दुनिया तेजी से हरित अर्थव्यवस्था (Green Economy) की ओर बढ़ रही है। अब यह सौर और पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ बढ़ रही है, ताकि ऊर्जा प्रणाली से कोयला और गैस को हटाया जा सके; इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ बढ़ रही है ताकि परिवहन से तेल की जरूरत को खत्म किया जाए; हाइड्रोजन की तरफ बढ़ रही है ताकि उद्योगों और ऊर्जा में जीवाश्म ईंधन की जरूरत को खत्म किया जाए।
ये ऐसे तीन बड़े बदलाव हैं जो कि एक ऐसी दुनिया में उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं जो तेजी से गर्म हो रही है और जिसमें बड़े नतीजे वाली मौसम संबंधी आपदाएं देखी जा रही हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया को काफी गति और बड़े पैमाने पर आगे बढ़ने की जरूरत है। लेकिन वह कारोबारी मॉडल क्या होगा, जिसे हम नई हरित दुनिया में ले जाएंगे? मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं कि संसाधनों के उपयोग के पुराने मॉडल के साथ अंतर्निहित समस्याएं हैं और इससे सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्परिणाम भी जुड़े हैं।
अब खनिज दोहन का ही मामला देख लें- चाहे कोयला हो, लौह अयस्क या एल्युमीनियम। ऊर्जा और उद्योग की जरूरतों के लिए इन कच्चे माल के खनन से पर्यावरण को भारी नुकसान हुआ है।
भारत में, जैसा कि हमने दर्दनाक रूप से पाया है, इस तरह की खनिज संपदाएं अक्सर वनों, वन्यजीव पर्यावास और जनजातियों की बस्तियों के पास पाई जाती हैं। इसी वजह से हमारा कहना है कि संसाधन का यह अभिशाप समृद्ध भूमि और गरीब लोगों के बारे में है।
तथ्य यह भी है कि हमारी अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक खनिजों को प्राप्त करने के लिए हमें जंगलों को काटना पड़ा और स्थानीय समुदायों को विस्थापित करना पड़ा, जो इस पर्यावास में रहते थे।
इस निष्कर्षण और राजस्व पैदा करने वाले आर्थिक मॉडल की त्रासदी यह रही है कि इन जमीनों पर रहने वाले लोगों को संसाधनों से शायद ही कोई लाभ हुआ हो। यही वह मूल बात है जो हमारी दुनिया में गलत हो रहा है, न कि केवल उद्योगों से उत्सर्जन जो हमें विनाशकारी जलवायु परिवर्तन की ओेर ले गया।
मै यह सवाल इसलिए उठाती हूं कि नई हरित अर्थव्यवस्था में भी दुनिया को खनिजों की जरूरत होगी, भले ही कुछ अलग तरह के- जैसे लीथियम, निकल, कॉपर, कोबाल्ट, ग्रेफाइट- और वे भी जंगलों में ही पाए जाते हैं, हमेशा सबसे हाशिये के लोगों की भूमि पर। यह न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए सच है।
न्यूयॉर्क मुख्यालय वाले बाजार सलाहकार एमएससीआई की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में निकल का 97 फीसदी, तांबे का 89 फीसदी, लीथियम का 79 फीसदी और कोबाल्ट का 68 फीसदी भंडार उस महज 55 किलोमीटर के दायरे में सीमित है जो मूल अमेरिकी लोगों के लिए आरक्षित क्षेत्र है। मध्य अमेरिका से लेकर अफ्रीका और एशिया तक, दूसरे क्षेत्रों का भी यही हाल है।
