़ा भारी होता है। उदाहरण के लिए किसी तकनीक से जुड़ी अहम जानकारी कभीकभार ही दी जाती है और उसमें भी अधूरी जानकारी देकर छोड़ दिया जाता है। मुख्य उपकरण या महत्त्वपूर्ण तकनीक वाली सहायक प्रणाली के बारे में अक्सर नहीं बताया जाता ताकि खरीदार देश विक्रेता के ही आसरे रहे और तकनीक या उपकरण खुद तैयार नहीं कर पाए।
यह रवैया उत्पादन में आत्मनिर्भरता के आड़े आता है और रखरखाव, मरम्मत या कलपुर्जों के लिए खरीदार को विक्रेता पर ही निर्भर बनाए रखता है। इन समझौतों में शर्त होती है कि तय संख्या से ज्यादा उपकरण नहीं बनाए जा सकते और प्रणाली से जुड़े इंटरफेस तक नहीं जाने दिया जाता, जिससे सुधार या अपग्रेड भी नहीं हो सकते। साथ ही निर्यात पर कड़ी पाबंदी लगा दी जाती है किसी भी देश को अपने यहां बने रक्षा उपकरण निर्यात करने के लिए विक्रेता देश से इजाजत भी लेनी पड़ती है।
एक झमेला और है। तकनीक हस्तांतरण के तहत रॉयल्टी हमेशा चुकाते रहनी पड़ती है चाहे उपकरण कितने भी कम या ज्यादा बनाए जाएं। यह रॉयल्टी या शुल्क इतना ज्यादा होता है कि कई बार तो विक्रेता इससे उपकरण की कीमत के बराबर मुनाफा कमा लेता है। स्थानीय स्तर पर बने उपकरण रॉयल्टी के कारण आयातित उपकरण से महंगे हो जाते हैं, जिससे स्थानीय उत्पादन का कोई वित्तीय फायदा ही नहीं होता। ऐसी बातों ने ही इस बाजार में विक्रेताओं को हावी कर दिया है और जब तक उपकरण काम करता है तब तक खरीदार देश विक्रेता पर ही निर्भर रहता है। रक्षा उद्योग के लिए हमेशा से तकनीक हस्तांतरण पर निर्भर रहे भारत ने ऐसे माहौल में बहुत चुनौतियां और मुश्किलें झेली हैं।
रक्षा बाजार में विक्रेताओं का दबदबा हथियारों और गोला-बारूद की अनाप-शनाप कीमतों से भी पता चलता है, जो उनमें लगी सामग्री की कीमत से बहुत अधिक होती है। कीमतों में शोध-विकास पर हुआ खर्च ही नहीं होता बल्कि भारी भरकम मुनाफा मार्जिन भी होता है, जिससे विक्रेता अपने निवेश से कई गुना रकम वसूल लेते हैं। इसके बाद जब तक ये प्लेटफॉर्म चलते हैं तब तक उनके रखरखाव, कल-पुर्जे और अपग्रेड पर होने वाला खर्च अक्सर उनकी भारी-भरकम कीमत से भी ज्यादा पड़ जाता है और खरीदार को लंबे अरसे तक विक्रेता के भरोसे ही रहना पड़ता है।
भारी आर्थिक फायदे के अलावा रक्षा विक्रेताओं का रणनीतिक एवं राजनीतिक रुतबा भी होता है, जिसका इस्तेमाल अक्सर वे अपने देश के हितों और भू-राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने में करते हैं। वे खरीदार देशों की विदेश नीतियों तथा सैन्य रणनीतियों पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष असर डालते हैं। उन्नत हथियारों एवं रक्षा प्रणालियों की उपलब्धता सीमित कर विक्रेता खरीदार देश की सैन्य क्षमता तक तय कर सकते हैं।
चौथा सबसे बड़ा रक्षा बजट होने के बाद भी भारत को लंबे समय से इस समीकरण का नुकसान उठाना पड़ा है। पिछले कुछ सालों में भारत ने बढ़े हुए रक्षा निर्यात और स्वदेशी क्षमताओं को फायदा उठाना शुरू किया है। दुनिया भर की रक्षा साजोसामान बनाने वाली कंपनियां भारत में उत्पादन की इच्छुक हो रही हैं, जिससे भारतीय कंपनियों की मोलभाव करने की ताकत बढ़ी है। मगर भारत को खरीदार से विक्रेता बनना होगा। भारत के रक्षा नवाचार को आईडेक्स जैसे कार्यक्रमों से ताकत मिल रही है और आधुनिक युद्ध कौशल के बदलते तौर तरीके (डिजिटल तकनीक, ऑटोनॉमस प्रणालियों, अंतरिक्ष, साइबर और सूचना युद्ध पर बढ़ती निर्भरता) इसकी ताकत से मेल खाते हैं। रक्षा निर्यात को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयास भी खरीदार से विक्रेता बनने का भारत का सफर तेज करेंगे।
मगर यह आसान सफर नहीं है। अमेरिका, रूस, फ्रांस और इजरायल जैसे रक्षा निर्यातकों के आर्थिक एवं रणनीतिक हित भारत को हथियारों का खरीदार बनाए रखने में ही हैं। भारत को दुनिया भर के बाजार तक पहुंचने से रोकने के लिए ये देश राजनयिक दबाव, लॉबीइंग और व्यापारिक बाधाओं में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। मगर इस समीकरण से इतने अरसे तक घाटा उठाने वाले भारत के बढ़ते रक्षा नवाचार तंत्र को ऐसी रणनीतिक पहल करनी चाहिए, जो वैश्विक बाजार में खरीदार से विक्रेता बनने का उसका सफर तेज कर सके।
(लेखक रक्षा सचिव रह चुके हैं और अभी आईआईटी कानपुर में अतिथि प्राध्यापक हैं)