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रक्षा साझेदारी की कसौटी: भारत-रूस शिखर वार्ता से भविष्य के रिश्तों की परीक्षा

भारत-रूस शिखर सम्मेलन से अंदाजा मिल सकता है कि रूस प्रमुख रक्षा साझेदार रहेगा मगर भारतीय हथियार बाजार में उसकी हिस्सेदारी कम हो जाएगी

Published by
हर्ष वी पंत   
अलेक्सेई जखारोव   
Last Updated- December 03, 2025 | 10:42 PM IST

भारत और रूस के बीच 4-5 दिसंबर को होने जा रहे शिखर सम्मेलन के दौरान रक्षा सहयोग प्रमुख विषय के रूप में सामने आ सकता है। दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच बैठक की संभावना है, जिसमें भारत द्वारा सतह से हवा में मार करने वाली एस-400 मिसाइल प्रणाली की अतिरिक्त खरीद, एस-500 प्रणाली की खरीद के लिये अनुबंध और इनके संयुक्त उत्पादन तथा एसयू-57 पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों के अनुबंध सहित कई पहलुओं पर बातचीत होगी। इस साल दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच यह दूसरी बैठक होगी। हालांकि रक्षा पर द्विपक्षीय बातचीत फिर जोर पकड़ रही है मगर जरूरी नहीं कि दोनों देशों के शिखर सम्मेलन के बाद होने वाली घोषणाओं में ये नए समझौते भी शामिल हों।

शीत युद्ध के समय से ही रक्षा एवं सामरिक मामले भारत-रूस द्विपक्षीय सहयोग की आधारशिला रहे हैं। पूर्ववर्ती सोवियत संघ 1960 के दशक में भारत के लिए हथियारों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया था। तब सोवियत संघ ने अपनी तकनीक साझा की और भारत में इनकी मदद से हथियारों का उत्पादन भी शुरू किया। इनमें 1962 में सोवियत संघ द्वारा भारत में मिग-21 उत्पादन संयंत्र की स्थापना और 1965 में अमेरिकी प्रतिबंध के बाद सैन्य साजो-सामान भेजना प्रमुख है, जिन्होंने रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग को और भी मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

सोवियत संघ ने 1967 में 200 एसयू-7 लड़ाकू बमवर्षक विमान देकर खास तौर पर भारतीय वायु सेना को मजबूती दी। एसयू-7 उस समय पाकिस्तान के विमानों से कहीं बेहतर थे। 1980 के दशक में भारत ने अपने सैन्य उपकरणों में विविधता लाने के लिए दूसरे देशों से भी हथियारों की खरीद शुरू की। इसे देखते हुए सोवियत संघ ने उन्नत हथियारों एवं तकनीक के साथ भारत को अपने साथ बनाए रखने के प्रयास तेज कर दिए। इसमें पहले दिए गए सैन्य साजो-सामान जैसे टैंक, लड़ाकू विमान, मिसाइल और युद्धपोतों को अपडेट करना शामिल था। सोवियत संघ ने 1987 में भारत को परमाणु-संचालित पनडुब्बी भी पट्टे पर दी जो दोनों देश के बीच बढ़ती करीबी का ठोस संकेत था।

मगर 1988 से 1998 तक की अवधि में रूस से भारत को हथियारों का निर्यात सुस्त हो गया। इस अवधि में रूस से भारत को सबसे कम मात्रा में हथियारों का निर्यात हुआ। लेकिन 2000 के दशक में द्विपक्षीय रक्षा साझेदारी ने फिर फर्राटा लगाया और रक्षा क्षेत्र में कई बड़े समझौते एवं हथियारों के सौदे हुए। इन बड़े समझौते के परिणाम दोनों देशों के बीच आपसी रिश्ते को आज भी मजबूती दे रहे हैं। इस अवधि में रूस से मिले हथियारों एवं उपकरणों में विमान, हेलीकॉप्टर, युद्धक टैंक, मिसाइल, फ्रिगेट और पनडुब्बी (एक नई परमाणु-संचालित हमला पनडुब्बी के पट्टे सहित) और एक विमान वाहक पोत भी शामिल थे।

