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दलहन उत्पादन बढ़ाने की इच्छा कम: प्रतिस्पर्धी फसलों के मुकाबले कमजोर मुनाफा

बढ़ती आयात निर्भरता, घटता रकबा और कम लाभप्रदता यह दिखाते हैं कि यदि किसानों के लिए दाल की खेती आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं बनी, तो सरकार की नई योजनाएं भी सफल नहीं होंगी

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सुरिंदर सूद   
Last Updated- December 03, 2025 | 10:32 PM IST

दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना दशकों से एक काफी चर्चित मगर पहुंच से दूर लक्ष्य रहा है। दलहन फसलें देश में लोगों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं। लेकिन दलहन की जरूरत एवं मांग पूरी करने के लिए आयात पर निर्भरता कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर पाटने या इसे कम से कम कम रखने के अथक प्रयास हुए हैं किंतु हालात नहीं सुधरे हैं। हाल के वर्षों में तो दलहन का आयात इस कदर बढ़ा है कि 2020-21 में 26 लाख टन दलहन आयात का आंकड़ा 2023-24 में बढ़कर 47 लाख टन हो गया। विदेश से दलहन का आयात 2024-25 में रिकॉर्ड 70 लाख टन तक पहुंचने का अनुमान है।

इन पौष्टिक फलियों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए व्यवस्थित प्रयास 1966 में दलहन पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना शुरू होने के साथ हुए और बिना किसी अपेक्षित प्रगति के अब भी जारी हैं। दलहन के समग्र उत्पादन में निस्संदेह कुछ वृद्धि हुई है मगर यह बढ़ती मांग पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रति व्यक्ति उपलब्धता 2017 में 54.4 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन से घटकर अब 43.6 ग्राम हो गई है। यह राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा अनुशंसित 85 ग्राम प्रति दिन की आवश्यक खपत का लगभग आधा है।

यह वास्तव में चिंता की बड़ी वजह है। भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा अनिवार्य रूप से शाकाहारी है या यदा-कदा ही ही मांसाहार करता है। दलनह का पर्याप्त सेवन अनिवार्य है क्योंकि इनमें रेशे (फाइबर) के साथ महत्त्वपूर्ण विटामिन और खनिज जैसे आयरन और फोलेट की भरपूर मात्रा होती है। इन पोषक तत्वों की कमी देश में फैले कुपोषण का प्रमुख कारण है, जिसका असर भारतीयों के स्वास्थ्य पर हो रहा है और उनकी कार्य क्षमता पर भी दूरगामी असर डाल रहा है।

दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए पिछली आधी सदी में किए गए अनगिनत कार्यक्रमों में जो सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम हैं, उनमें दलहन विकास योजना (1969-74), दलहन पर खाद्य अनाज उत्पादन कार्यक्रम (1985-90), दलहन, तिलहन और मक्का पर प्रौद्योगिकी मिशन (1990 के दशक), तिलहन, दलहन और मक्का पर एकीकृत योजना (2004-10), दालों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, जिसका नाम बाद में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं पोषण मिशन (2007-12) कर दिया गया और त्वरित दलहन उत्पादन कार्यक्रम (2010-14) प्रमुख रहे हैं।

इनमें से अधिकतर कार्यक्रमों ने कार्य योजनाओं में मामूली बदलाव के साथ लगभग समान रणनीतियों का पालन किया। शायद ही कोई नई या लीक से हटकर सोच इस्तेमाल की गई। इसे देखते हुए आश्चर्य की बात नहीं है कि इन योजनाओं के अपेक्षित परिणाम सामने क्यों नहीं आ पाए। यह बात इन फसलों के रकबे में किसी महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी या उनकी औसत उत्पादकता में प्रत्यक्ष वृद्धि नदारद रहने से साफ है।

इसके उलट दलहन का शुद्ध रकबा 2021-22 में 3.1 करोड़ हेक्टेयर से घट कर 2024-25 में 2.75 करोड़ हेक्टेयर रह गया है। इस अवधि के दौरान उत्पादन भी 2.73 करोड़ टन से घटकर 2.52 करोड़ टन रह गया है। दालहन की औसत उपज केवल 0.74 टन प्रति हेक्टेयर है, जो 0.97 टन के वैश्विक औसत से कम है। यह अलग बात है कि भारत दुनिया में इन फलियों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। उत्पादन में दीर्घकालिक वृद्धि वास्तव में 1950 के दशक से निराशाजनक रूप से कम रही है, जो केवल 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष है।

वर्ष 2004-05 से इसकी वृद्धि दर में सुधार हुआ है, जिसका श्रेय काफी हद तक सिर्फ तीन फसलों – मूंग, उड़द और चना – के उत्पादन में वृद्धि को दिया जा सकता है। अन्य दालों की उत्पादकता या उनके उत्पादन में अब तक कोई सराहनीय वृद्धि दर्ज नहीं हो पाई है।

दलहन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए नवीनतम कदम के रूप में 11,440 करोड़ रुपये का आत्मनिर्भरता मिशन (दलहन आत्मनिर्भरता मिशन) शुरू किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 अक्टूबर को औपचारिक रूप से इस योजना की शुरुआत की है। इस मिशन की घोषणा इस वर्ष बजट में की गई थी। यह 2025-26 से 2030-31 तक लागू किया जाना है। इसका उद्देश्य तीन प्रमुख दालों – तूर (अरहर), उड़द और मसूर का उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर दिसंबर 2027 तक आत्मनिर्भरता का प्राथमिक उद्देश्य हासिल करना है।

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इसके बाद कुछ और वर्षों तक दूसरे उपाय किए जाने का भी प्रस्ताव है। हालांकि इस मिशन में जिस ढांचे का पालन किया जाएगा वह भी पिछली कुछ योजनाओं में आजमाए ढांचों से बहुत अलग नहीं दिखाई दे रहा है। यह ढांचा मूल रूप से अन्य फसलों के साथ मिश्रित खेती को प्रोत्साहित करने और धान की खेती के बाद खाली हुई जमीन का उपयोग करने, उच्च उपज वाली किस्मों के बीज वितरित करने और पूर्व-निर्धारित कीमतों (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर उपज की सुनिश्चित बिक्री के जरिये दलहन का रकबा बढ़ाने की कोशिश के इर्द-गिर्द घूमता है। पहली नजर में इस योजना के लिए शायद ही किसी नए उपाय की परिकल्पना की गई है। सुझाए गए अधिकांश उपाय पहले ही आजमाए और परखे जा चुके हैं जिनसे बहुत अधिक लाभ नहीं मिल पाए हैं।

इन सभी प्रयासों में जिस बात को नजरअंदाज किया जा रहा है वह यह है कि दलहन की खेती प्रतिस्पर्धी या नकदी फसलों की तरह आकर्षक नहीं है। लिहाजा किसान उपज बढ़ाने वाली सामग्री पर खर्च करने में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। इसी कारण दलहन की फसलों की खेती सीमांत, असिंचित और कम उपजाऊ भूमि में की जा रही है। जब तक अन्य फसलों की तरह दलहन की खेती के अर्थशास्त्र का ध्यान नहीं रखा जाता है तब तक उत्पादन में उछाल की उम्मीद करना बेमानी है।

First Published : December 3, 2025 | 10:29 PM IST