वर्ष 2018 में विश्व बैंक के लॉजिस्टिक प्रदर्शन सूचकांक में भारत 44वें स्थान पर था। शीर्ष पांच पायदान पर जर्मनी, स्वीडन, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया और जापान जैसे देशों का दबदबा था। चीन इस सूचकांक में 26वें स्थान पर था। उसी दौरान भारत में लॉजिस्टिक की वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता के लिहाज से कमजोर प्रभाव को लेकर गंभीर चर्चा शुरू हुई। इसी वजह से सितंबर 2022 में राष्ट्रीय लॉजिस्टिक नीति (एनएलपी) की घोषणा की गई।
एनएलपी का लक्ष्य पांच सूत्री रणनीति के माध्यम से लॉजिस्टिक की लागत कम करना है। इसके तहत पहला लक्ष्य, रेलवे की हिस्सेदारी मौजूदा 28 प्रतिशत से बढ़ाकर 40 प्रतिशत करना है। दूसरा, बहु-मॉडल लॉजिस्टिक पार्क स्थापित किए जाने हैं। तीसरा, जल परिवहन, तटीय नौवहन और पाइपलाइनों के माध्यम से तरल और थोक माल ले जाने पर विशेष जोर दिया जाएगा। चौथा, उन 15 उद्योगों के लिए विशिष्ट योजनाएं बनाई जानी चाहिए जिनमें थोक माल ढुलाई का परिवहन शामिल होता है। पांचवां, निगरानी के लिए डिजिटल एकीकरण जरूरी है।
हालांकि फिलहाल मुख्य सवाल लॉजिस्टिक लागत के स्तर पर बना हुआ है और इस बात पर जोर है कि एनएलपी इसे किस हद तक कम कर पाएगी। एनएलपी की शुरुआत इस बुनियादी मान्यता से शुरू हुई है कि भारत की लॉजिस्टिक लागत, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 13 प्रतिशत के बराबर है जिसे वर्ष 2030 तक घटाकर 8 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है।
दक्षिण कोरिया और सिंगापुर जैसी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में यह 13 प्रतिशत काफी अधिक है, जहां लॉजिस्टिक लागत 7-10 प्रतिशत तक होने का अनुमान जताया जाता है। बिजनेस लाइन के एक लेख में, नैशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के संजीव पोहित ने इस 13 प्रतिशत अनुमान की सटीकता पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि यह आंकड़ा आर्मस्ट्रांग ऐंड एसोसिएट्स नाम की एक सलाहकार कंपनी से लिया गया था जो आंकड़ा विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए उपयुक्त मॉडल का इस्तेमाल कर हासिल किया गया था। प्रोफेसर पोहित ने तर्क दिया कि भारत का मौजूदा आंकड़ा पहले से ही एक अंक में है।
भारत के एक प्रमुख थिंक-टैंक के नजरिये ने लॉजिस्टिक क्षेत्र में एक नई चर्चा छेड़ दी। इसका तार्किक निष्कर्ष यह था कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था की विशेषताओं के अनुरूप एक मॉडल बनाना चाहिए। लागत तय करने के लिहाज से इस बुनियादी अध्ययन के लिए एनसीएईआर से बेहतर कौन हो सकता है? इसलिए, दिसंबर 2023 के मध्य में, एनसीएईआर एक अंतरिम श्वेत-पत्र पेश किया जिसका शीर्षक था, ‘लॉजिस्टिक कॉस्ट इन इंडिया-असेसमेंट ऐंड लॉन्ग-टर्म फ्रेमवर्क’।
एनसीएईआर के अध्ययन में पाया गया कि वर्ष 2011-12 से जीडीपी के प्रतिशत के रूप में लॉजिस्टिक लागत एक-अंक में रही है और तर्क दिया है कि भारत के लिए, ‘कुल लॉजिस्टिक लागत 8-9 प्रतिशत जीडीपी से अधिक होने की संभावना नहीं है’। यह प्रारंभिक निष्कर्ष दो बुनियादी मुद्दों को उठाती है। पहला, क्या इसका अर्थ है कि भारत लॉजिस्टिक लागत के मामले में वैश्विक स्तर पर खरा उतरता है और क्या ऊंची लागतें प्रतिस्पर्धात्मक रूप से नुकसान पहुंचा सकती हैं? स्पष्ट रूप से, असहमति रखने वालों की संख्या अधिक होगी।
एनएलपी का लक्ष्य विभिन्न हस्तक्षेप के माध्यम से लागत को 13 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत करना था। चूंकि एनसीएईआर का कहना है कि यह पहले से ही 8 प्रतिशत के स्तर पर है तब भारत का अगला लक्ष्य क्या होना चाहिए? सवाल यह है कि क्या यह तर्क उचित है कि इस लक्ष्य को अमेरिका के 5-6 प्रतिशत के स्तर पर लाने के लिए संशोधित किया जाना चाहिए?
