अगले साल आम चुनाव हैं और इससे पहले कीमतों में बढ़ोतरी का जिन्न सत्ता के गलियारों में भटक रहा है।
ऐसे में पिछले चुनावों की यादें धूमिल हो रही हैं, क्योंकि प्याज और चीनी के दामों में आए हालिया उछाल ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है और बढ़ती महंगाई दर (मुद्रास्फीति) का प्रबंधन केंद्रीय मसला बन चुका है। इस मामले में कई तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। मसलन, कीमतों पर काबू हो, फॉरवर्ड ट्रेडिंग पर पाबंदी लगे, निर्यात पर भी रोक लगे और आयात शुल्क में कटौती की जाए। सरकार विश्व अनाज बाजार में आए ‘तूफान’ का रोना भी रो रही है।
अनाजों से एथनॉल का उत्पादन किए जाने, जानवरों के खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग, कृषि के लिहाज से कुछ उम्दा क्षेत्रों में मौसम के मिजाज में परिवर्तन और दुनिया के खाद्य भंडार में आई गिरावट समेत कुछ और वजहों से पिछले 3 वर्षों में दुनिया भर में अनाजों की कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ग्लोबल लेवल पर बढ़ती खाद्य कीमतों की आगोश में आने से हम भी नहीं बच सकते, क्योंकि हमारी खाद्य अर्थव्यवस्था हमें आयात पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर बनाती है।
हमें भी खाद्य पदार्थों की कीमतों में ग्लोबल बढ़ोतरी की आंधी से जूझना पड़ता है और आयात पर मोटे पैसे खर्च करने पड़ते हैं, क्योंकि खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में हमने अब तक कुछ भी ठोस नहीं किया है।देश में अनाज की पैदावार जस की तस बनी हुई है। 1996-97 से लेकर 2005-06 के बीच सिंचित जमीन के क्षेत्र का विस्तार सालाना महज 0.5 फीसदी के हिसाब से हुआ।
1980-81 और 1996-97 के बीच यह आंकड़ा 2.5 फीसदी था। फर्टिलाइजरों के इस्तेमाल में तो पहले से ही गिरावट होनी शुरू हो गई थी। 1990-91 से लेकर अब तक फर्टिलाइजर के इस्तेमाल में सालाना महज 2.4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। सकल घरेलू पूंजी निर्माण में कृषि का योगदान 25 फीसदी हुआ करता था, जो पिछले कुछ वर्षों में गिरकर 15 फीसदी हो गया है।परेशान करने वाली सबसे बड़ी बात पैदावार बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होने वाली तकनीक के मोर्चे पर है, जिनका इस्तेमाल धान, गेहूं, मकई और सरसों आदि की नई किस्मों की खेती में किया जाता है।
पैदावार बढ़ोतरी की विकास दर 1996-97 से लेकर अब तक शून्य रही है, जो 1980-81 से 1996-97 के बीच सालाना 3 फीसदी के आसपास थी। वित्त वर्ष 2007-08 के लिए जारी आर्थिक समीक्षा के आंकड़े भी साफ तौर पर इशारा करते हैं कि कृषि क्षेत्र में रिसर्च गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सही तरीके से फंड का इंतजाम नहीं किया है। गैरप्रतिष्ठित और गैर-नियमित बीज सप्लायर्स ने इस कमी को पूरा करने की कोशिश की है और जैसा कि डॉक्टर वाई. के अलघ ने कहा है – यूपी में शंकर धान के व्यापक विस्तार के लिए कहीं न कहीं ‘सौम्य कानूनहीतना’ की स्थिति ही जिम्मेदार है।
चाहे सरकार कलाबाजारी रोकने की हरसंभव कोशिश क्यों न कर ले, पर फूड इकोनॉमी में आए तात्कालिक संकट से इस साल तो कम से कम छुटकारा नहीं मिलने वाला और इससे मैक्रो-इकोनोमी में उथल-पुथल आएगी ही। इसकी कई वजहे हैं। बाजार में बढ़ रही तरलता (किसानों को दी गई कर्जमाफी और सरकारी कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक मिलने वाला एरियर इस आग में घी का काम करेगा), खाद्य भंडार का ज्यादा न होना, घटिया जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) और अगले आम चुनावों का डंक कुछ ऐसे मामले हैं, जो मांग और मार्केट मैनेजमेंट की प्रक्रिया को ज्यादा जटिल बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे।
महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या हम यह जानते हैं कि देश की कृषि अर्थव्यवस्था में लंबे वक्त के लिए गति भरने के लिए कौन सी चीजें जरूरी हैं? सिर्फ यह नहीं कि चुनावी साल और चुनाव से एक साल पहले महंगाई दर का उचित प्रबंधन किए जाने पर जोर दिया जाए। मैंने पिछले महीने भी यह बात कही थी कि हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां हर तीन में से एक वयस्क और हर दो में से एक बच्चा कुपोषित है। बिजनेस स्टैंडर्ड के अपने लेख में मैंने जानकारी दी थी कि अनाज के उत्पादन में आई स्थिरता और कृषि विकास की रफ्तार कम होने की वहज से शहरी-ग्रामीण खाई बढ़ती जा रही है और दो क्षेत्रों के बीच दूरियां भी काफी बढ़ रही हैं।
मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ को लिया जा सकता है, जहां की 70 फीसदी और उससे ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है और विकास की दौड़ में काफी पीछे छूटती जा रही है।सरकार ने भी इन समस्याओं की गंभीरता को समझा है और कृषि विकास में नई ऊर्जा झोंकने के लिए कुछ पहलें भी की हैं। हाल ही में गठित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन और इस बार बजट में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के लिए दिया गया 3,000 करोड़ रुपये का फंड इसी ओर इशारा करता है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का सरोकार मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र में तकनीकी अपग्रेडेशन से है और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के जरिये राज्य सरकारों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना है कि वे कृषि क्षेत्र में तकनीकी विकास को बढ़ावा देने और उसके लिए फंड में विस्तार जैसे कार्यों पर जोर दें। पर पिछली स्कीमों के तजुर्बे इतने अच्छे नहीं हैं कि नई स्कीमों के बारे में आत्मविश्वास से लबरेज हुआ जाए।
1960 में हरित क्रांति की आशातीत कामयाबी के बाद हम ऐसी कामयाबी दोहराने के लिए इन जरियों से तमाम कोशिशें करते रहे हैं, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा है।पर समस्या की असली जड़ हमारी नीतियां हैं। हमें अनाज उत्पादन और कृषि परिचालन को लाभदायकता के स्तर तक ले जाने के बारे में सोचना होगा। इस साल किसानों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी समस्या के हल में मदद करेगी। पर किसानों की तकलीफ यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि वे सरकारी नीतियों के मारे हैं। जब भी विदेश में खाद्य पदार्थों की कीमतें अपने देश के मुकाबले थोड़ी कम होती हैं, तो सरकार इनका आयात करने लगती है और जब देश में खाद्य पदार्थों का भंडार बढ़ने लगता है, तो सरकार इनका निर्यात करने लगती है।
इसी तरह, कृषि क्षेत्र में निवेश पर जोर दिए जाने की जरूरत है। किसानों की सहभागिता से जल प्रबंधन का बेहतर इंतजाम किया जाना आवश्यक है, क्योंकि इस मामले में लोक कार्य विभागों की भूमिका बहुत अच्छी नहीं रही है। सरकार को सिंचाई से संबंधित पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, रिसर्च और उसके विस्तार जैसे कार्यों पर ज्यादा संजीदगी से निवेश करना होगा और इनके संचालन को गंभीरता से लेना होगा। घरेलू प्राइवेट सेक्टर सर्विस प्रोवाइडरों और संस्थागत नव्यशीलन को भी बढ़ावा देना होगा। जिस तरह अपनी मांगों के लिए उद्योग से जुड़े मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर की निगाहें उद्योग भवन पर टिकी होती हैं, उसी तरह शायद देश के किसानों की नजरें कृषि भवन पर टिकी हैं।