साठ के दशक में ब्रिटिश सरकार एक सनसनीखेज स्कैंडल से हिल उठी। युद्ध के लिए मंत्री ( दूसरे शब्दों में कहें तो रक्षा मंत्री) जॉन प्रोफ्यूमो क्रिस्टीन कीलोर नाम की मॉडल के साथ दोस्ताना थे और इस मॉडल की सोवियत नौसेना के अताशे कमांडर वैलेरी इवानोव से दोस्ती थी।
कीलोर की प्रोफ्यूमो से पहली मुलाकात सत्तारूढ़ पार्टी के एक अन्य राजनेता लॉर्ड एस्टर के घर पर हुई। उसकी मैंडी राइस डेवीज से भी दोस्ती थी। मैंडी भी एक मॉडल थी जिसके साथ वह रहने की जगह यानी क्वार्टर शेयर करती थी। मैंडी के लॉर्ड एस्टर के साथ ‘दोस्ताना’ ताल्लुक थे।
लेकिन ये सब आरामदेह ‘दोस्तियां’ तब सबके सामने आ गई जब ब्रिटिश खुफिया तंत्र ने इन संपर्कों को गैर-जरूरी बताया। राइस डेवीज और कीलोर के अकाउंटेंट स्टीफन वार्ड को जेल भेज दिया गया। उन पर ‘वेश्यावृत्ति की कमाई पर निर्भर रहने’ का आरोप लगाया गया। स्टीफन के मुकदमे के दौरान गवाही के घेरे से राइस डेवीज ने एस्टर के साथ संबंधों का दावा किया लेकिन एस्टर ने इससे इनकार किया। राइस का जवाब बड़प्पन जैसा था: ‘ हां, वह इससे इनकार करेंगे। नहीं करेंगे क्या?
हाल में जब भारत और कनाडा के बीच राजनयिक विवाद ने तूल पकड़ा तो मुझे इस किस्से की याद आई। कनाडा के आरोप सच हैं या नहीं, भारत के पास इनका आधिकारिक तौर पर खंडन करने के सिवा कोई चारा नहीं था। साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत और कनाडा के बीच लंबे समय से मौजूद संबंधों को देखते हुए कनाडाई बिना किसी सबूत के, जिसके बारे में उनका मानना है कि वह मजबूत है, इस तरह का सार्वजनिक आरोप नहीं लगाते। ताजा खबरों में दावा किया गया है कि कनाडा ने आरोप लगाते समय मानवीय और इलेक्ट्रॉनिक दोनों तरह के सबूत पेश किए।
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आरोपों और खंडन को दरकिनार करके देखें तो घरेलू राजनीतिक और भू-राजनीतिक मजबूरियां बेहद दिलचस्प हैं। कोई भी देश इसे पसंद नहीं करता कि दूसरा देश उसकी सार्वभौमिक हैसियत की उपेक्षा करके उसके किसी एक नागरिक को निशाना बनाए और गैर-कानूनी तरीके से उसकी हत्या कर दे। इसके साथ यह भी सच है कि कोई भी देश आधिकारिक तौर पर इसे स्वीकार नहीं करेगा कि उसने ऐसी किसी कार्रवाई को अंजाम दिया है, भले ही उसने हकीकत में ऐसा किया हो या नहीं।
ये हालात दशकों से सुलग रहे थे। दोनों देशों की गहरी घरेलू मजबूरियां हैं जिनके कारण यह गतिरोध बना। भारत कनाडा पर लगातार यह आरोप लगाता रहा है कि वह खालिस्तानी आतंकवादियों और उनसे हमदर्दी रखने वालों को शरण देता है। कनाडा अभिव्यक्ति की आजादी के अपने कानून का हवाला देता है और कहता है कि भारत सीधे-सीधे यह मांग नहीं कर सकता कि कनाडाई नागरिकों को खालिस्तान समर्थक भावनाएं जाहिर करने से रोका जाए।
भारत ने करीब 20 कनाडाई लोगों के प्रत्यर्पण का अनुरोध कर रखा है जिनके बारे में उसका आरोप है कि वे खालिस्तानी हैं (निंजा के अलावा) जबकि दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि है। लेकिन भारत कनाडा की अदालत को इनके प्रत्यर्पण का आदेश देने के लिए तैयार नहीं कर सका।
समुदाय की आबादी के आंकड़े संकेत देते हैं कि भारत की तुलना में कनाडाई आबादी में सिखों का ज्यादा बड़ा प्रतिशत है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 1.21 अरब में लगभग 2.1 करोड़ सिख थे जो देश की कुल आबादी का 1.7 फीसदी थे। सिख समुदाय की घटती कुल प्रजनन दर को देखते-हुए बहुत संभव है कि इस प्रतिशत में और कमी आई हो।
2021 की जनगणना के अनुसार कनाडा की आबादी करीब 3.7 करोड़ थी और इसमें 7.70 लाख सिख होने का दावा किया गया। यह दो प्रतिशत से अधिक है जो भारत के प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा 5 लाख कनाडाई नागरिक और हैं जो भारतीय मूल के हैं। साथ ही, करीब 3 लाख भारतीय छात्र और हैं जो इस समय वहां अध्ययन कर रहे हैं।
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भारत की तरह कनाडा में भी दो सदन वाली संसद है। निचले सदन का निर्वाचन सामान्य बहुमत की प्रणाली से किया जाता है। इस सदन में 338 सीट हैं। इस समय सिख मूल के18 कनाडाई सांसद हैं। भारत में लोकसभा की 543 सीट हैं और कुल पांच निर्वाचित सिख हैं।
लिहाजा, राजनीतिक रूप से देखें तो सिखों का भारत की तुलना में कनाडा में ज्यादा घरेलू दबदबा है और अधिक बड़ा चुनावी प्रतिनिधित्व है। सामान्य बहुमत की प्रणाली में कोई भी राजनेता इस स्तर के प्रतिनिधित्व वाले समुदाय की चिंताओं को न तो हलके ढंग से ले सकता है और न ही अनदेखी कर सकता है। बहुमत के लिहाज से जस्टिन ट्रूडो की स्थिति कमजोर है और उनकी अपनी लिबरल पार्टी के 158 ही सांसद हैं।
ऐसे में वह तो किसी भी हालत में ऐसा नहीं कर सकते हैं। भारत के लिए यह अच्छा दौर है और कूटनीतिक रूप से उसकी साख बढ़ी हुई है। हमारे राजनेता दावा भी करते हैं कि विशाल देसी भारतीय प्रवासियों के कारण भारत की अधिक पहुंच है और वह सॉफ्ट पावर है। यह आबादी कई देशों में बेहद सफल रही है। हालांकि सॉफ्ट पावर के अपने फायदे भी हैं तो नुकसान भी।