जिस तरह किसान क्षितिज की ओर ताकते हुए मॉनसून के आगमन की प्रतीक्षा और प्रार्थना करते हैं, उसी तरह हर कोई यह प्रतीक्षा कर रहा है कि देश के कारोबारी जगत के पूंजीगत चक्र में सुधार हो ताकि देश की आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान की जा सके, जो सन 2012 से ही गिरावट पर है। सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के प्रतिशत के रूप में कारोबारी निवेश 2022 में 11 फीसदी था जो 2008 के 17 फीसदी के उच्चतम स्तर से 6 फीसदी कम था।
चकित करने वाली बात यह है कि बीते एक दशक से यह दर 11 से 13 फीसदी के बीच बनी हुई है, जबकि बीते पांच साल में इसे प्रभावित करने वाले अन्य कारकों मसलन मुनाफा, बैंकिंग क्षेत्र के फंसे हुए कर्ज तथा कारोबारी कर्ज आदि में हालात सुधरे हैं। ऐसे में वक्त आ गया है कि कंपनियां दोबारा निवेश करना शुरू करें।
उदाहरण के लिए 2022 में कारोबारी मुनाफा बढ़कर सात फीसदी हो गया, जबकि 2015 से 2020 के बीच यह औसतन तीन फीसदी था। इसी प्रकार बैंकिंग क्षेत्र का फंसा हुआ कर्ज मार्च 2023 में चार फीसदी था, जबकि कुछ वर्ष पहले वह 11 फीसदी था। ऐसे में कारोबारी निवेश में कमी की वजह क्या है?
उत्तर का एक बुनियादी हिस्सा भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कारोबारी जगत के पैमाने में निहित है। हमने अपने एक पत्र ‘इंडियाज न्यू ग्रोथ रेसिपि: ग्लोबली कंपटीटिव लार्ज फर्म्स’ में कहा था कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में कारोबारी निवेश दो स्वतंत्र कारकों का काम है- अपनी बिक्री के प्रतिशत के रूप में कंपनियां कितना निवेश करती हैं और राष्ट्रीय आय में कारोबारी बिक्री की कितनी हिस्सेदारी है। इनमें से पहले की प्रकृति चक्रीय है] जबकि बाद वाले की ढांचागत। यह बात ध्यान देने लायक है कि इन दोनों कारकों ने 2004 से 2012 के बीच कारोबारी निवेश बढ़ाने में अहम योगदान किया।
बीते 25 वर्षों के दौरान निवेश के राष्ट्रीय खातों के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि औसतन कारोबारी जगत अपनी कुल बिक्री का 25 फीसदी निवेश करता है और 2022 में यह अनुपात 14 फीसदी था। ऐसे में अपनी बिक्री के हिस्से के रूप में कंपनियां निवेश से पीछे नहीं हट रही हैं। शायद इससे यह पता चल सकता है कि आखिर क्यों क्षमता का पूरा इस्तेमाल बढ़ा नहीं और 2014 से 2020 के बीच वह औसतन 73 फीसदी रहा।
यह इस आशंका के बावजूद हुआ कि कारोबारी निवेश नहीं कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप कारोबारी निवेश के अभी भी कम होने की एक प्रमुख वजह यह हो सकती है कि राष्ट्रीय आय में कंपनियों की हिस्सेदारी कम है। देश की जीडीपी में कंपनियों की बिक्री का योगदान जो एक दशक पहले 88 फीसदी के उच्चतम स्तर पर था, वह अब उससे 12 फीसदी कम है।
कारोबारी निवेश को टिकाऊ ढंग से उसके उच्चतम स्तर तक वापस ले जाने के लिए यह आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी बढ़ाई जाए। हिस्सेदारी इस बात से तय होती है कि घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था में ये कंपनियां कितनी उत्पादक साबित हो सकती हैं। आइए इनका एक-एक कर विश्लेषण करते हैं।
