रेशम कीड़ों के पालन और उनके कोकून से पैदा होने वाले रेशम फाइबर के उत्पादन में आई तेजी के कारण भारत 2030 तक रेशम और रेशम उत्पादों का प्रमुख उत्पादक देश बनने की ओर अग्रसर है। रेशम उत्पादन की प्रक्रिया को सेरीकल्चर कहा जाता है। वर्ष 2022-23 में अनुमानित रेशम उत्पादन 36,500 टन था, जिसके अगले दशक के शुरू तक बढ़कर कर 50,000 टन पहुंचने की संभावना है। यदि भारत इस आंकड़े को छू लेता है तो वह विश्व के सबसे बड़े रेशम उत्पादक चीन को पीछे छोड़ देगा।
भारत इस समय रेशम उत्पादन में आधुनिक तकनीक अपनाने पर अधिक जोर दे रहा है क्योंकि इस पेशे में लगे किसानों की बड़ी तादाद सदियों पुरानी पद्धति से ही काम कर रही है। सरकार रेशम कीड़ों के पलने-बढ़ने के लिए सबसे जरूरी पौधे शहतूत, अरंडी और दूसरे पौधों का क्षेत्रफल कई अन्य राज्यों में भी बढ़ाने की योजना बना रही है ताकि रेशम की खेती किसी एक राज्य में ही सिमट कर न रह जाए।
सेरीकल्चर से उत्पन्न होने वाले अन्य उत्पादों को भी लाभ कमाने का जरिया बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इनमें कई ऐसे उत्पाद हैं, जिनसे भरपूर व्यावसायिक लाभ लिया जा सकता है। इससे न केवल रेशम उत्पादकों की आमदनी बढ़ेगी, बल्कि रेशम फाइबर, फैब्रिक और रेशम के कपड़ों समेत इससे जुड़े अन्य उत्पादों की गुणवत्ता में भी इजाफा होगा।
केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे कुछ बड़े रेशम उत्पादक राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे छोटे रेशम उत्पादक भी सेरीकल्चर को बढ़ावा देने के लिए महत्त्वाकांक्षी योजनाएं तैयार कर रहे हैं। रेशम उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि अनुमानों के मुताबिक वर्ष 2023 में सेरीकल्चर बाजार 53,000 करोड़ रुपये का था, जिसके 2030 तक 15 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर के साथ बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपये पर पहुंचने की संभावना है।
हालांकि भारतीय सेरीकल्चर निर्यात में अप्रत्याशित रूप से गिरावट देखने को मिली है क्योंकि देश के भीतर ही इसकी मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है। देश में जितनी मांग है, उसके मुकाबले उत्पादन बहुत कम है। भारत को देश के भीतर रेशम आधारित उद्योगों की जरूरत पूरी करने के लिए हर साल 4,000 टन रेशम आयात करना पड़ता है।
इसलिए देसी स्तर पर रेशम उत्पादन बढ़ने के बावजूद इसका निर्यात सीमित ही रहेगा और पिछले दिनों की तरह इसमें घट-बढ़ होती रहेगी। वर्ष 2021-22 में रेशम और इससे बने उत्पादों का निर्यात 24.86 करोड़ डॉलर रहा था, जो इससे एक वर्ष पहले के मुकाबले 25.3 प्रतिशत अधिक था, लेकिन वर्ष 2022-23 में यह निर्यात गिरकर 22.05 करोड़ डॉलर पर आ गया। इस उतार-चढ़ाव में कोविड महामारी की कितनी बड़ी भूमिका रही, यह पता नहीं लग पाया। भविष्य में निर्यात की स्थिति क्या रहेगी, अभी यह कहना भी बहुत मुश्किल है।
