दिसंबर में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति में मामूली गिरावट से देश के आर्थिक प्रबंधकों को कुछ राहत मिलती नजर नहीं आती क्योंकि हाल के महीनों में नीतिगत जटिलता बहुत बढ़ी है। सोमवार को जारी आंकड़े बताते हैं कि मुद्रास्फीति की दर 5.22 फीसदी के साथ चार महीनों के निचले स्तर पर आ गई है। इससे पहले नवंबर में यह दर 5.48 फीसदी थी। अकेले आंकड़े के रूप में भी यह गिरावट इतनी संतोषप्रद नहीं है कि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) फरवरी की बैठक में नीतिगत दरों में कमी शुरू करने की स्थिति में होगी। काफी कुछ अगले वर्ष के अनुमान पर निर्भर करेगा। ताजा अनुमानों के मुताबिक एमपीसी का मानना है कि अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में मुद्रास्फीति की दर औसतन 4.6 फीसदी रहेगी। दूसरी तिमाही में यह घटकर 4 फीसदी रह जाएगी।
चूंकि उच्च खाद्य कीमतें मोटे तौर पर मुद्रास्फीति संबंधी निष्कर्षों से संचालित होती हैं इसलिए इस अनुमान के समक्ष काफी जोखिम हैं। बहरहाल अन्य आर्थिक हितधारक शायद एमपीसी और भारतीय रिजर्व बैंक को अगले कुछ महीनों के दौरान वास्तविक मुद्रास्फीति के नतीजों पर नजर डालने के लिए अधिक समय देने के लिए तैयार नहीं हो सकते। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि धीमी होकर 5.4 फीसदी रही। सांख्यिकी विभाग के पहले अग्रिम अनुमानों के मुताबिक अर्थव्यवस्था चालू वर्ष में 6.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी। यह महामारी (2020-21) में आए संकुचन के बाद सबसे धीमी वृद्धि होगी। देश की अर्थव्यवस्था में 2023-24 में 8.2 फीसदी की दर से वृद्धि हुई। ऐसे में यह कहा जा रहा है कि वृद्धि की खातिर नीतिगत ब्याज दर में कमी करनी होगी। बहरहाल, एक बार फिर नीतिगत चयन इतना भी सीधा सपाट नहीं होगा। भारतीय रुपया दबाव में है और मुद्रास्फीति और वृद्धि संबंधी नतीजों पर इसका असर होगा।
रिजर्व बैंक के सक्रिय हस्तक्षेप के बावजूद रुपया 2025 में अब तक एक फीसदी गिर चुका है। बहरहाल, इसका तात्कालिक रेखांकित करने वाला कारण खासतौर पर भारत से संबद्ध नहीं है। चूंकि भारत चालू खाते के घाटे से जूझ रहा है और अंतर को पाटने के लिए उसे शेष विश्व से धन चाहिए इसलिए भारी पूंजी बाहर जाने पर हालात जटिल बन सकते हैं। हाल के महीनों में विदेशी पूंजी बाहर जा रही है क्योंकि अमेरिका से अपेक्षाएं बदल गई हैं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व अब शायद दरों में कटौती में धीमापन लाए। डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन के आगमन के बाद नीतिगत बदलाव को देखते हुए परिदृश्य और बदल सकता है। ट्रंप ने अमेरिकी आयात पर शुल्क बढ़ाने का वादा किया है। अगर ऐसा होता है तो अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी और मौद्रिक नीति संबंधी विकल्प भी बदलेंगे। ऐसे हालात में और अधिक राशि अमेरिका जाएगी क्योंकि बॉन्ड प्रतिफल में इजाफा होगा। इसके परिणामस्वरूप रुपये जैसी मुद्राओं पर दबाव बढ़ेगा।
हालांकि रुपया वास्तविक संदर्भों में अधिमूल्यित है और भारत की बाह्य प्रतिस्पर्धा को बचाने के लिए उसका अवमूल्यन करना होगा लेकिन नॉमिनल गिरावट से आयात महंगा होगा और मुद्रास्फीति संबंधी निष्कर्ष प्रभावित होंगे। एमपीसी के मुद्रास्फीति संबंधी अनुमानों को ऐसी संभावनाओं में ध्यान में रखना होगा लेकिन अनिश्चितता के स्तर को देखते हुए यह आसान नहीं होगा। इस समय नीतिगत दरों में कटौती से भारतीय और अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल के बीच का अंतर और बढ़ जाएगा। इससे विदेशी निवेशकों के लिए भारतीय ऋण अनाकर्षक हो जाएगा। हालात को और जटिल बनाते हुए अमेरिका पर लगे नए प्रतिबंधों ने वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा किया है। यह मुद्रास्फीति पर और अधिक असर डालेगा। ऐसे में समग्र नीतिगत जटिलताओं में काफी इजाफा हुआ। चूंकि वैश्विक माहौल अत्यधिक अनिश्चित है इसलिए सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह बिना राजकोषीय लक्ष्यों को सीमित किए वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करे। इस बीच रिजर्व बैंक को कीमतों और वित्तीय स्थिरता पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। यह नीतिगत मोर्चे पर रोमांच का वक्त नहीं है।