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पड़ोसी देशों से खत्म होते मित्रतापूर्ण संबंध, शेख हसीना के कार्यकाल के अंत के साथ भारत-बांग्लादेश संबंधों में भी तनाव

एक देश की सरकार द्वारा दूसरे देश के नेता का खुला समर्थन किया जाना अधिकत मामलों में गलत फैसला हो सकता है, लेकिन इस गलती को ठीक करना भी आसान होता है।

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- September 12, 2024 | 9:46 PM IST

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के तौर पर शेख हसीना के लंबे कार्यकाल के शर्मिंदगी भरे अंत ने देश के भविष्य को अनिश्चितता में झोंक दिया है। इस पूरे घटनाक्रम का एक परिणाम यह भी हुआ है कि दक्षिण एशिया में भारत अलग-थलग पड़ गया है। इस बात पर मतभेद हो सकते हैं कि भारत के नीति निर्माता इतने पुरजोर तरीके से हसीना का समर्थन क्यों करते रहे, जबकि यह स्पष्ट हो चुका था कि उनकी लोकप्रियता तेजी से घट रही है। लेकिन हकीकत यह है कि उन्होंने ऐसा किया और उसी का परिणाम है कि अब भारत-बांग्लादेश संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं।

एक देश की सरकार द्वारा दूसरे देश के नेता का खुला समर्थन किया जाना अधिकत मामलों में गलत फैसला हो सकता है, लेकिन इस गलती को ठीक करना भी आसान होता है। किंतु भारत और बांग्लादेश के बीच का रिश्ता कुछ ज्यादा ही पेचीदा है क्योंकि यह इस बात पर निर्भर है कि बांग्लादेश के नागरिक अपने देश के कौन सी विचारधारा चुनते हैं।

बांग्लादेश में भारत को ऐसे निष्पक्ष और तटस्थ पड़ोसी के रूप में देखा जाता है, जो जरूरत पड़ने पर या मदद मांगने पर हर प्रकार के सहयोग के लिए तैयार रहता है। लेकिन वह बांग्लादेश को बराबर का भागीदार मानता है। इससे उस देश के भीतर ऐसा राजनीतिक माहौल बनता है, जिसमें 1971 के जज्बे – सांस्कृतिक आजादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का सम्मान किया जाता है।

लेकिन अगर ऐसा राजनीतिक माहौल बनता है, जिसमें भारत को दखल देने वाला खतरा मान लिया जाए तो बांग्लादेश के लोग अपने देश को और अलग-थलग रखना चाहेंगे तथा धार्मिक राष्ट्रवाद की ओर बढ़ेंगे। यह वास्तव में खतरा है क्योंकि निरंकुशता की ओर बढ़ने के बाद भी हसीना सरकार को भारत के स्पष्ट समर्थन ने बांग्लादेश में ऐसे राजनीतिक बदलाव की स्थिति पैदा कर दी, जो आगे जाकर उस देश के साथ हमारे देश को भी नुकसान पहुंचाएगी।

इसलिए यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में बांग्लादेश के बारे में अधिकतर चर्चा से कुछ हासिल नहीं हुआ है। भारत जब पड़ोसी देशों में सताए गए लोगों के पक्ष में बोलता है तो अच्छा लगता है। इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि बांग्लादेश के हिंदू समुदायों के कई सदस्यों पर लक्षित हमले किए गए हैं। लेकिन यह बात बेहद अनैतिक लगती है कि जब छात्रों का नरसंहार हुआ तब देश के राष्ट्रीय विमर्श से यह मुद्दा लगभग गायब रहा और अब यह उभर गया है।

बांग्लादेश के साथ अपने संबंध सुधारना हमारे देश की प्राथमिकताओं में जरूर शामिल होना चाहिए। इसके अलावा बांग्लादेश की मौजूदा सरकार को देश में व्यवस्था बहाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उसकी मदद भी की जानी चाहिए। साथ ही अगले चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से कराए जाने चाहिए क्योंकि पिछले दो चुनाव वास्तव में स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं थे।

