भले ही आने वाले दशकों में अमेरिका की आर्थिक और सैन्य शक्ति कमजोर हो जाए, लेकिन उसकी सांस्कृतिक मजबूती पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। तमाम महाशक्तियों के साथ अक्सर ऐसा ही होता आया है। समय के साथ उनकी अर्थव्यवस्थाओं के शिथिल पड़ने के बावजूद विचारों और संस्कृति की दुनिया में उनकी धमक लंबे समय तक सुनाई देती है। आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका 1880 के दशक में ही ब्रिटेन से आधिक ताकतवर बन गया था लेकिन उसकी वैचारिक-सांस्कृतिक जमीन को मजबूत होने में 40-50 साल और लग गए। और इस बीच अस्तित्व में आया हॉलीवुड।
वैचारिक ताकत का तात्पर्य केवल फिल्मों और संगीत से नहीं है। किसी महाशक्ति की आंतरिक क्रियाशीलता कैसे शेष दुनिया पर असर डालती है, इसका पता उस देश की आंतरिक राजनीतिक बहसों से चलता है। किसी न किसी रूप में ये बहसें धुरी का काम करती हैं जिसके इर्द-गिर्द अन्य देशों की राजनीति घूमती दिखाई देती है।
अमेरिकी राजनीति ने भिन्न सामाजिक और आर्थिक ढांचे वाले देशों को किस तरह प्रभावित किया है, इस पर एक नजर डालते हैं। अमेरिका में नस्लीय उत्पीड़न का ऐसा कड़वा इतिहास रहा है, जिसकी नजीर दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती। ब्राजील जैसे कुछ अन्य देश भी आंशिक रूप से दास व्यापार प्रथा द्वारा निर्मित हुए थे और वहां भी कानूनी तौर पर गुलामी की प्रथा उतनी ही पुरानी थी जितनी अमेरिका में, या शायद उससे भी पुरानी।
लेकिन अमेरिका में जैसी दासता, संवैधानिक नागरिक अधिकार और पीढ़ियों से चली आ रही नस्लीय अलगाव की स्थिति रही वैसा और कहीं नहीं हुआ। इसका मतलब यह है कि अमेरिकी राजनीति जिस प्रकार इन मसलों से निपटती है अथवा उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है, वैसा कहीं और देखने को नहीं मिलता।
इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जब अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ विरोध-प्रदर्शनों या व्यापक स्तर पर युवा हिस्पैनिक पुरुषों ( लैटिन अमेरिकी देशों के स्पैनिश भाषी लोग) के डॉनल्ड ट्रंप का समर्थन करने जैसे नस्लीय आक्रोश फूटते हैं तो यह एक बेचैन समाज में उभरती बहुत ही अलग तरह की नस्लीय सहमति का रूप सामने आता है। जातीय या नस्लीय तनाव से जूझते अन्य देश इससे बहुत सीख नहीं ले सकते। यूरोप में नस्लीय अल्पसंख्यकों का अफ्रीकी-अमेरिकियों से एकदम अलग इतिहास रहा है। वहीं भारत में भी जातिगत भेदभाव है, जिसकी तुलना अक्सर नस्लीय उत्पीड़न से की जाती है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का सफल हिंदुत्व एजेंडा दिखाता है कि एक अलग तरीके से इसे कैसे राजनीति के लिए अपने पक्ष में किया जा सकता है। अमेरिका की नस्लीय राजनीति से दुनिया के अन्य देश कुछ सीख तो सकते हैं, लेकिन उन्हें यह याद रखना होगा कि इसमें से कुछ भी उनके लिए प्रासंगिक नहीं है। वे इन नीतियों को अपने यहां लागू नहीं कर सकते।
एक और चीज जो अमेरिका को खास बनाती है, वह है अपनी सरकार की भूमिका के प्रति उसका नजरिया। कहा जाता है कि अमेरिकी लोग छोटी सरकार को पसंद करते हैं। कुछ हद तक यह सही भी है। अमेरिका में सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 36 फीसदी है, जबकि जापान में यह 41 फीसदी और स्वीडन में 47 फीसदी तक है। लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका में बजटीय सीमा जैसी कोई अवधारणा नहीं है। सेंट लुइस के फेडरल रिजर्व बैंक के अनुसार जीडीपी के प्रतिशत के रूप में इसकी संघीय सरकार का घाटा 6.3 फीसदी है। ट्रंप सरकार का नया बजट विधेयक ऋण को बढ़ने से रोकने की कोई वास्तविक योजना सामने नहीं रखता, जिससे यह बोझ बढ़ता जा रहा है।
लंबे और मजबूत वित्तीय इतिहास वाली अर्थव्यवस्था के मालिक ब्रिटेन समेत कोई भी देश ऐसी आर्थिक अनियमितता से बच नहीं सकता। फिर भी ऐसा माना जाता है कि औद्योगिक नीति से लेकर विनियमन और पूंजीगत लाभ कर तक अमेरिका की आर्थिक बहसों और धारणाओं का शेष विश्व की आर्थिक नीतियों पर असर पड़ता है। क्या अन्य देश वास्तव में इससे प्रभावित होते हैं। यहां तक कि उस समय भी जब लोक वित्त में सबसे महत्त्वपूर्ण बाधा मानी जाने वाली सरकार की बजट सीमा उन पर लागू नहीं होती।
यह उम्मीद करना बेहद खतरनाक होगा कि कोई भी देश अमेरिका की सब्सिडी, व्यापार नीति, शोध, कर संरचना या उसकी नियामकीय बहसों से कोई नीतिगत सबक सीख सकता है या उन्हें अपने यहां लागू कर सकता है। क्योंकि सभी किसी न किसी तरह इस तथ्य से वाकिफ हैं कि अमेरिका वित्तीय बाजारों से बेखटके असीमित मात्रा में धन उधार ले सकता है जबकि कोई अन्य देश ऐसा नहीं कर सकता। हम सभी अमेरिका, वहां की राजनीति व नीतियों से प्रभावित हैं और दशकों तक रहेंगे भी, लेकिन यह केवल एक पर्यवेक्षक के रूप में हो, प्रतिभागी या शिष्य के रूप में ऐसा कतई न करें।