हममें से अधिकांश लोग सरकारों को लेकर एक हल्के संशय के शिकार रहते हैं। हम सत्ता प्रतिष्ठान से उम्मीद करते हैं कि वह गर्व और राष्ट्रवाद के मिश्रण के साथ काम करेगा। ऐसे में यकीनन हम सोचते हैं कि ईरान की सरकार जवाबी कार्रवाई करेगी और वह इजरायल की सैन्य शक्ति का मुकाबला करने का प्रयास करेगी। वह परमाणु हथियार बनाने के प्रयत्न भी जारी रखेगी।
ऐसा करके हम सत्ता प्रतिष्ठान के हितों की पुष्टि कर देते हैं किंतु जनता के हितों का मामला रह जाता है। राजनीति विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक अनिवार्य अंतर्दृष्टि यह है कि मुख्य पक्ष और प्रतिनिधि के बीच विशिष्ट अंतर होता है। यानी जनता के हितों और सत्ता के हितों में अंतर होता है। खामेनेई की सत्ता जिस प्रकार गर्व और राष्ट्रवाद की तलाश में है उसने ईरान के लोगों के लिए तबाही के हालात बना दिए हैं।
ईरान के लिए सही रणनीति यह है कि वह अगले 50 सालों तक एक सामान्य देश बन जाए। वह जनता के विरुद्ध राज्य की हिंसा से दूरी बना ले, समाज और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए काम करे, एक सामान्य देश बनने की कोशिश करे और दुनिया के अन्य देशों के साथ सहज रिश्ते कायम करे। इससे उसे एक महान देश के रूप में उभरने में मदद मिलेगी जो जनता के हित में होगा। महान नेता वे होते हैं जो अपनी छवि, सरकार की स्थिरता, विचारधारा आदि के संकीर्ण विचारों से ऊपर निकलकर ऐसे काम करें जो जनता के हित में हों। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं।
कांग्रेस नेतृत्व के लिए यह आसान होता कि वह 1947 में ब्रिटिशों के प्रति शत्रुता का व्यवहार रखती। उस समय अधिकांश औपनिवेशिक देशों का स्वतंत्रता के बाद यही रुख था। परंतु समझदारी दिखाते हुए कांग्रेस नेतृत्व ने ब्रिटिशों के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते कायम रखे और हिंसा का इस्तेमाल नहीं होने दिया। यहां नाराज जनता के गुस्से को संतुष्ट करने के बजाय भारत के निर्माण को तवज्जो दी गई जो उदारता का प्रतीक था।
चार्ल्स द गाल फ्रांस में 1958 में इस वादे के साथ सत्ता में आए कि अल्जीरिया को फ्रांसीसी उपनिवेश बना रहने दिया जाएगा। परंतु उन्हें यह समझ में आ गया कि यह फ्रांस के लिए नुकसानदेह है। उन्होंने 1962 में अल्जीरिया की आज़ादी को स्वीकार कर लिया हालांकि व्यक्तिगत रूप से उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। यह भी नाराज जनता को खुश करने के बजाय फ्रांस के निर्माण के उद्दात्त भाव का उदाहरण था।
एफ डब्ल्यू डी क्लार्क को दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी नीति विरासत में मिली थी। वह चाहते तो क्रोध की राजनीति और दुनिया को नकारने की राजनीति जारी रख सकते थे। परंतु उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया था कि यथास्थिति उनके देश की जनता के लिए कितनी मुश्किलें ला रही थी। उन्होंने 1990 में नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा कर दिया और 1994 में लोकतांत्रिक परिवर्तन होने दिया तथा प्रभावी ढंग से स्वयं को तथा अपनी पार्टी को सत्ता से बाहर जाने दिया।