द्विपक्षीय रक्षा संबंधों के समृद्ध इतिहास का परिणाम यह रहा है कि भारत ने सोवियत कालीन और रूसी सैन्य उपकरणों एवं साजो-सामान पर काफी अधिक निर्भरता दिखाई है। उदाहरण के लिए टी-72 और टी-90 मुख्य युद्धक टैंक भारतीय सेना के टैंक बेड़े का मुख्य हिस्सा बन गए हैं जबकि एसयू-30 लड़ाकू विमान वायु सेना की रीढ़ हैं। भारत और रूस के सामूहिक प्रयास से तैयार ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ने भारत की सटीक मारक क्षमता में इजाफा किया है और अब इसकी क्षमता बढ़ाने के लिए इसे अपडेट किया जा रहा है।

भारत और रूस के बीच रक्षा साझेदारी के क्षेत्र में वर्षों से जारी सहयोग पर किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पहली बात, भारत को रूसी सैन्य उपकरणों के रखरखाव और पुर्जों की जरूरत है इसलिए वह टैंक और लड़ाकू जेट विमानों के लिए इंजन जैसे प्रमुख साजो-सामान की खरीदारी कर रहा है। रूस जैसे ही इंजनों के नए संस्करण उतारता है वैसे ही भारत को भी अपना साजोसामान अपडेट कर आज की जरूरत के हिसाब से तैयार करने का मौका मिल जाता है। रूस की तरफ से एसयू-30एमकेआई बेड़े के लिए उन्नत एएल-41 इंजन की आपूर्ति का प्रस्ताव इसका उदाहरण है।

दूसरी बात, रूस अपनी ताकत को समझते हुए भारत की मांगों पर लचीला रुख दिखा रहा है और बिना किसी बाधा या शर्त के प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उत्पादन के स्थानीयकरण के लिए तैयार है। एसयू-57 विमानों के सौदे पर उसके हाल के प्रस्ताव से बात साफ हो जाती है। तीसरी बात, प्रमुख पुर्जों जैसे भारत के ‘प्रोजेक्ट 11356-श्रेणी’ के फ्रिगेट के लिए गैस टरबाइन की आपूर्ति में बड़ी बाधाओं का सामना करने के बावजूद रूस समाधान खोजने और अंततः भारतीय नौसेना को जहाजों की आपूर्ति सुनिश्चित करने में कामयाब रहा।

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत और रूस ने विभिन्न स्तरों पर अपनी सैन्य वार्ता तेज कर दी है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में रूस की एस-400 रक्षा प्रणाली अपनी उपयोगिता बखूबी साबित कर चुकी है। इसे देखते हुए भारतीय रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में एस-400 के लिए ‘बड़ी संख्या में सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों’ की खरीद के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है। इन मिसाइलों की मारक क्षमता 120, 200, 250 और 380 किलोमीटर तक है। इससे पता चलता है कि भारत आगे भी अपने रक्षा तंत्र में रूस की रक्षा प्रणालियां जोड़ता रहेगा।

एस-400 एसएएम प्रणालियों की अतिरिक्त खेप की खरीद का सौदा भी द्विपक्षीय एजेंडे में शामिल है। मगर यह नया अनुबंध जाहिर तौर पर शुरुआती चरण में हैं, जिसमें लागत से जुड़ी बातचीत और औपचारिक खरीद प्रक्रियाओं में काफी समय लगने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि रूस स्वयं इस समय यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा हुआ है, इसलिए उसे भी हथियारों की जरूरत है।

रूस इस समय युद्ध में फंसा हुआ है और अपने सशस्त्र बलों की आवश्यकताओं को तवज्जो दे रहा है। इसके साथ ही भारत अपने हथियारों के जखीरे में विविधता लाने के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों से हथियार खरीदने लगा है। ये दोनों ही बातें द्विपक्षीय साझेदारी की राह में बड़ी चुनौती रहेंगी। यह शिखर सम्मेलन भविष्य में दोनों देशों के बीच रक्षा संबंधों की दशा एवं दिशा का अंदाजा दे सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि रूस भारत का एक प्रमुख रक्षा साझेदार देश बना रहेगा मगर भारतीय हथियार बाजार में उसकी हिस्सेदारी कम हो जाएगी।


(पंत ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में वाइस प्रेसिडेंट हैं और जखारोव वहीं पर फेलो (रूस एवं यूरेशिया) हैं)

First Published : December 3, 2025 | 10:22 PM IST