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  आज का अखबार  आरबीआई का क्षेत्रीय मॉडल कितना सार्थक
आज का अखबारलेख

आरबीआई का क्षेत्रीय मॉडल कितना सार्थक

टी सी ए श्रीनिवास-राघवन टी सी ए श्रीनिवास-राघवन —February 13, 2023 11:25 PM IST
© BS
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यह सर्वमान्य बात से अलग एक गैरपरंपरागत विचार हो सकता है: क्या भारत में क्षेत्रीय मौद्रिक संस्थान होने चाहिए? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह के केंद्रीय बैंकिंग मॉडल का अनुसरण करना चाहते हैं। क्या यह हमारे देश के मौजूदा केंद्रीकृत मॉडल की तरह हो जो वास्तव में एक औपनिवेशिक विरासत है या फिर अमेरिका की तरह विकेंद्रीकृत मॉडल को अपनाया जाए।

यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम इस सदी में किस तरह के राज्यों के संघ के रूप में विकसित होना चाहते हैं। हालांकि इसकी कार्यप्रणाली में तेजी से खामियां आती जा रही हैं क्योंकि कई संकीर्ण विचारधारा वाले राजनेता इसे कमजोर बना रहे हैं।

या जिस प्रकार अलग-अलग सेवाएं देने वाले संस्थाओं की अधिकता से सामाजिक जनोपयोगी सेवाएं नहीं बढ़ती हैं ठीक उसी तरह अगर भारतीय संघ में प्रत्येक राज्य अपनी जनोपयोगी सेवाओं को अधिकतम स्तर पर ले जाएं तो इसका मतलब व्यापक रूप से संघ के लिए आपदाजनक स्थिति बन सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में मैंने प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों, केंद्रीय बैंकरों और अर्थशास्त्रियों से अमेरिकी तर्ज वाली प्रणाली के विचार पर चर्चा की है। उन सभी ने मुझे इस पर विचार नहीं करने के लिए कहा। मुझे वर्ष 1988 में यही बोला गया था जब मैंने एक शोध पत्र में प्रस्ताव दिया था कि भारत को श्रम के निर्यात और उपग्रहों का निर्माण करके कौशल वाली सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

मैंने लोगों को यह भी याद दिलाया है कि प्रशासन, विधायिका, न्यायपालिका और कई अन्य संस्थानों में भी राज्य स्तरीय निकाय हैं। ये सभी एक नियामक भूमिका भी निभाते हैं। अब ऐसे में कोई विशेष कारण नहीं है कि इसे भारत के मौद्रिक प्राधिकरण, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पर भी लागू न किया जाए।

खैर, मुद्दा यह है कि अपनी सराहनीय क्षमता और बेहतर रिकॉर्ड के बावजूद, आरबीआई शायद उतनी अच्छी तरह से काम नहीं कर रहा है जितना उसे करना चाहिए। इसके सामने व्यापक स्तर का काम है। भारत सभी आर्थिक पैमाने पर बड़ा हो गया है।आरबीआई की विवशता क्षेत्रीय मुद्रास्फीति दरों में विभिन्नता से ही बयां होती है।

अखिल भारतीय स्तर के मुद्रास्फीति के आंकड़े काफी व्यापक हैं जो उतने उपयोगी साबित नहीं होते हैं। इसमें न केवल विभिन्न राज्यों के बीच के अंतर का पता नहीं चलता बल्कि यह एक ही राज्य के भीतर शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों की दरों में अंतर या देश के विभिन्न हिस्से में खरीदे जाने वाले एक ही उत्पाद के लिए महंगाई दरों में अंतर जैसी चीजों को बताने में विफल रहता है।

दरअसल, आरबीआई के पास अर्थव्यवस्था की निगरानी करने की क्षमता नहीं है, जो इतनी तेजी से बढ़ रही है और साल-दर-साल बड़ी होती जा रही है। इसके विपरीत, अमेरिका में 12 फेडरल रिजर्व बैंक हैं, जिनकी 24 शाखाएं फेडरल रिजर्व सिस्टम बनती हैं। इनमें से प्रत्येक अपनी निर्दिष्ट क्षेत्र की सीमाओं के भीतर संचालित होती हैं जो एक से अधिक राज्यों में फैले हुए हैं।

यह तर्क दिया जाता है कि आरबीआई के क्षेत्रीय कार्यालय अमेरिका की प्रणाली की तरह ही उसी मकसद से सेवाएं देते हैं। आरबीआई के 25 क्षेत्रीय कार्यालय के अंतर्गत अमेरिकी रिजर्व बैंकों की संख्या के दोगुने से अधिक बैंक हैं। लेकिन ये स्वतंत्र संस्थाएं नहीं हैं। वे सीधी पदानुक्रम वाली शाखाएं हैं।

क्या इससे कोई फर्क पड़ता है? एक बात जरूर कही जा सकती है कि या तो हम गलत हैं या फिर अमेरिका की प्रणाली। यह आपको तय करना है। लेकिन अगर आपको लगता है कि वे गलत हैं तब भी आपको यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि उनकी मौद्रिक और राजकोषीय व्यवस्था हमसे बेहतर तरीके से क्यों काम करती है।

सामान्य कार्यों के अलावा, अमेरिकी राज्य के फेड आमतौर पर फेडरल रिजर्व सिस्टम में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके लिए उनमें क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था की गहरी समझ भी होती है जिसे बेज बुक कहा जाता है।

हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या आरबीआई के क्षेत्रीय कार्यालय इस कार्य को उतने ही प्रभावी ढंग से करते हैं जितना कि क्षेत्रीय फेड अमेरिका में करते हैं। दरअसल, क्या वे खुद को इस क्षेत्र के प्रतिनिधियों के रूप में देखते हैं? या वे खुद को उन गवर्नरों का आर्थिक समकक्ष मानते हैं जो राज्यों में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं? मुझे लगता है कि वे ऐसा करते हैं। दरअसल अब यह बात पुरानी पड़ गई है कि ‘मूल चीजों पर नजर रखना होगा।‘

हम तर्क के लिए यह मान लेते हैं कि संसद द्वारा आरबीआई के 25 क्षेत्रीय कार्यालयों को मिलाकर पांच अर्ध-स्वतंत्र संस्थाओं, क्षेत्रीय आरबीआई में तब्दील कर भारत के केंद्रीय बैंकिंग प्राधिकरण में सुधार करने का निर्णय लिया गया है। इनका स्वामित्व इस क्षेत्र के सबसे बड़े बैंकों और निश्चित रूप से शीर्ष बैंक के तहत होगा।

सभी के पास समान वोट हैं। (ध्यान देने की बात यह है कि यह वर्ष 2006-13 के दौरान वित्त मंत्रालय की आक्रामक सक्रियता के विपरीत है, जब इसने मंत्रालय को सर्वोच्च बनाकर आरबीआई की शक्तियों को कम करने की मांग की थी।)

यह एकमात्र सवाल मायने रखता है कि क्या यह भारत की मौद्रिक स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। मुझे नहीं लगता कि यह कैसे संभव होगा जब पांच क्षेत्रीय आरबीआई की भुगतान व्यवस्था, केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने के बजाय अपने क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने तक सीमित होगी।

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