यह भी अपने जनाधार को खुश करने के बजाय दक्षिण अफ्रीका के निर्माण का उदात्त भाव था। मिखाइल गोर्बाचेव भी ऐसे ही एक नायक हैं जिन्होंने रूस के सामान्य देश बनने की संभावनाएं तैयार कीं जबकि वह चाहते तो पश्चिम की बराबरी की होड़ करते हुए सत्ता में बने रहते। अनवर सादात ने भी 1977 में इजरायल के साथ शांति कायम करने के क्रम में समूचे अरब क्षेत्र के नेता का अपना कद कुर्बान कर दिया। इजरायल में इत्जियाक राबिन ने यासर अराफात के साथ बातचीत की और कथित गर्व का रास्ता त्यागकर 1993 में ओस्लो समझौता किया। इसके बदले में उन्हें क्या मिला? सादात की 1981 में और राबिन की 1995 में हत्या कर दी गई। ये हत्याएं उनके ही देशों में मौजूद दक्षिणपंथियों ने की।
तंग श्याओ फिंग ने माओ की जगह ली और वह चाहते तो और माओवाद जारी रख सकते थे। पश्चिम के प्रति नफरत, रणनीतिक स्वायत्तता और घरेलू कुलीनों के प्रति घृणा के मिश्रण के साथ वह माओवाद के गौरव को आगे बढ़ा सकते थे लेकिन इसके बजाय उन्होंने नारा चुना, ‘अपनी ताकत को छिपाओ और सही समय की प्रतीक्षा करो’। उन्होंने पश्चिम से संपर्क बनाया, कुलीनों के उभार का समर्थन करते हुए नारे दिए ‘अमीर बनना गौरव की बात है’ और ‘पहले कुछ लोगों को अमीर बनने दो।’ यह भी नाराज प्रशंसकों का मन रखने के बजाय चीन के निर्माण के भाव से संचालित था।
ये तमाम उदाहरण बताते हैं कि कैसे महान नेताओं ने जनता के हितों का ध्यान रखा अपनी सत्ता का नहीं। उन्होंने एक सामान्य देश बनाने के क्रम में गर्व को जाने दिया, उन्होंने कम हिंसा वाला माहौल बनाया और ऐसी स्थितियां निर्मित कीं जहां 50 साल तक टिकाऊ आर्थिक वृद्धि हासिल हो सके।
यकीनन ऐसे नाकाम नेता भी रहे हैं जिन्होंने गर्व और राष्ट्रवाद पर जोर दिया और अपने जनाधार को खुश करने की कोशिश की। लियोपोल्डो गैल्टियेरी ने 1982 में फॉकलैंड द्वीपों पर हमला किया ताकि घरेलू औपनिवेशिक विरोध की भावना को भुनाया जा सके। इसके चलते 1983 में उनकी सत्ता का ही पतन हो गया। नासिर भी खामेनेई की तरह ही टकराव पसंद करते थे। उन्हें 1967 में छह दिवसीय युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था। रॉबर्ट मुगाबे ने जिंबाब्वे में एक (लोकप्रिय!) हिंसक भूमि सुधार कार्यक्रम का नेतृत्व किया जिसने कृषि उत्पादन को ध्वस्त कर दिया और महंगाई बहुत अधिक बढ़ गई। मूखर्तापूर्ण गौरव का स्वर्ण पदक व्लादिमिर पुतिन को जाता है जिन्होंने रूस के एक सामान्य देश बनने की संभावना को ही समाप्त कर दिया, जबकि वह यूरोप के स्तर का एक गुणवत्तापूर्ण लोकतांत्रिक देश तथा यूरोपीय संघ और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य भी बन सकता था।
यह सही है कि ऐसे नेता होते हैं परंतु हमें नेतृत्व के ऐसे गुणों का सामान्यीकरण नहीं करना चाहिए। हमें इस नतीजे पर नहीं पहुंच जाना चाहिए कि केवल गौरवबोध ही काम करता है। नेतृत्व का सार इस बात में निहित है कि ऐसे काम किए जाएं जो सरकार के नहीं जनता के हित में हों।
खामेनेई की सत्ता ईरान के हालात को गर्व वाले नज़रिये से देख सकती है। वह यह सोच सकती है कि ईरान के लोगों को जवाब देना चाहिए और परमाणु बम बनाना चाहिए। लेकिन यह ईरान के लोगों के लिए अच्छी रणनीति नहीं है। ऐसी कोई वजह नहीं है कि ईरान सरकार परमाणु बनाने की कीमत अपनी जनता की शांति और समृद्धि के रूप में चुकाए। ईरान को इजरायल या सुन्नी बहुल अरब देशों से शायद ही कोई खतरा है। उसे परमाणु हथियारों की आवश्यकता नहीं है। यहां बात केवल ईरान पर शासन कर रहे एक छोटे से समूह के अहं की है। पुरुषवादी अहं या सम्मान महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है ईरान को एक सामान्य देश बनाकर शांति और समृद्धि के हालात निर्मित करना।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)