भारत के लिए यह बात कहना कुछ मुश्किल हो सकता है क्योंकि पिछले चुनाव निष्पक्ष नहीं होने पर उसने उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा था। फिर भी भारत को ऐसा करना चाहिए। बेशक अगला चुनाव भी पर्याप्त समय लेकर कराया जाना चाहिए ताकि नई सरकार को बांग्लादेश के संस्थानों की बेहतरी के लिए काम करने का समय मिल सके। साथ ही सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त समय भी मिल जाए कि अवामी लीग या लीग की परंपराओं और विचारधारा को लेकर आने वाली कोई भी पार्टी चुनावों में भागीदारी कर सके और वोटों के मामले में अपनी सच्ची ताकत को निष्पक्ष तरीके से परख सके।

तर्क बुद्धि तो यही कहती है कि बांग्लादेश घटनाक्रम के बाद हमारे देश में इस बात पर गंभीर विमर्श होना चाहिए कि हमारी नीतियों में क्या खामियां रही हैं। क्या हमारे निर्णायकों को खतरे की घंटियां सुनाई नहीं दी थीं? हमारी वैकल्पिक योजना क्या थी? क्या बांग्लादेश के विपक्षी दलों के साथ उनका संपर्क बना हुआ था? क्या घटनाक्रम उनके लिए अप्रत्याशित था? लेकिन विमर्श करने के बजाय हम अमेरिका से लेकर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी तक सभी पर दोष मढ़ने में जुटे हुए दिख रहे हैं।

हालांकि इस वक्त तार्किक विचार नहीं कर पाना पूरी तरह से हैरान नहीं करता। पिछले कुछ वर्षों में मालदीव और नेपाल की सरकारों को भारत विरोधी रुख अपनाने पर अपने देश के भीतर काफी फायदा मिला है। हम इस राजनीतिक उथल-पुथल को कारगर तरीके से संभालने में नाकाम रहे हैं: जब भी हम हस्तक्षेप करते हैं तब वह दखल काफी सख्ती के साथ होता है। हम किसे पसंद करते हैं, यह साफ नजर आ जाता है और इस तरह नजर आता है कि उनके प्रति संदेह बढ़ जाता है। अति राष्ट्रवाद के शिकार हमारे मीडिया के कथ्यों से पड़ोसी देशों की जनता में नाराजगी पैदा हो गई।

जब हम कुछ अच्छा करते हैं- जैसे श्रीलंका को आर्थिक संकट के दौरान वित्तीय मदद करना – तब भी हम उसमें बहुत वक्त लगा देते हैं और जरूरत से ज्यादा किफायती भी बनते हैं। इसके अलावा हम दूसरे पक्ष को इतना झुकने के लिए मजबूर कर देते हैं कि हमारा आभार जताहे के बजाय उसके भीतर कड़वाहट की भावना बढ़ने लगती है।

हम अपने पड़ोसी देश के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था के रुतबे का पूरा फायदा भी नहीं उठा पा रहे हैं। बांग्लादेश के साथ व्यापार और कारोबार जितनी तेजी से बढ़ना चाहिए था, उतना नहीं बढ़ पाया है। कुछ पड़ोसी देशों में भारतीय कंपनियों की हमने मदद की मगर कभी-कभार उस मदद के कारण विवाद की स्थिति बन गई है। जिन परियोजनाओं का वादा हमने पड़ोसियों से किया, उनकी प्रगति भी बहुत धीमी है और कई बार लगता है कि इसके कारण स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार होने लगा।

भूटान को छोड़कर इस वक्त दक्षिण एशिया में भारत के दोस्ताना ताल्लुकात अपेक्षाकृत कम हैं। क्या इससे कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं, क्योंकि भारत बड़ा देश है। लेकिन शायद फर्क पड़ता है। कुछ ही देश हैं, जो पड़ोसियों के साथ मित्रता नहीं होने पर भी अपनी वृद्धि तथा विकास पर ध्यान केंद्रित कर पाए हैं। इस नाकामी के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा?

First Published : September 12, 2024 | 9:46 PM IST