facebookmetapixel
ऋण घटाने की दिशा में अस्पष्ट नीति आर्थिक प्रगति पर पड़ सकती है भारीमहिलाओं को नकदी हस्तांतरण, बढ़ते खर्च राज्यों के लिए बड़ी चुनौतीभारत के प्रति निवेशकों का ठंडा रुख हो सकता है विपरीत सकारात्मक संकेतभारतीय मूल के जोहरान ममदानी होंगे न्यूयॉर्क के मेयरश्रद्धांजलि: गोपीचंद हिंदुजा का जज्बा और विरासत हमेशा रहेंगे यादहरियाणा में हुई थी 25 लाख वोटों की चोरी : राहुल गांधीBihar Elections 2025: भाकपा माले की साख दांव पर, पिछला प्रदर्शन दोहराने की चुनौतीक्वांटम कंप्यूटिंग में प्रगति की साक्षी बनेगी अमरावती, निवेशकों की रुचि बढ़ीरेवेन्यू का एक बड़ा अहम कारक है AI, Q2 में मुनाफा 21 करोड़ रुपये : विजय शेखर शर्मामौसम का कितना सटीक अनुमान लगा पाएगी AI? मॉडल तैयार करने की कोशिश, लेकिन पूर्ण भरोसा अभी दूर

वै​श्विक वित्तीय तंत्र और अनदेखी समस्याएं

एसवीबी की नाकामी एक खास किस्म के कारणों से हुई लेकिन वह दिखाती है कि कैसे उच्च दरों के कारण ऐसी जगहों पर दिक्कत शुरू हो सकती है जिनके बारे में अंदाजा न हो। इस विषय में बता रहे हैं नीलकंठ मिश्र

Last Updated- March 16, 2023 | 7:40 PM IST
emphasis on sustainability
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

बीते कुछ महीनों में ब्याज दर से जुड़ी अपेक्षाओं में तेजी से इजाफा हुआ और इसके साथ ही ‘दुर्घटनाओं’ मसलन फर्मों की नाकामी को लेकर चिंताएं बढ़ गईं। ऐसा इसलिए कि यह बात वित्तीय बाजारों को प्रभावित कर सकती है। आ​र्थिक ताकतें अक्सर स्वत: समायोजन कर लेती हैं।

ब्याज दरों में इजाफे के साथ मुद्रास्फीति से निपटने की को​शिश अ​र्थव्यवस्था पर असर डाल सकती है। एक बार मुद्रास्फीति के कम होने के बाद दरें दोबारा गिर सकती हैं। यह वैसा ही है जैसे हम किसी पहाड़ की चोटी पर खड़े हों और दूसरी चोटी पर जाने का प्रयास करें।

अगर सबकुछ ठीक रहा तो हम बेहतर जगह पहुंच सकते हैं। लेकिन असली चुनौती है बीच की घाटी को पार करना। जैसा कि फेड के पूर्व चेयरमैन बेन बर्नान्के ने 2018 में लिखा था कि 2008 की मंदी शायद बहुत हल्की रहती अगर वित्तीय बाजारों में घबराहट न फैली होती। क्या सिलिकन वैली बैंक (एसवीबी) की नाकामी वैसी ही एक दुर्घटना है?

एसवीबी की नाकामी की कुछ वि​शिष्ट वजह हैं। उसके जमाकर्ताओं का आधार विविधतापूर्ण नहीं था और इस बात ने इसके संचालन को और अ​धिक शंकास्पद बना दिया। बैंक के जमा में बहुत अ​धिक हिस्सा गैर बीमाकृत रा​शि का भी था। जमा के प्रवाह में भी बहुत अ​धिक अ​स्थिरता देखने को मिली: कोविड के पहले के 5 अरब डॉलर से बढ़कर 2021 के अं​त तक यह रा​शि 173 अरब डॉलर हुई और उसके बाद इसमें तेजी से​ गिरावट आई क्योंकि स्टार्टअप ने फंडिंग की कमी के समय अपनी नकदी का प्रयोग कर लिया।

चूंकि ग्राहकों को बहुत अ​धिक ऋण की जरूरत नहीं थी इसलिए जमा को सुर​क्षित प्रतिभूतियों में डाल दिया गया। यह रा​शि 28 अरब डॉलर से बढ़कर 125 अरब डॉलर हो गई। इन बॉन्ड के डिफॉल्ट होने का कोई जो​खिम नहीं था लेकिन फिर भी ब्याज दर का जो​खिम उनके सामने था। ब्याज दर बढ़ने के ​साथ बॉन्ड के मूल्य में कमी आई। ये नुकसान शुरुआत में कागज पर रहे लेकिन बाद में ये सामने आ गए क्योंकि बैंक को जमा निकासी की ग्राहकों की जरूरत पूरी करने के लिए बॉन्ड की बिक्री करनी पड़ी।

एसवीबी में ये तमाम कारक थे और जरूरी नहीं कि अन्य बैंकों पर इसका अ​धिक असर हो। इसके अलावा सप्ताहांत पर हुए नियामकीय हस्तक्षेप ने भी एसवीबी के जमाकर्ताओं को आश्वस्त किया। न्यूयॉर्क में सिग्नेचर बैंक ने भी ऐसा ही किया। इससे जमाकर्ता आश्वस्त हुए कि उनकी रा​शि सुर​क्षित है।

हालांकि अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था के सामने अभी भी बॉन्ड पोर्टफोलियो के अहम नुकसान का जो​खिम है। सुर​क्षित परिसंप​त्यिों मसलन सरकारी बॉन्ड और मोर्गेज सम​​र्थित प्रतिभूतियों में उनकी धारिता 2019 के 3 लाख करोड़ डॉलर से बढ़कर 2021 में 5 लाख करोड़ डॉलर हो गई। कुछ बिकवाली के बावजूद वह 4.2 लाख करोड़ डॉलर बनी हुई है। फेडरल डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन (एफडीआईसी) ने अनुमान लगाया कि दिसंबर 2022 में इन पोर्टफोलियो को 620 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

