यह भूल जाइए कि गुलाम नबी आजाद अब क्या कह रहे हैं। हमें सबसे पहले कहीं अधिक बुनियादी प्रश्न करना होगा: हमें कांग्रेस पार्टी की स्थिति के बारे में ज्यादा चिंतित होने की जरूरत क्या है? क्या पार्टी अब मायने भी रखती है? अगर हां तो क्यों? इसका क्या मतलब है? 2018 के जाड़ों के बाद से पार्टी को कोई चुनावी जीत नहीं मिली है।
केरल में पार्टी, वाम दलों के हाथों लगातार दो बार चुनाव हार गई। पश्चिम बंगाल में पार्टी और कमजोर हुई। वह हरियाणा और मणिपुर में दोबारा सत्ता पाने में विफल रही और अपने मजबूत गढ़ पंजाब में भी पराजित हो गई। फिर भी साफ कहें तो पार्टी नेतृत्व को इस नाटकीय आत्महत्या के प्रयास में कड़ी मेहनत करनी होगी। राज्यों में पार्टी के तीन अहम नेताओं के बारे में विचार कीजिए। पंजाब में इसने तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे और आधी सदी से कांग्रेस के सदस्य अमरिंदर सिंह को इतना अपमानित किया कि अब वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ हैं। एक हास्य कलाकार माने जाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू के चुटकुले पार्टी को इतने पसंद आए कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। अब वह जेल में हैं। नये मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए नेता जिन्हें दलित मास्टर स्ट्रोक के रूप में सामने लाया गया वह चुनावी हार के बाद नजर तक नहीं आए हैं। अंतिम जानकारी के मुताबिक वह कनाडा या अमेरिका में थे। आशा करते हैं कि पंजाब के तमाम अन्य लोगों के उलट वह वहां से लौट आएंगे। हम पंजाब के बारे में इतना विस्तार से इसलिए बात कर रहे हैं कि यह तीन अहम मुद्दे दिखाता है। पहला, पार्टी की भीषण अक्षमता जो इस मान्यता से पैदा होती है कि आप बुनियादी रूप से इतने मजबूत हैं कि आपकी नाकामियों के लिए कभी कोई आपको जवाबदेह नहीं ठहरा सकता।
दूसरा यह कि आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद सबसे अधिक मायने रखती है, न कि पार्टी के हित। और तीसरा, कोई बड़ी गलती हो जाने पर भी सुधार करने या खोया स्थान वापस पाने का प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। मानो आप यह सोच रहे हों कि अपना घर तोड़कर आपने एक शानदार काम कर दिया है और अब पलटकर उस ओर देखने की जरूरत ही क्या है?
पार्टी के नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं है। जो सवाल उठाते हैं उन्हें बाहर कर दिया जाता है और इस दौरान भी उन्हें वफादारों के सवाल झेलने पड़ते हैं। जो बने रहते हैं वे राज्य सभा सीट पाने की कोशिश करते हैं। यह बहुत खराब तुलना होगी लेकिन पुतिन का रूस भी जवाबदेही के मामले में बहुत बेहतर है क्योंकि वह यूक्रेन के साथ जंग में अपने जनरलों और एडमिरलों से जवाब तो मांग रहा है। यहां फिर वही केंद्रीय प्रश्न आता है: पार्टी कहां है? दो राज्यों में पार्टी की सरकार है और दोनों जगह उसके मुख्यमंत्री इस चिंता में सोने जाते हैं कि आला कमान कहीं किसी और की बातों में न आ जाए।
जब भी हम कांग्रेस, उसके भविष्य, ताकत, कमजोरियों, अवसरों और चुनौतियों पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं कि हालात दिनबदिन खराब होते जा रहे हैं। बीते एक दशक में पार्टी ने केवल एक जीत हासिल की है और वह है राजनीतिक रसातल में जाने में। यहां हमें कैफी आज़मी की पंक्तियां याद आती हैं जो जवाहरलाल नेहरू के प्रशंसक थे। सन 1961 के एकदम आत्मदया वाले संदर्भ में उन्होंने धर्मेंद्र अभिनीत फिल्म शोला और शबनम में लिखा था: ‘जाने क्या ढूंढ़ती रहती हैं ये आंखें मुझमें/ राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है।’
