आईमैक्स ने 1960 के दशक में ऐसे अत्याधुनिक स्क्रीन डिजाइन किए, जो दर्शकों को सम्मोहित ही कर लेते थे। इनका ज्यादातर इस्तेमाल संग्रहालयों में या इतिहास से जुड़े वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) बनाने में किया जाता था। आईमैक्स का अधिग्रहण 1994 में एक निवेश बैंकिंग फर्म ने कर लिया, जिसे एक साझेदार के साथ चला रहे वकील और उद्यमी रिचर्ड गेलफॉण्ड कंपनी के निदेशक मंडल में आ गए।
गेलफॉण्ड अब कंपनी के मुख्य कार्य अधिकारी (सीईओ) हैं। उस समय मुख्यधारा के स्टूडियो और थिएटर कंपनियों को इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए राजी करना लगभग असंभव था। इस तकनीक पर फिल्में देखना एकदम अद्भुत लगता था मगर यह बेहद खर्चीला और बेतरतीब था।
उसी बीच वर्ष 2001 में आईमैक्स ने एक एल्गोरिदम तैयार किया, जिसकी मदद से वह आम फिल्मों को आईमैक्सस तकनीक में फॉर्मैट कर पाई और खर्च काफी कम हो गया। उसी वक्त थिएटर डिजिटल होने लगे थे और फिल्मकार भी आईमैक्स उपकरणों का इस्तेमाल कर फिल्में बनाने लगे थे।
2006 तक ‘हैरी पॉटर ऐंड द गॉबलेट ऑफ फायर’, ‘हैपी फीट’ और ‘ट्रांसफॉर्मर्स’ जैसी फिल्मों के कारण आईमैक्स फॉर्मैट अजनबी नहीं रह गया और 2009 में जेम्स कैमरॉन की सुपरहिट फिल्म ‘अवतार’ इसे पूरी तरह मुख्यधारा में ले आई। इस फिल्म ने दुनिया भर में करीब 3 अरब डॉलर कमाए और इसमें से 25 करोड़ डॉलर (लगभग 9 प्रतिशत) 163 आईमैक्स स्क्रीन से ही आए।
2023 तक यह तकनीक दुनिया भर में 1,705 स्क्रीन पर आ गई मगर यह संख्या कुल स्क्रीन के 1 प्रतिशत से भी कम थी। फिर भी फिल्मों से दुनिया भर में होने वाली कमाई में 3.5 प्रतिशत (1 अरब डॉलर से ज्यादा) आईमैक्स से ही आई। इसकी वजह दर्शक हैं, जो ‘आईमैक्स’ फिल्म देखने के लिए आम टिकट के मुकाबले तीन से पांच गुना कीमत खर्च करने को तैयार हैं।
2014 में आई जॉनथन और क्रिस्टॉफर नॉलन की फिल्म ‘इंटरस्टेलर’ में ब्लैकहोल के रास्ते दूसरे युग और दूसरी दुनिया में पहुंचने की कहानी थी। ब्लैकहोल और दूसरी दुनिया का न तो कोई सबूत है और न ही कोई तस्वीर। लेकिन खगोल-भौतिकीविद तथा नोबेल से सम्मानित किप थॉर्न ने अवार्ड जीतने वाली विजुअल इफेक्ट फर्म डीएनईजी के साथ मिलकर इसे साकार कर दिया।
इंटरस्टेलर ने पूरी दुनिया में 70.5 करोड़ डॉलर से अधिक कमाए और विज्ञान पत्रिकाओं ने इसकी जमकर तारीफ की। मुंबई की कंपनी प्राइम फोकस की सहायक फर्म डीएनईजी ने इस फिल्म के लिए ऑस्कर भी जीता। डीएनईजी लंदन से काम करती है और इंटरस्टेलर के अलावा वह ड्यून (पार्ट वन), टेनेट तथा इंसेप्शन समेत छह अन्य फिल्मों के लिए भी ऑस्कर जीत चुकी है। प्राइम फोकस के संस्थापक और डीएनईजी के सीईओ नमित मल्होत्रा का कहना है कि फिल्मकार सपना देख सकते हैं तो उनकी फर्म उसे साकार कर सकती है।
कहानी कहने में हुई तकनीकी प्रगति में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) को भी जोड़ दीजिए। एआई की मदद से कहानी कहने की कोशिश में दुनिया और भारत के स्टार्टअप जुटे पड़े हैं। बेंगलूरु की न्यूरलगैराज जैसी कंपनियां विजुअलडब की सुविधा देती हैं। जेनरेटिव एआई वाली यह तकनीक किरदार के हावभाव और हरकतों के साथ डबिंग का ऐसा तालमेल बिठा देती है कि वीडियो को तेलुगु से कोरियाई या अंग्रेजी या हिंदी में डब किए जाने पर कुछ भी अटपटा नहीं लगता।
