बजट बनाने का वक्त आ गया है। पिछले दो दशकों की तरह इस साल भी वित्त मंत्रालय अपने प्रावधान तैयार करते समय विनिवेश से प्राप्त राजस्व का आकलन जरूर रखेगा।
सरकार ने वर्ष 2020-21 के बजट में 2.1 लाख करोड़ रुपये के विनिवेश राजस्व का लक्ष्य रखा था लेकिन बढ़ते खर्चों के बीच उसे अपनी हरेक परिसंपत्ति से आय पर नजरें टिकानी होंगी। वित्त मंत्री ने अपने ‘आत्मनिर्भर’ पैकेज की घोषणा के समय कहा था कि रणनीतिक महत्त्व वाले क्षेत्रों में भी चार से अधिक सार्वजनिक उपक्रम नहीं रहेंगे। हम मान लेते हैं कि बैंकिंग क्षेत्र को भी रणनीतिक महत्त्व का दर्जा दिया जाएगा। इसका मतलब है कि मौजूदा समय के सात बड़े बैंकों एवं पांच छोटे बैंकों में से कई को बेचा जाएगा।
लिहाजा अर्थव्यवस्था पर एक चर्चा के दौरान मैंने पूछा कि क्या कोई कंपनी इन बैंकों को खरीदना चाहेगी और अगर हां तो फिर किन बैंकों को खरीदना चाहेगी? दुर्भाग्य से इसका जवाब है किसी को भी नहीं। वे तो सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को ही खरीदना चाहेंगे जो कि बिकने वाले बैंकों में शामिल ही नहीं है।
कोई बाजार नहीं
हर किसी को पता है कि इसकी तीन बड़ी वजहें हैं। हर कोई दूसरे के कामकाज में दखल देता है जिससे समस्या और बिगड़ती जाती है। पहला, इन बैंकों के पास परिसंपत्तियों से अधिक तो देनदारियां हैं। इसका मतलब है कि उन्हें अधिक रकम चुकाई जानी है लेकिन उनमें से आधी से अधिक राशि लौटने ही नहीं वाली है।
आप इस समस्या की गंभीरता को उस मूल्य से आंक सकते हैं जिस पर वे कारोबार कर रहे हैं। यह काफी हद तक नकारात्मक है। यहां तक कि एसबीआई भी 210 रुपये से थोड़ा ऊपर ही कारोबार कर रहा है जो कि उसके लिए खासा निचला स्तर है। इसके उलट निजी क्षेत्र के बैंकों के शेयरों का मूल्य कहीं अधिक है। मसलन, एचडीएफसी लॉकडाउन के ठीक पहले करीब 883 रुपये के भाव पर कारोबार कर रहा था और पिछले शुक्रवार को यह 1,308 रुपये प्रति शेयर के भाव पर पहुंच चुका था। शेयर बाजार को गणित के बारे में बखूबी पता है।
दूसरा, बैंकों की बहुतेरी देनदारियां खुद उनसे भी छिपी हुई हैं। यहां पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का जिक्र करना ठीक नहीं होगा जिसने बैंकों की निगरानी के मोर्चे पर काफी शिथिलता बरती है। ये बैंक पिछले 20 वर्षों से ‘रचनात्मक लेखांकन’ के काम में लिप्त रहे हैं। और अब पिछली हरकतों के नतीजे भुगतने का वक्त आ गया है।
और तीसरा, ये बैंक जिसे अपनी परिसंपत्ति मानते रहे हैं असल में वे इनकी देनदारियां हैं। मसलन, इन बैंकों की तमाम जगहों पर शाखाएं हैं जो आज के तकनीक-संचालित बैंकिंग दौर में गले का फंदा ही साबित होती हैं। उनके कर्मचारियों के मामले में भी यही बात लागू होती है। इन बैंकों के करीब 80 फीसदी कर्मचारियों की उस समय कोई जरूरत ही नहीं रह गई है जब कृत्रिम मेधा (एआई) पहले ही काम को अंजाम देने लगी है।
कबाड़ की कीमत
एक शब्द में कहें तो इनमें से अधिकांश बैंकों के पास पूंजी की भारी कमी है और उन पर ऋण का भारी बोझ है। उनके लिए इस स्थिति से आजाद हो पाना खासा मुश्किल होगा, लिहाजा उनकी ब्रिक्री के अलावा कोई चारा नहीं होगा। आरबीआई इस बात को अरसे से समझता रहा है और यही कारण है कि वर्ष 1994 के बाद गठित विभिन्न समितियों की तरफ से इनकी बिक्री के बारे में दी गई अनगिनत सलाहों को दरकिनार करते हुए उसने एक बैंक के दूसरे बैंक में विलय को ही वरीयता दी है। सच तो यह है कि बैंकों को बेचने के अलावा कोई और विकल्प कभी रहा ही नहीं है।
असल में, सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया सार्वजनिक उपक्रम की बिक्री का कहीं बेहतर विकल्प रहा है। यही कारण है कि सरकार ने इसे ‘उद्यम मूल्य’ पर ही बेचने का लगभग फैसला कर लिया है। एयर इंडिया की अपनी पूंजी पूरी तरह खत्म हो चुकी है और वह बिक्री से मिलने वाली राशि से खुद पर बकाया करीब 23,000 करोड़ रुपये के कर्ज का ही भुगतान कर सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और एयर इंडिया की कीमत कबाड़ जैसी हो गई है तो बाकी सार्वजनिक उपक्रम बिक्री से कितनी रकम जुटा सकते हैं? इसमें एक और पेच यह है कि इन उपक्रमों के पास की हजारों एकड़ जमीन को भी नहीं बेचा जा सकता है क्योंकि किसी को भी नहीं मालूम कि उन जमीन का स्वामित्व किसके पास है? इसकी वजह यह है कि 1955-80 के कालखंड में सार्वजनिक उपक्रमों के प्रसार के दौरान आम तौर पर राज्य सरकारों ने ही उनकी इकाइयों के लिए जमीन मुहैया कराई थीं। उपक्रमों की जमीन के बारे में कानूनी स्थिति पर कोई स्पष्टता नहीं है।
दिल्ली के लुटियंस क्षेत्र में स्थित अशोक होटल को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार महज इस वजह से नहीं बेच पाई थी कि उस होटल की जमीन के बारे में कोई भी कागजात मौजूद नहीं थे। कोई भी कंपनी जमीन के मालिकाना हक के हस्तांतरण के बगैर कोई संपत्ति नहीं खरीदना चाहेगा।
इस तरह सरकार कूड़े के ऐसे ढेर पर बैठी हुई है जिस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ है। कोई भी कूड़ा नहीं खरीदना चाहता है और सरकार अपना सोना बेच नहीं सकती है। यही कारण है कि उसे विनिवेश प्रक्रिया से मिलने वाली रकम के बारे में कोई भी अनुमान लगाने से बचना चाहिए। अगर उसे कुछ रकम मिल जाती है तो उसे आकस्मिक आय के तौर पर ही देखना चाहिए।