भारत की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां चारों प्रकार के रेशम- शहतूत, मूगा, एरी और टसर का उत्पादन होता है। भिन्न-भिन्न किस्मों का रेशम अलग-अलग प्रजाति के कीड़ों द्वारा पैदा किया जाता है, जिन्हें मोठ भी कहा जाता है। सभी प्रकार के रेशम की गुणवत्ता में भी अंतर होता है। इनमें शहतूत रेशम का उत्पादन मोठ प्रजाति के बोमबिक्स मोरी द्वारा किया जाता है। इसके कीड़े शहतूत के पत्तों पर पाले जाते हैं।
देश में अधिकांश रेशम इन्हीं कीड़ों द्वारा पैदा किया जाता है। शहतूत रेशम अपनी मजबूती, बढि़या बनावट और शानदार चमक के लिए मशहूर है। इसलिए भारतीय महिलाओं का पारंपरिक परिधान साड़ी बनाने में इसकी मांग बहुत अधिक होती है। मूगा रेशम विशेष प्रकार की सुनहरी रंगत लिए हुए होता है। यह एंथेरिया असमेंसिस नाम के रेशम कीड़े द्वारा तैयार होता है। ये कीड़े मुख्य रूप से असम और आसपास के क्षेत्रों में पाए जाते हैं। यह रेशम अपनी चमक, चमकदार बनावट और लंबे समय तक चलने जैसी विशेषता के लिए जाना जाता है। आमतौर पर इसकी कीमत भी ऊंची होती है।
इरी रेशम, जिसे एंडी और एरांडी के नाम से भी जाना जाता है, खासतौर पर असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में समी रिसिनी कीटों द्वारा तैयार किया जाता है। इस कीट का रंग हल्का पीला और सुनहरा होता है, जो अरंडी की पत्तियों पर पलता है।
रेशम कीड़ों को आम तौर पर फाइबर निकालने की प्रक्रिया के दौरान कोकून में ही मार दिया जाता है, जिसके लिए उन्हें पानी में उबाला भी जाता है। मगर मोठ कीड़े आम तौर पर रेशम निकालने की प्रक्रिया से पहले ही कोकून छोड़ देते हैं। इसीलिए इस रेशम को अहिंसा रेशम भी कहा जाता है। यही वजह है कि इसे शाकाहारी लोग और बौद्ध भिक्षु बहुत अधिक पसंद करते हैं।
टसर रेशम जिसे संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में कोसा भी कहा गया है, की खासियत यह होती है कि मौसम के बदलाव का इस पर खास फर्क नहीं पड़ता। इससे बने कपड़े जाड़ों में गर्म रहते हैं और गर्मियों में ठंड का अहसास कराते हैं।
इसका उत्पादन मुख्य रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और झारखंड में अधिक होता है। बिहार का भागलपुर इसका मुख्य केंद्र है। अन्य कृषि क्षेत्रों के मुकाबले सेरीकल्चर कहीं अधिक फायदा देने वाला क्षेत्र है। इसके उप उत्पादों का ठीक तरह प्रचार-प्रसार कर और अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इस दिशा में कई रेशम उत्पादक देशों ने अच्छी प्रगति कर ली है।
इनमें बहुत कम रेशम का उत्पादन करने वाले क्यूबा का जिक्र खास तौर पर किया जा सकता है, जो रेशम कीटों के प्यूपा से तेल निकाल रहा है। यह तेल स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। क्यूबा शहतूत जूस का भी उत्पादन कर रहा है, जिसकी बाजार में बहुत अधिक मांग है। भारत के शायद ही किसी राज्य में रेशम उत्पादन से जुड़े इन उत्पादों पर व्यावसायिक लिहाज से काम किया जा रहा हो।
अच्छी बात यह है कि अब नीति निर्धारकों का ध्यान सेरीकल्चर की तरफ जा रहा है। सेरीकल्चर से जुड़े उत्पादों के लिए बाजार तैयार कर भारत के रेशम किसान भी मोटा मुनाफा कमा सकते हैं, जैसा इस क्षेत्र से जुड़े अन्य देशों के लोग कमा रहे हैं।