इसका आधा हिस्सा बॉन्ड बाजार में होगा यानी बैंक को आशा नहीं है कि परिपक्वता अव​​धि के पहले इनकी बिकवाली होगी। अमेरिकी फेड की क्वांटिटेटिव टाइटनिंग (मौद्रिक नीति को सख्त बनाना) भी इन पोर्टफोलियो को प्रभावित कर रही है। अमेरिकी सरकारी बॉन्ड प्रतिफल बढ़ा है लेकिन मोर्गेज सम​र्थित प्रतिभूतियों में यह और तेजी से बढ़ा है। सरकारी बॉन्ड प्रतिफल तथा मोर्गेज सम​र्थित प्रतिभूतियों में अंतर 40 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया क्योंकि फेड ने इन प्रतिभूतियों की खरीद बंद कर दी।

एसवीबी की नाकामी के कारण बाजार अब फेड की ओर से दरों में धीमी वृद्धि की उम्मीद कर रहे हैं। फेड फंड की दरों के अनुमान एक दिन में करीब 60 आधार अंक गिरे। यानी फेड की मुद्रास्फीति को दो फीसदी रखने की प्रतिबद्धता को जांच से गुजरना होगा। अगर वह कमजोर पड़ी तो वै​श्विक वित्तीय परिसंप​त्तियों पर इसका दूरगामी असर होगा।

उभरते बाजारों की बात करें तो भविष्य की दरों के धीमा होने का अर्थ है सहज मौद्रिक हालात। फिलहाल शायद हालात वैसे न हों क्योंकि वे अनि​श्चितता में अहम इजाफे से प्रभावित हैं। अहम बात यह है एक दशक की मौद्रिक सहजता के बाद मौद्रिक सख्ती और दरों में इजाफे के कारण एसवीबी जैसी घटना शायद इकलौती न हो।

कॉर्पोरेट डेट-जीडीपी अनुपात की बात करें तो विकसित देशों में यह 2010 के स्तर से काफी अ​धिक है क्योंकि निरंतर धीमी ब्याज दरों के कारण पूंजीगत ढांचा बदल गया और कॉर्पोरेट बैलेंस शीट पर पहले की तुलना में अ​धिक कर्ज को मदद मिली। कम दरों के कारण बीबीबी रेटिंग वाले इश्यूअर्स की हिस्सेदारी 2012 के 32 फीसदी से बढ़कर 50 फीसदी हो गई। उच्च दरें ऐसे कर्जदारों को प्रभावित करती हैं।

2023 में बड़ी समस्या रेटिंग में गिरावट से है जो इन कर्जदारों को बहुत बुरे स्तर तक पहुंचा सकता है जहां वे बीमा और पेंशन फंड के निवेश योग्य न रह जाएं। निरंतर कम दरों के कारण ऐसी कंपनियां भी सामने आईं जो अपने परिचालन मुनाफे से ब्याज भरपाई नहीं कर सकतीं।

संप​त्ति में तेजी से गिरावट भी प्रतिकूल हालात का उदाहरण है। 2002 से 2007 के बीच जहां वै​श्विक संपदा और जीडीपी अनुपात में इजाफे ने वृद्धि को गति प्रदान की वहीं 2010 से 2021 के बीच की अपेक्षाकृत तेज वृद्धि का श्रेय कम ब्याज दरों को दिया जा सकता है। संपदा वित्तीय झटकों के दौरान बचाव मुहैया कराती है और कंपनियों तथा लोगों की जो​खिम लेने में मदद करती है। अगर उच्च दरों के कारण संप​त्ति में कमी आती है तो कॉर्पोरेट और आम परिवारों में नकदी की कमी का एक चक्र शुरू हो सकता है।

वर्ष 2019 से 2021 के बीच अचल संप​त्ति की कीमतों में जो इजाफा हुआ, वह कई बड़े बाजारों मसलन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी में 30 से 50 वर्षों का उच्चतम स्तर पर है। अचल संप​त्ति मौद्रिक पारेषण का सबसे सक्षम जरिया है। उच्च दरों के कारण अचल संप​त्ति कीमतों में गिरावट आ रही है। यहां दो जो​खिम उत्पन्न होते हैं: पहला, धीमी आ​र्थिक वृद्धि क्योंकि अ​धिकांश बाजारों में आवास निर्माण जीडीपी में अहम हिस्सेदार है और दूसरा वित्तीय क्षेत्र में तनाव क्योंकि अहम बाजारों में बैंकों के ऋण में आवास ऋण की हिस्सेदारी 30 से 60 फीसदी तक है।

ऐसे ऋण में से 20 फीसदी का ऋण मूल्य अनुपात 80 फीसदी से अ​धिक है। इस स्तर पर हमारी चिंता वृद्धि के धीमेपन को लेकर अ​धिक है लेकिन बात यह भी है कि जर्मनी, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे बाजारों ने दो दशक से अचल संप​त्ति क्षेत्र में मंदी का सामना नहीं किया है और उनकी वित्तीय व्यवस्था पर दबाव नहीं है। ​विदेशी पूंजी बाजारों पर भारत की निर्भरता उसे वै​श्विक वित्तीय तंत्र की घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनाती है जिनके चलते डॉलर की आवक अचानक रुक सकती है। ऐसे में नीति निर्माताओं द्वारा बरती जा रही सतर्कता एकदम उचित है।

First Published - March 16, 2023 | 7:40 PM IST

संबंधित पोस्ट