इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
रविवार को राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से एक प्रमुख निष्कर्ष यह निकल कर आया कि सरकार ने आर्थिक वृद्धि पटरी पर लाने और उसे निरंतर गति देने के लिए अपनी नीति में थोड़ी तब्दीली की है। बेशक, उनके संबोधन का मुख्य उद्देश्य वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद द्वारा जीएसटी दरों में संशोधन और 450 से अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं पर दरों में कटौती के निर्णय के संभावित प्रभाव से राष्ट्र को अवगत कराना था। तथाकथित ‘बचत का उत्सव,’ जो प्रधानमंत्री की नजर में जीएसटी दर में कटौती से शुरू होने वाला था, घोषित लक्ष्य था। लेकिन उस लक्ष्य के पीछे उनकी सरकार की आर्थिक नीति में बदलाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
कोविड महामारी के बाद के वर्षों में मोदी सरकार ने आर्थिक वृद्धि पटरी पर लाने के लिए दोआयामी दृष्टिकोण अपनाया। एक तरफ केंद्र सरकार ने अपने राजकोषीय घाटे में लगातार कमी लानी शुरू कर दी जो 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 9.2 फीसदी से अधिक था और 2024-25 में कम होकर 4.77 फीसदी तक सिमट गया। दूसरी तरफ, सरकार ने बेहतर व्यय मिश्रण के माध्यम से राजकोषीय मजबूती हासिल करने की कोशिश की। इस अवधि के दौरान पूंजीगत व्यय में लगातार वृद्धि होने के बावजूद राजस्व व्यय में कमी आई।
केंद्र सरकार का राजस्व व्यय वर्ष 2020-21 में जीडीपी के 15.5 फीसदी से घटकर 2024-25 में 10.9 फीसदी रह गया जबकि उक्त अवधि में ही उसका पूंजीगत व्यय जीडीपी के 2.15 फीसदी से बढ़कर 3.18 फीसदी हो गया। बेशक राजस्व में तेजी से काफी मदद मिली और इससे पिछले कुछ दशकों में केंद्र सरकार के राजस्व घाटे में सर्वाधिक तेजी से कमी आई। यह 2020-21 में जीडीपी के 7.3 फीसदी से कम होकर 2024-25 में 1.71 फीसदी रह गया। इस तरह, कोविड महामारी के बाद के वर्षों में सरकार की नीति राजकोषीय घाटा नियंत्रित रखने, अपना राजस्व व्यय कम करने और निजी क्षेत्र की हिचकिचाहट के बीच बुनियादी ढांचे के निर्माण पर अधिक खर्च करने पर केंद्रित थी।
अगर प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन को कोई संकेत माना जाए तो ऐसा लगता है कि वह नीति अब बदल रही है। ‘बचत का उत्सव’ आर्थिक वृद्धि को दोबारा धार देने और इसे निरंतर बरकरार रखने के लिए एक नया नीतिगत जरिया प्रतीत हो रहा है। प्रधानमंत्री ने जीएसटी दर के युक्तिकरण को उपभोक्ताओं के हाथों में अधिक खर्च योग्य रकम डालने के माध्यम के रूप में देखा। उम्मीद तो अब यही की जा रही है कि उपभोक्ता कर कटौती से बची रकम बचत की झोली में डालने के बजाय खर्च करेंगे। अगर उपभोक्ता उस रकम का इस्तेमाल वस्तु एवं सेवाओं की खरीदारी के लिए खर्च करते हैं तो इससे मांग में नई जान फूंकने, क्षमता इस्तेमाल बढ़ाने और निजी क्षेत्र को निवेश बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी।
पीएम मोदी ने यहां तक कहा कि जीएसटी दर में कटौती और वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में दी गई आयकर राहत यानी 12 लाख रुपये तक की सालाना आय पर कर दर शून्य करने से लोगों की कुल मिलाकर लगभग 2.5 लाख करोड़ रुपये सालाना बचत होनी चाहिए। यह रकम जीडीपी के लगभग 0.75 फीसदी के बराबर है, जो दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था में मांग प्रोत्साहित करने में मददगार साबित होगी।
प्रधानमंत्री के संबोधन में राजनीतिक संदेश भी साफ दिखाई दे रहा था। उन्होंने उम्मीद जताई कि उद्योग उपभोक्ताओं के लिए कीमतें घटा कर दर में कटौती का लाभ देने में संकोच नहीं करेंगे। यह केवल एक आग्रह माना जा सकता था, क्योंकि जीएसटी व्यवस्था में अब मुनाफाखोरी-रोधी नियम नहीं हैं जिन्हें उन उद्योगों पर लागू किया जा सके जो दर में कटौती का लाभ नहीं देते हैं। फिलहाल तो यही लग रहा है कि उद्योग जीएसटी दर के युक्तिकरण का उपयोग अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए कर रहा है। देश की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी ने अपने वाहनों की कीमतों में निचले स्तर पर इतनी कटौती की है कि यह जीएसटी कटौती से मिलने वाले लाभ से कहीं अधिक है। इससे पता चलता है कि कंपनी बिक्री और बाजार हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दर में कटौती का पूरा लाभ उठाना चाहती है।