श्रम उत्पादकता के मामले में भारतीय कंपनियां उद्योग जगत की अपनी समकक्षों की तुलना में सात से आठ गुना और सेवा क्षेत्र में चार गुना तक अधिक उत्पादक हैं। सन 1991 से ही ये लगभग इसी स्तर पर हैं। उत्पादकता में अहम बढ़त को देखते हुए जब सन 1991 में कंपनियों को समान क्षेत्र की इजाजत दी गई और इसके लिए लाइसेंस और आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने तथा व्यापार उदारीकरण की व्यवस्था की गई। उनकी हिस्सेदारी 1995 के 52 फीसदी से बढ़कर 2012 में 82 फीसदी तक पहुंच गई। उदाहरण के लिए धातु उद्योग को 2002 से 2006 के बीच अनारक्षित किया गया। इसके चलते इस उद्योग में बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी 40 फीसदी से बढ़कर 52 फीसदी हो गई।
उसके बाद 2012 तक इसमें स्थिरता बनी रही और 2020 में इसमें गिरावट आई और यह 40 फीसदी पर आ गई। यह व्यापक रुझान कुछ अन्य उद्योगों में भी ऐसा ही है। उदाहरण के लिए वाहन क्षेत्र। बीते 5-10 वर्षों में कारोबारी हिस्सेदारी में गिरावट इसलिए आई कि कई बड़ी कंपनियां दिवालिया हो गईं, जो फंसे हुए कर्ज में तब्दील हो गया। इस कर्ज के निपटारे के बाद कारोबारी उत्पादन और उसकी कम हिस्सेदारी में सुधार देखने को मिल सकता है।
निर्यात के मोर्चे पर भी कुछ ऐसा ही हुआ। देश के कुल निर्यात के 55 से 60 फीसदी के लिए कंपनियां जिम्मेदार हैं और इसलिए उनकी प्रतिस्पर्धा भारतीय निर्यात के लिए काफी अहम है। निर्यात की प्रतिस्पर्धा को परखने के लिए हमें निर्यात-गुणज (मल्टीपल) पर नजर डालनी होगी यानी वैश्विक निर्यात की तुलना में भारतीय निर्यात की वृद्धि दर पर। सन 1991 के सुधारों के पहले यह अनुपात प्राय: एक था। 1991 के सुधारों के बाद यह दो हो गया।
नतीजतन वैश्विक व्यापार में हमारी हिस्सेदारी 1991 के 0.5 फीसदी से बढ़कर 2020 में 2.1 फीसदी हो गई। हालांकि यह निर्यात गुणज बीते दो दशकों से दो पर स्थिर है, जिससे संकेत मिलता है कि हम विश्व स्तर पर सुधारों के पहले की तुलना में काफी अधिक प्रतिस्पर्धी बने रहे, लेकिन समय के साथ प्रतिस्पर्धा का स्तर बढ़ा नहीं है। यही वजह है कि विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी उतनी तेजी से नहीं बढ़ी है।
कम कारोबारी निवेश के लिए कंपनियों के निवेश न करने को जिम्मेदार ठहराते हुए हमने भारतीय अर्थव्यवस्था में निगमों के आकार के ढांचागत घटक तथा निवेश पर इसके असर की अनदेखी कर दी है। भारतीय अर्थव्यवस्था के फंसे कर्ज की चुनौती से उबरने के बाद समय के साथ जीडीपी में कंपनियों की हिस्सेदारी सुधरने की उम्मीद है। हालांकि शायद इतनी कोशिश से कारोबारी निवेश 2008 के स्तर के आसपास न लौटे, लेकिन अगर कंपनियों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनना है, तो ऐसे सुधार करने होंगे, जो उन्हें अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बनाएं।
प्रतिस्पर्धा में यह सुधार कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेगा कि वे अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा निवेश करें ताकि वे बाहरी बाजार में अपनी पहुंच बढ़ा सकें। ऐसा करने से वे कारोबारी चक्र में भी बेहतर स्थिति में आएंगी।
(लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस में क्रमश: सीओओ एवं सीनियर फेलो, और रिसर्च एसोसिएट हैं)