अगर गांधी परिवार वाकई देखना चाहता है कि उनकी पार्टी में क्या बचा है तो उनको उस समूह पर नजर डालनी चाहिए जो राहुल गांधी ने अपनी पदयात्रा के लिए एकजुट किया है। इसके सबसे प्रमुख चेहरे हमारे सबसे चर्चित स्वयंसेवी संगठनों और सिविल सोसाइटी से आते हैं। ये सब अच्छे लोग हैं। लेकिन उनमें से किसी में यह क्षमता नहीं है कि वह कहीं से भी चुनाव लड़कर अपनी जमानत बचा ले। या फिर कुछ हजार लोगों की भीड़ ही जुटा ले। यह ऐसा राजनीतिक मजाक है कि हम राहुल गांधी की इसलिए तारीफ कर सकते हैं कि उनमें खुद पर हंसने लायक बड़ा दिल है।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा बोझ है उसका वैभवशाली अतीत। वह लंबे समय तक एक बड़ी और रसूखदार पार्टी रही है और इसलिए अब उसके लिए वर्तमान की हकीकतों और भविष्य की वास्तविक संभावनाओं को स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है। पार्टी को अब भी यह यकीन है कि जल्दी ही भारत के लोगों को अहसास होगा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी को चुनकर कितनी बड़ी भूल की है। एक बार लोगों को यह अहसास होने के बाद वे कांग्रेस से माफी मांगकर उसे दोबारा चुन लेंगे। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो इन मूर्ख लोगों का क्या किया जा सकता है? हम उन पर सोशल मीडिया के उन्हीं लोगों से हमले करा सकते हैं जिन्हें इसीलिए काम पर रखा गया है कि वे हर असंतुष्ट और मीडिया आलोचक को अपमानजनक ढंग से खारिज कर दें। हमें यह भी मानना होगा कि कांग्रेस भाजपा से हर मोर्चे पर हार गई है। एक क्षेत्र जहां पार्टी भाजपा से भी अधिक सक्षम हुई है वह है खुद को आईना दिखाने वाले हर व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपमान करना।
राजनीतिक तौर पर पार्टी नेतृत्व (गांधी परिवार और उनके आसपास घटता वफादारों का दायरा) ने जी-23 के सभी असंतुष्टों को मामूली बताकर खारिज कर दिया और वह सही थे। उनमें से कोई कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने की काबिलियत नहीं रखता। यहां दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं। पहला, अगर वे सब इतने ही फालतू लोग हैं तो पार्टी में उनका कद इतना कैसे बढ़ा? वास्तविक प्रतिभाशाली लोग क्यों नहीं आगे बढ़े? दूसरा, अगर वे इतने ही मामूली लोग हैं तो यह केवल उनकी गलती है या पार्टी की भी?
सन 1971 के बाद कांग्रेस को अपनी नयी राजनीति गढ़ने में 50 वर्ष का समय लगा जहां कई नेताओं को व्यवस्थित ढंग से किनारे किया गया और निपटाया गया। हर किसी को गांधी परिवार के किसी न किसी सदस्य की वोट जुटाने की क्षमता के भरोसे छोड़ दिया गया। आखिरी बार यह तरीका 1984 में काम आया था, यानी करीब 40 वर्ष पहले। कोई राजनीतिक शक्ति केवल स्मृति के सहारे आखिर कब तक फलफूल सकती है? सारी स्मृतियां समय के साथ धुंधली हो जाती हैं।
अब जाकर इस बात पर चर्चा हुई है कि गांधी परिवार कितने समय से पार्टी की अध्यक्षता संभाल रहा है। सन 1998 से 22 वर्षों तक सोनिया गांधी इस पद पर रहीं और दो वर्षों तक राहुल गांधी। 24 वर्ष का समय आपकी सफलताओं और विफलताओं के आकलन के लिए पर्याप्त है। यह कहा जा सकता है कि इस अवधि में उन्होंने एक दशक तक अपनी पार्टी को सत्ता में रखा और 2004 में वाजपेयी-आडवाणी की भाजपा से उन्होंने मामूली अंतर से सत्ता छीनी थी। हम कह सकते हैं कि 2004 की जीत कांग्रेस के लिए सबसे बुरी बात साबित हुई। इसने पार्टी के नेताओं को आलसी और आरामतलब तो बनाया ही, साथ ही बल्कि आत्मवालोकन करने तथा सत्ता में वापसी को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय पार्टी ने तमाम गलत राजनीतिक निष्कर्ष निकाल लिए। पहला तो यह कि जनता ने भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के खिलाफ मतदान किया है। इस प्रकिया में पार्टी ने सबसे अहम और राजनीतिक रूप से लाभदायक इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया कि भाजपा इसलिए हारी थी कि उसके कई गठबंधन साझेदारों ने 2002 के गुजरात दंगों पर पार्टी की निष्क्रियता के कारण बगावत कर दी थी। अप्रत्याशित जीत के अवसर पर ऐसा होता है। कांग्रेस ने ऐसा होने दिया और उसका छद्म समाजवादी अतीतमोह राजनीतिक हकीकतों पर भारी पड़ा। इससे पार्टी अपनी वैचारिक और राजनीतिक दिशा गंवाने लगी। सन 1980 के बाद इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी तथा नरसिंह राव ने भारत को पुरानी तथाकथित समाजवादी शैली तथा आर्थिक नीति से दूर ले गए। इसी मुद्दे पर पार्टी अपनी ही सरकार के खिलाफ हो गई।
मैंने उस वक्त बार-बार यही कहा था पार्टी ऐसी बीमारी की शिकार हो गई है जहां शरीर खुद को नष्ट करने लगता है। अब यही हो रहा है। अगर 2004 में पार्टी को अप्रत्याशित जीत नहीं हासिल हुई होती और अहंकार इतना अधिक नहीं होता तो भविष्य के लिए अधिक बेहतर और टिकाऊ राजनीति तैयार की जा सकती थी।