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों से भी जीएसटी दरें कम होने के बाद घरेलू विनिर्माण बढ़ाने की अपील की गई है। स्वदेशी या आर्थिक आत्मनिर्भरता के विचार का प्रधानमंत्री ने एक बार फिर समर्थन किया है। यहां तक कि उपभोक्ताओं से भी आग्रह किया गया है कि वे विदेश से आयातित वस्तुओं की जगह देश के भीतर उत्पादित वस्तुओं को अधिक वरीयता दें। जीएसटी दरों में एक महत्त्वपूर्ण कटौती की पृष्ठभूमि में स्वदेशी के एक नए रूप का संयोजन एक नया दृष्टिकोण है जिसकी वकालत प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन के माध्यम से की है। यहां तक कि राज्यों को भी वस्तुओं के घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए कहा गया है।
कर सुधार को स्वदेशी और देश के आर्थिक कायाकल्प से जोड़ने से जरूरी आर्थिक लाभ मिलेंगे या नहीं यह तो समय ही बताएगा। क्या इस प्रकार के स्वदेशी अभियान का मतलब यह है कि घरेलू स्तर पर उत्पादित वस्तुओं के लिए अधिक संरक्षण दिया जाएगा? इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्वदेशी के आह्वान के साथ-साथ घरेलू उत्पादकों की प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने और कारोबार करने में आसानी बढ़ाने के लिए सरकारी प्रक्रियाओं में सुधार के लिए एक बड़ा नीतिगत प्रयास किया जाएगा या नहीं, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है।
लेकिन आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए मांग प्रोत्साहन तैयार करने की दिशा में बदलाव निश्चित रूप से कई सवाल उठाएगा कि सरकार आने वाले महीनों में राजकोषीय मजबूती को कैसे आगे बढ़ाना चाहती है। ध्यान दें कि मोदी सरकार ने कोविड महामारी के तत्काल बाद मांग प्रोत्साहन से जान-बूझकर परहेज किया था और इसके बजाय बुनियादी ढांचे के निर्माण और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने के लिए स्वयं अपने स्तर पर निवेश बढ़ाकर आपूर्ति पक्ष दुरुस्त करने पर ध्यान दिया था। कई अर्थशास्त्रियों ने तब कर कटौती के माध्यम से मांग प्रोत्साहन नहीं बढ़ाने के लिए सरकार की आलोचना की थी। लेकिन अब कोविड महामारी के चार साल बाद सरकार कर रियायतों के माध्यम से मांग बढ़ाकर आर्थिक वृद्धि बढ़ाने के लिए उस दृष्टिकोण को अपनाती हुई दिख रही है।
यह हो सकता है कि यह नीतिगत बदलाव नीति निर्धारकों के इस अनुभव का नतीजा हो कि सरकार के पूंजीगत व्यय में लगातार वृद्धि के चार साल बाद केवल ऊंचे निवेश पर ध्यान केंद्रित करने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिला है। वर्ष2024-25 में आर्थिक वृद्धि घटकर 6.5 फीसदी रह गई और शायद वृद्धि दर को गति देने और इसे बनाए रखने की तत्काल जरूरत ने सरकार को उपभोक्ताओं पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का बोझ कम करने के लिए प्रेरित किया होगा।
ये रियायतें कर को तर्कसंगत बनाने की एक बड़ी योजना का हिस्सा हैं। लेकिन रणनीति में इस तरह के बदलाव से कुछ अल्पकालिक जोखिम और चुनौतियां सामने आएंगी। वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में संकेत दिया जा चुका है कि पिछले चार वर्षों में अपनाए गए उपायों में कुछ संशोधन किए जाएंगे। राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.4 फीसदी तक समेटने का लक्ष्य है लेकिन कोविड महामारी के बाद पहली बार जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजस्व व्यय बढ़ रहा है और पूंजीगत व्यय वृद्धि में थोड़ी गिरावट आने वाली है।
जीएसटी दर के युक्तिकरण से राजस्व में कमी आने की आशंका है जिससे निर्यात उद्योगों और रक्षा परियोजनाओं को सहयोग देने के उपायों पर अधिक व्यय करने की मांग बढ़ सकती है। इन सबके बीच प्रस्तावित राजकोषीय मजबूती का लक्ष्य प्राप्त करने की राह में नई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं, खासकर ऐसे समय में जब कम मुद्रास्फीति 2025-26 के लिए नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर 10.1 फीसदी से नीचे ला सकती है। लिहाजा, आर्थिक वृद्धि पटरी पर लाने के लिए इस महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलाव को महसूस करने और बाजार सहित सभी को उन संभावित चुनौतियों के लिए तैयार करने का समय है जिनका सामना सरकार को अपने राजकोषीय समेकन कार्यक्रम का पालन करने में करना पड़ सकता है।