भारत में राजकोषीय स्थिति का आकलन किया जाता है तो मोटे तौर पर कर नीति और राजकोषीय घाटे एवं केंद्र सरकार पर चढ़े कर्ज को देखा जाता है। यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता एवं आर्थिक वृद्धि के लिए राजकोषीय घाटे और ऋण पर नजर रखना जरूरी है। कर नीति का विश्लेषण भी उतना ही जरूरी है क्योंकि इसका असर खर्च योग्य आय, कुल मांग एवं सापेक्ष मूल्यों पर पड़ता है। यह भी सच है कि संविधान में राज्यों को सामाजिक सेवाओं के लिए प्रावधान करने एवं आर्थिक सेवाओं में बराबर जिम्मेदारी निभाने के अधिकार मिले हैं किंतु उनके राजकोषीय प्रदर्शन पर न तो ध्यान दिया जाता है और न ही उसकी ढंग से चर्चा होती है। राजकोषीय स्थिति सूचकांक (एफएचआई) पर नीति आयोग हालिया रिपोर्ट भी यही बताती है। मगर यह समझना जरूरी है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता और जन सेवा प्रावधान की पर्याप्तता तथा कुशलता के नजरियों से यह सूचकांक भिन्न नजर आता है। इसके अलावा अवधारणा तथा आकलन से जुड़ी कई समस्याएं हैं, जिनके कारण इसे नीति के लिहाज से इस्तेमाल करने से पहले काफी सुधार की जरूरत है।
नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) से मिले आंकड़ों के आधार पर इस रिपोर्ट में 18 बड़े राज्यों के एफएचआई की पड़ताल हुई है। इसके लिए पांच उप सूचकांकों को एक बराबर भार देते हुए लिया गया है। ये उप सूचकांक व्यय की गुणवत्ता, राजस्व संग्रह, राजकोषीय समझदारी, ऋण सूचकांक और ऋण स्थिरता बताते हैं। व्यय की गुणवत्ता का आकलन दो तरीकों से किया जाता है – कुल व्यय में विकास व्यय की हिस्सेदारी और सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी। इसी तरह राजस्व संग्रह का आकलन जीएसडीपी में राज्यों के अपने राजस्व की हिस्सेदारी तथा कुल व्यय में राज्यों के राजस्व की हिस्सेदारी से किया जाता है।
राजकोषीय समझदारी का आकलन जीएसडीपी में राजकोषीय घाटे के अनुपात और राजस्व घाटे के अनुपात से लगाया जाता है। ऋण सूचकांक की गणना राजस्व प्राप्ति में ऋण भुगतान के अनुपात और जीएसडीपी में राज्य की बकाया देनदारी के अनुपात से की जाती है। ऋण स्थिरता का निर्धारण जीएसडीपी की नॉमिनल वृद्धि दर और ब्याज भुगतान की वृद्धि दर के अंतर से किया जाता है। यह अनुमान 2022-23 के लिए है और इसका इस्तेमाल कर 2014 से 2022 के बीच की अवधि के रुझान देखे गए हैं। मगर यह नहीं बताया गया है कि किस मात्रा में सेवाएं उपलब्ध कराई गई हैं।
राज्यों की राजकोषीय स्थिति का आकलन जरूरी है ताकि वे अपनी राजकोषीय नीति ठीक से तैयार कर सकें। मगर यह भी स्पष्ट हो कि किस पहलू का आकलन करना है और उसके सटीक एवं तुलनात्मक आंकड़े भी तैयार रहें ताकि सूचकांक उन बातों का बखूबी आकलन कर सके, जो हमें चाहिए। यह इसलिए ज्यादा जरूरी है क्योंकि यह रिपोर्ट नीतियों पर विमर्श करने वाली शीर्ष सरकारी संस्था नीति आयोग ने तैयार की है।
अवधारणा के स्तर पर कोई भी मोटा आकलन व्यापक तस्वीर पेश नहीं कर सकता। राजकोषीय स्थिति का सूचकांक या तो व्यापक आर्थिक स्थिरता के नजरिये से देखा जाता है या उपलब्ध कराई गई जन सेवाओं की पर्याप्तता तथा गुणवत्ता के नजरिये से। राजकोषीय संघवाद के प्रथम पीढ़ी के सिद्धांतों के अनुसार व्यापक आर्थिक स्थिरता मुख्य रूप से केंद्र का काम है और राज्यों पर जरूरी जन सेवाएं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है।