अंतिम निर्णय लेने से पहले, कई परस्पर संबंधित मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए। पहला मुद्दा यह है कि लॉजिस्टिक लागत को जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बताने का चलन है। एनसीएईआर की पूनम मुंजाल और संजीव पोहित बताते हैं कि कृषि और सेवा-आधारित अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह आदर्श नहीं है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि मुख्य रूप से सड़क परिवहन पर निर्भर अर्थव्यवस्था में लॉजिस्टिक लागत अधिक हो सकती है। यह नजरिया जीडीपी के प्रतिशत की तुलना में बिक्री प्रतिशत को बेहतर संकेतक के रूप में पेश करता है।
दूसरा मुद्दा यह है कि अगर भारत को लॉजिस्टिक लागत मापने और इसकी निगरानी करने के लिए अपना खुद का ढांचा बनाना है तब बड़े पैमाने पर मौजूदा डेटा को शामिल कर और इस अर्थमितीय मॉडल के बारे में आम सहमति बनाने के लिए कहीं अधिक गहन प्रक्रिया की आवश्यकता है।
तीसरा मुद्दा यह है कि जीडीपी या बिक्री के प्रतिशत के रूप में दर्शाए गए वृहद अर्थव्यवस्था के आंकड़े, लक्षित नीतिगत सुधारों के लिए ज्यादा मददगार नहीं हो सकते हैं। विभिन्न उत्पाद समूहों या उद्योगों में स्थिति को दर्शाने के लिए उद्योग आधारित संकेतक बेहतर हो सकते हैं। इस विषय पर टिप्पणी करते हुए, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देबरॉय ने हाल ही में एक लेख में कहा, ‘लॉजिस्टिक क्षेत्र का प्रदर्शन समय के साथ बेहतर हुआ है लेकिन यह हर राज्य के लिए सच नहीं है। कुछ राज्य पीछे छूट गए हैं।’ इसलिए, आंकड़ों को भौगोलिक स्तर पर अलग करने की भी आवश्यकता है।
लॉजिस्टिक लागत पर यह बहस ऐसे समय हो रही है जब दुनियाभर में वस्तुओं के परिवहन के तरीके में बुनियादी बदलाव आ रहे हैं। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं अब आम हो गई हैं और दुनिया भर से मिलने वाले घटक तत्त्वों के चलते निर्माण प्रक्रिया का एकीकरण हो गया है। तकनीकी प्रगति और ड्रोन से सामान पहुंचाने से लेकर विभिन्न परिवहन माध्यमों के बीच बिना किसी बाधा के जुड़ाव इस बात का संकेत देती हैं कि आने वाले समय में और भी बड़े बदलाव दिखेंगे।
भारत में लॉजिस्टिक क्षेत्र पर ऐसे वक्त में जोर दिया जा रहा है जब परिवहन व्यवस्था के बुनियादी ढांचे का एक बड़ा हिस्सा पहले ही तैयार हो चुका है जैसे नई बनी एक्सप्रेसवे से लेकर माल ढुलाई गलियारों (डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर) तक। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और ई-चालान प्रणाली ने परिवहन दस्तावेजों की प्रकृति बदल दी है।
इसके साथ ही माल की गतिविधि से जुड़ी ऑनलाइन निगरानी भी शुरू हो चुकी है। इसके अलावा, भारत का विकास सिर्फ तटीय क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के आंतरिक इलाकों को भी इसमें शामिल किया जा रहा है, जहां गति शक्ति मंच आवश्यक संपर्क सुविधाओं के निर्माण में जुटा है।
इन सभी पहलुओं को देखते हुए देश की लॉजिस्टिक लागत को मापने और निगरानी करने के लिए एक नए सुदृढ़ ढांचे और संरचना की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गई है।
(लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ और द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंधन ट्रस्टी हैं)