ब्रिटानिया और अल्ट्राटेक जैसे ब्रांडों ने विविधता से भरे देसी उपभोक्ता बाजार में विज्ञापन फिल्में प्रदर्शित करने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया है। न्यूरलगैराज ने इसी साल डिजिटल सिनेमा वितरण फर्म यूएफओ मूवीज के साथ भी करार किया है ताकि स्टूडियो उसकी तकनीक का इस्तेमाल करें। कई भाषाओं में डब की गई फिल्में देश भर या दुनिया भर में दिखाने वाली स्ट्रीमिंग सेवाएं या थिएटर खर्च में एक तिहाई या ज्यादा कमी लाने वाली तकनीक का स्वागत क्यों नहीं करेंगे।
चेन्नई की कंपनी एशियाविल इंटरैक्टिव के ऐप एवी ने गेमिंग और फिक्शन को जोड़ने वाली तकनीक का पेटेंट कराया है। इसके 45-45 मिनट के दो शो में से एक ‘हू किल्ड कविता’ है। यह एक वीडियो है, जिसमें आपको सुराग ढूंढने होते हैं, संदिग्धों का पता लगाना होता है, लिखावट जांचनी होती है और ऐसे कई काम करने होते हैं।
ज़ी एंटरटेनमेंट ने जेनरेटिव एआईटूल स्क्रिप्टजीपीटी तैयार किया है, जो आपको किरदारों, कहानियों, पटकथाओं और उनमें आने वाले मोड़ को पहचानने तथा समझने में मदद करता है। इससे बड़ी तादाद में दर्शक आ सकते हैं और रेटिंग बढ़ सकती है। स्क्रीनिंग और फिल्म निर्माण से लेकर लेखन और पटकथा तक तकनीक से आ रही रचनात्मकता कारोबार में तगड़ी उथलपुथल ला रही है।
दुनिया भर में 2016 में शुरू हुई स्ट्रीमिंग भारी तादाद में दर्शकों को अपने साथ ले जा रही है। 2017 में दुनिया भर में बॉक्स ऑफिस पर 42 अरब डॉलर की कमाई हुई थी, जो 2023 में घटकर 34 अरब डॉलर रह गई। लोगों को थिएटर में लाना है तो ऑपनहाइमर, बार्बी या पठान जैसा कुछ बिल्कुल अलग करना होगा। इसका मतलब है कि आपको या तो भव्यता और विजुअल इफेक्ट डालने होंगे या ऐसा सितारा लाना होगा, जिसे दर्शक छोटे पर्दे के बजाय बड़े पर्दे पर ही देखना चाहते हैं। साथ ही आपको स्क्रीन भी ऐसा चाहिए, जिस पर फिल्म देखने के लिए दर्शक घर से निकलने को मजबूर हों।
लेकिन सवाल बरकरार है कि कब तकनीक कहानी का सहारा बनना बंद कर देती है और खुद कहानी बन जाती है? किसी कहानी को कितने और किस तरह के विजुअल इफेक्ट, टूल या गिज्मो की जरूरत है यह दर्शकों और फिल्मकारों को ही तय करना है। मल्होत्रा कहते हैं, ‘तकनीक, टूल, सुपरस्टार का कोई मतलब नहीं है। लोगों को केवल कहानी से मतलब होता है। निर्देशक दूसरे काल और दूसरी दुनिया में जाने की कहानी दिखाना चाहता है तो वह जरूरी टूल्स के बगैर ऐसा नहीं कर सकता। ये सब कहानी की जरूरत पूरी करने के लिए ही हैं।’
यह सोचने वाली बात है। ऑपनहाइमर या ड्यून भव्य फिल्में नहीं हैं। वे असाधारण, वास्तविक या काल्पकनिक घटनाओं तथा माहौल की कहानी हैं। मिशन इंपॉसिबल, फ्यूरिओसा और ब्रह्मास्त्र में कहानी के साथ भव्यता भी है। दोनों तरह की फिल्में कामयाब रहीं मगर हाल में मारवल की कई फिल्में या स्पेशल इफेक्ट से भरी फिल्में कहानी में दम नहीं होने की वजह से चित हो गईं।
तकनीक में जेनरेटिव एआई का इस्तेमाल हो या न हो, यह बात दोनों पर लागू होती है। जेनरेटिव एआई जैसी समझ भरी तकनीक के साथ एक पेच और है। इसे सिखाना पड़ता है, जो पुरानी फिल्मों या कार्यक्रमों के जरिये ही मुमकिन है। अब लेखक, फिल्मकार और अभिनेता कानून का सहारा ले रहे हैं ताकि एआई को सिखाने के लिए उनकी फिल्मों का इस्तेमाल नहीं किया जा सके।
ऐसे में जेनरेटिव एआई को कुछ भी तैयार या जेनरेट करने के लिए पर्याप्त सामग्री या डेटा ही नहीं मिलेगा या उसे सीखने के लिए घटिया वीडियो अथवा कहानियां ही मिलेंगी। इससे वह घटिया सामग्री ही तैयार कर पाएगी। फिलहाल एआई देखने का अनुभव बेहतर बनाने, खर्च घटाने, क्षमता बढ़ाने और कभी-कभार एआई से किरदार तैयार करने में ही इस्तेमाल की जा रही है।