सूचकांक में इस्तेमाल तीन उप सूचकांक घाटे एवं ऋण से संबंधित हैं, जो स्थिरता बनाए रखने के नजरिये से उपयोगी हैं। मगर यहां भी स्पष्ट नहीं है कि जीएसडीपी वृद्धि दर और ब्याज दरों में अंतर से कैसे ऋण की स्थिरता का पता कैसे चलता है। ऋण-जीएसडीपी अनुपात तब गिरता है, जब राज्य की नॉमिनल जीएसडीपी वृद्धि प्रभावी ब्याज दर से आगे निकले। वास्तव में घाटा तथा ऋण बताने वाले उप सूचकांकों का वांछित स्तर की जन सेवा प्रदान करने के राज्य के उद्देश्य से ज्यादा लेना-देना नहीं होता। इसीलिए विश्लेषण में ऊंचे पायदान पर बैठे ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड की शिक्षण संस्थाओं में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं और अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों तथा दवा की स्थिति भी ऐसी ही है।
पहले दो उप-सूचकांक -व्यय की गुणवत्ता और राजस्व संग्रह- प्रदत्त सार्वजनिक सोवाओं के स्तर नहीं माप सकते। विकास कार्यों के लिए आवंटित रकम का आकलन आम तौर पर सामाजिक एवं आर्थिक सेवाओं पर हुए व्यय के योग से किया जाता है। इनमें सब्सिडी एवं रकम अंतरण (बिजली एवं परिवहन और सामाजिक सुरक्षा के लिए रकम सहित) शामिल होते हैं। इसी तरह राज्यों के राजस्व और राजस्व व्यय का अनुपात राजकोषीय विफलताओं के कारण पैदा राजकोषीय निर्भरता को ही दर्शाता है।
राजस्व जुटाने की कमजोर क्षमता वाले किसी राज्य में कर संग्रह के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ प्रयास किए जाएं तब भी उसे बुनियादी जरूरतों के लिए केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता है। ऊपर बताया ही गया है कि राज्यों का प्रमुख कार्य गुणवत्ता भरी आवश्यक सेवाएं प्रदान करना होता है, जिसे प्रति व्यक्ति पूंजीगत व्यय के जरिये अंजाम तक पहुंचाया जाता है।
आंकड़ों से त्रुटियां दूर करना भी उतना ही जरूरी है ताकि सभी राज्यों के बीच तुलना हो सके। जीएसडीपी का अनुमान सबसे पहले राज्यों के आर्थिक एवं सांख्यिकी ब्यूरो लगाते हैं और जरूरी नहीं कि वे तुलना योग्य हों। किसी निश्चित अवधि के लिए तुलना योग्य अनुमान सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय केवल वित्त आयोग को देता है। नीति आयोग भी उससे तुलना योग्य सालाना अनुमान मुहैया कराने का अनुरोध कर सकता है।
बजट में दिए जाने वाले आंकड़े जवाबदेही और ऑडिट के लिए होते हैं। आर्थिक विश्लेषण के लिए इनमें तब्दीली जरूरी है ताकि आर्थिक तथा व्यावहारिक नजरिये से राजस्व एवं व्यय दिख सके। विभिन्न आरक्षित कोषों में भेजी गई रकम लोक खातों में रखी जाती है और इसे खास तौर पर व्यय माना जाता है तथा व्यय के बराबर धन इन कोषों से काट लिया जाता है। इसलिए सही तस्वीर दिखाने के लिए पहले के आंकड़े रखना जरूरी होता है। अब कई राज्य सरकारी परिवहन एवं बिजली उपक्रम चलाते हैं और उनके बजट में राजस्व एवं व्यय अधिक दिखाए जाते हैं क्योंकि सकल राजस्व को राजस्व और लागत को व्यय माना जाता है। पंजाब रोडवेज इसका स्पष्ट उदाहरण है। इसमें व्यय को राजस्व से अलग कर शुद्ध प्राप्तियां दिखाना जरूरी है। राज्य सरकारों की लॉटरियों में भी यही बात लागू होती है।
अंत में बजट से बाहर की देनदारी से मामला ज्यादा बिगड़ता है, जो बिजली वितरण में ज्यादा होती हैं। केरल इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड बोर्ड उदाहरण है, जहां बजट से बाहर उधार लिया गया और वाहन कर तथा पेट्रोलियम उपकर से मिली रकम वह उधार चुकाने में खप जाती है। सीएजी ने इस पर आपत्ति जताई है और इसमें फैसला केरल उच्च न्यायालय करेगा। इसलिए नीति आयोग की पहल गौर करने लायक तो है मगर इसमें स्पष्टता लाने तथा आंकड़े दुरुस्त करने की जरूरत है। उसके बाद ही विश्लेषण एवं नीतिगत उद्देश्यों के लिए इसे इस्तेमाल किया जा सकता है।
(लेखक कर्नाटक क्षेत्रीय असंतुलन निवारण समिति के चेयरमैन हैं। लेख में निजी विचार हैं)