अगर हाल की कोई घटना हमें उत्साहित करती है, तो वह है – टाटा द्वारा जगुआर और लैंडरोवर का अधिग्रहण।
कुछ साल पहले हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन अब यह हकीकत है। वह भी टाटा द्वारा कोरस जैसी बड़ी कंपनी के अधिग्रहण के बाद। दरअसल, इस सफलता के पीछे टाटा द्वारा सबको मिलाजुलाकर चलने की रणनीति का हाथ है।
बहरहाल, देश के राजनीतिक हलकों में भारत के परमाणु ईंधन और तकनीक प्राप्त करने की कोशिशों पर भारी खींचतान चल रही है। इस मसले पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार और वाम दलों के बीच भारी रस्साकशी चल रही है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इस पूरी कवायद में गैरजिम्मेदार विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है। यहां सवाल यह उठता है कि इन गतिरोधों के मद्देनजर इस पर आम राय बनाने के लिए किस तरह की रणनीति की जरूरत है?
इस लेख में गेम थ्योरी के नजरिये से इस मसले को देखने की कोशिश की गई है। गेम थ्योरी से आशय किसी भी मसले पर फैसले लेने में संबंधित पक्ष द्वारा उठाए जाने वाले कदमों की संभावना का आकलन करना है।
परमाणु करार मसले के मद्देनजर जारी कई वास्तविक परिस्थितियों को नॉन-जीरो-गेम की तरह देखा जा सकता है। इनमें 123 समझौते पर यूपीए और लेफ्ट का विवाद भी शामिल है, क्योंकि इसमें यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है कि एक पक्ष के नुकसान के बदले दूसरे पक्ष को फायदा पहुंचेगा। गेम थ्योरी हमें इस मसले को देखने का 2 नजरिया मुहैया कराता है, जिसके जरिये सहयोग की बदौलत बेहतर नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं। ये इस तरह हैं:
1. जब किसी भी मामले में शामिल पक्ष अपने हित में तार्किक विकल्प चुनते हैं तो उनका यह कदम कम से कम लाभदायक साबित होता है। सिर्फ स्वहित की रणनीति के तहत असहयोग का यह आदर्श रूप है। जब तक कोई भी पक्ष अपनी इस रणनीति को बदलने के लिए पहल नहीं करता, तब तक इससे किसी भी पक्ष को फायदा नहीं मिल सकता। परमाणु करार मसले पर यूपीए-वाम मोर्चे की हालत कुछ इसी तरह की है।
2. अगर दोनों पक्ष किसी भी मसले पर सहयोग के लिए राजी हो जाते हैं तो यह दोनों के लिए ज्यादा से ज्यादा फायदेमंद होता है। गठबंधन का यही सिध्दांत है और इसे हम सभी जानते हैं। बहरहाल इस गतिरोध के विभिन्न पहलुओं के विश्लेशण के जरिये हमें इस समस्या को दूर करने का रास्ता दिखाई देगा।
परमाणु गतिरोध
एक ओर जहां कांग्रेस और यूपीए परमाणु ईंधन और तकनीक के मामले में अमेरिका से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहते हैं, जबकि वाम दल अमेरिका से भारत के रिश्ते को काफी सीमित रूप में देखना चाहते हैं।
दोनों पक्षों के लिए समाधान
अगर यूपीए और लेफ्ट के बीच रस्साकशी को परमाणु करार और अमेरिका के साथ साझीदारी से जोड़ने के बजाय वोटरों पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में देखा जाए तो क्या होगा? यानी दोनों पक्ष इसे सत्ता में बने रहने के हथियार के रूप में देखते हैं। गेम थ्योरी ऐसा रास्ता निकालने में सक्षम होगी जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य होगा। इससे न सिर्फ भारत को ईंधन और तकनीक मिल सकेगी, बल्कि दोनों पार्टियों की चुनावी संभावनाओं पर भी इसका अनुकूल असर पड़ेगा।
दोबारा तय हों प्राथमिकताएं
जैसा कि ऊपर भी जिक्र किया गया है अमेरिका के साथ साझीदारी पर जारी दुविधा से परमाणु ईंधन और तकनीक प्राप्त करने का भारत का मकसद पूरा नहीं हो सकेगा, क्योंकि इसके लिए एक हद तक अमेरिकी साझीदारी जरूरी है। हालांकि अगर यूपीए सरकार अमेरिका के साथ साझीदारी को सीमित कर ले तो वाम दल अमेरिका के साथ होने वाले हर समझौते का विरोध नहीं करेंगे। बशर्ते दोनों पक्ष यथासंभव एक-दूसरे का सहयोग करें। इसके तहत प्राथमिकताएं कुछ इस तरह तय किए जाने की जरूरत है।
1. परमाणु ईंधन के लिए हमें अमेरिका से साझीदारी करनी चाहिए और
2. चुनावी लाभ के मद्देनजर दोनों पक्षों को अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करनी चाहिए।
फर्ज कीजिए कि यूपीए और वाम दल अमेरिका के साथ सहयोग के लिए राजी हो जाते हैं, जो परमाणु करार पर गतिरोध दूर करने के लिए जरूरी है। साथ ही वाम दलों ने अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव कर अप्रत्यक्ष करों (मसलन सीमा व उत्पाद शुल्क) में कटौती को अपनी कार्यसूची में शामिल कर लिया है। अपनी-अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव कर दोनों पक्ष अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे और साथ ही देश का भी भला होगा।
परमाणु करार के बारीक पहलुओं पर निगाह डालें तो पता चलता है कि भारत को परमाणु ईंधन और तकनीक प्राप्त करने के लिए न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) की मंजूरी जरूरी है। यह मंजूरी अमेरिका से सहयोग के बगैर मुमकिन नहीं हो सकती। मिसाल के तौर पर अगर वाम दल परमाणु ईंधन और तकनीक चीन और रूस जैसे देशों से प्राप्त करना चाहते हैं, तो यह भी अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) की मंजूरी के बगैर मुमकिन नहीं है।
इसके मद्देनजर गतिरोध को दूर करने के लिए यूपीए और वाम दलों को अपने-अपने रवैये में बदलाव करना ही होगा।123 समझौते पर यूपीए सरकार की पहल अमेरिका से भारत की सामरिक साझीदारी की उसकी इच्छा को दर्शाता है। अगर भारत अमेरिका से सहयोग नहीं करता है, तो परमाणु ईंधन और सामग्री की सप्लाई से वह वंचित रह जाएगा। इसके अलावा हमें अन्य अमेरिकी टेक्नोलोजी और उपकरणों से भी वंचित रहना पड़ सकता है।
मसलन, आतंकवादी हरकतों की निगरानी से संबंधित उपकरण, जिसे काफी ऊंचाई पर तैनात किया जा सकता है। गेम थ्योरी के आधार पर कहा जा सकता है कि अगर वाम दल अमेरिका के साथ सहयोग पर सहमत नहीं होते हैं, तो भारत के लिए परमाणु ईंधन और तकनीक प्राप्त करना संभव नहीं हो सकेगा। इसके मद्देनजर दोनों पक्षों को अपनी-अपनी प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करने की जरूरत है।
हालांकि अभी यह कहना मुश्किल है कि यूपीए और वाम दल परमाणु गतिरोध को दूर करने के लिए किस हद तक जाएंगे, लेकिन टाटा ने सहयोग की सफलता का नमूना पूरी दुनिया के सामने पेश किया है।