हरित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने का मतलब यह है कि इन खनिज संसाधनों की जरूरत में कई गुना बढ़त होगी। तो क्या हमारी धरती और उसके लोगों के साथ आचरण करने के तरीके में कोई अंतर होगा? लड़ाई तो पहले से ही लड़ी जा रही है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका के एरिजोना में खनन की दिग्गज कंपनियों रियो टिंटो और बीएचपी बिलिटन की रिजोल्यूशन तांबा खदान मूल निवासी समुदायों के गुस्से की चपेट में हैं क्योंकि खुदाई उनकी पवित्र भूमि पर होनी है। पूरी दुनिया में जहां कहीं भी नए सोने की होड़ है वहां की यही कहानी है, इस धंधे के कोई नए नियम-कायदे नहीं हैं।
भारत में हमने खनिज दोहन को पर्यावरण और सामाजिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए लंबा प्रयास किया है- लेकिन दुर्भाग्य से कोई कारगर समाधान नहीं निकल पाया है। वर्षों पहले सर्वोच्च न्यायालय ने समता फैसले के तहत यह आदेश दिया था कि जनजातीय समुदाय की भागीदारी के बिना आदिवासी भूमि पर कोई खनन नहीं हो सकता है।
इसका मतलब यह है कि जनजातीय लोगों को कम से कम किसी कारोबार में बराबर का हिस्सेदार बनाना होगा। लेकिन इसे नकार दिया गया। इसके बाद यह प्रयास किया गया कि खनन से होने वाले राजस्व का हिस्सा स्थानीय समुदायों को दिलाया जाए।
जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) बनने का पहला मसौदा स्थानीय समुदायों को कारोबारों में भागीदार बनाने के लिए ही था, लेकिन इसे भी हल्का कर दिया गया। मुनाफे का हिस्सा देने या खनिज विकास में लोगों को साझेदार बनाने के महान विचार को महज खनिजों पर अतिरिक्त उपकर लगाने तक सीमित कर दिया गया।
इस उपकर को डीएमएफ के पास जमा किया जाता है और सरकार द्वारा इसका इस्तेमाल खनिज संसाधनों वाली भूमि पर रहने वाले लोगों की अधिक भागीदारी के बिना ऐसे कार्यों के वित्तपोषण के लिए किया जाता है, जिसे वह विकास मानती है।
पर्यावरण और वन संबंधी मंजूरियों के मामले में भी कुछ ऐसे ही स्थिति है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि इन समुदायों के पास परियोजनाओं के लिए सहमति देने का अधिकार हो; नए वन भूमि पर किसी परियोजना के मामले में उनकी आपत्तियों को पूरा वजन दिया जाए। लेकिन विकास के नाम पर इस संरक्षण को भी छीना जा रहा है, जबकि इससे सामाजिक रूप से समावेशी और पूर्ण हरित भविष्य के निर्माण में मदद मिलती।
पुरानी अर्थव्यवस्था में हमेशा विवाद का विषय बनने वाला एक और मसला होता था परियोजनाओें का स्थान- तापीय बिजली संयंत्रों से लेकर लौह भट्ठियों तक- क्योंकि स्थानीय समुदायों को इस बात की आशंका रहती थी कि प्रदूषण उनके जीवन और आजीविका को खतरे में डाल देगा।
अब पवन चक्कियों और सौर ऊर्जा परियोजनाओं के बारे में भी ऐसे ही सवाल उठाए जा रहे हैं- कि वे ऐसे इलाकों में लगाए जा रहे हैं जहां लोगों या वन्यजीवों की बसावट है।
अब इसमें फिर से वही सवाल उठता है: सपने दिखाने वाली हमारी हरित अर्थव्यवस्था में क्या सरकारें ऐसे नियम-कायदे बनाएंगी जिनसे टकरावों का समाधान इस तरीके से निकलेगा कि स्थानीय समुदायों और उनके पर्यावरण का भला हो, या इस बदलाव की ओर दौड़ का मतलब वही पुराने या उससे भी बदतर तरीके होंगे?
तथ्य यह है कि पुरानी अर्थव्यवस्था में संपदा सृजन का वास्तव में गरीबों को कोई लाभ नहीं हुआ। जिन जगहों पर कोयला खनन होता है और ऊर्जा उत्पादन होता है, वे अब भी अंधेरे में हैं।
क्या नई अर्थव्यवस्था में यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वह समावेशी हो? अगर ऐसा हुआ तो ही वह टिकाऊ हो सकती है। अगर ऐसा नहीं होता है, तो नई अर्थव्यवस्था को न तो नई कहना सही होगा और न ही हरित।